रंगों, हंसी-मजाक और प्रेम-भावना से परिपूर्ण होली भारत का एक ऐसा उत्सव है, जो उल्लास, उमंग और सामाजिक समरसता का प्रतीक माना जाता है। भारत में विभिन्न स्थानों पर होली मनाने की अलग-अलग अनूठी और ऐतिहासिक परंपराएं देखने को मिलती हैं। ऐसी ही एक विलक्षण परंपरा बीकानेर में धुलंडी के दिन देखने को मिलती है, जो तीन शताब्दियों से भी अधिक समय से चली आ रही है। एक ओर जहां होलाष्टक के दौरान सभी प्रकार के मांगलिक कार्यक्रम निषेध होते हैं, वहीं धुलंडी के दिन न केवल विष्णु रूपी दूल्हे की बारात निकलती है बल्कि विवाह के मांगलिक गीत भी वातावरण में गूंज उठते हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं बीकानेर में धुलंडी पर निकलने वाली ‘विष्णु’ रूपी दूल्हे की बारात की, जो एक ऐसी जीवंत परंपरा है, जो न केवल समय के साथ चली आ रही है बल्कि हर साल और भी अधिक उत्साह व श्रद्धा के साथ मनाई जाती है। यह अनोखी परंपरा तीन शताब्दियों से भी ज्यादा समय से चली आ रही है, जो परंपरा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है बल्कि बीकानेर की आत्मा का अभिन्न अंग है, जो इसकी सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक ताने-बाने को दर्शाती है। यह परंपरा सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक धरोहर और ऐतिहासिक महत्व का अनूठा संगम है। होली के अगले दिन, धुलंडी के अवसर पर, यह परंपरा बीकानेर के लोगों के दिलों में एक विशेष स्थान रखती है।
इस अनूठी बारात की शुरुआत धुलंडी के दिन बीकानेर के मोहता चौक से होती है, जो शहर का एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक केंद्र है। यहां से ‘विष्णु’ रूपी दूल्हा, जो विशेष रूप से चयनित हर्ष जाति का एक कुंवारा युवक होता है, अपनी यात्रा शुरू करता है। दूल्हे को सजाने की प्रक्रिया भी अपने आप में एक कला है। उसे पारंपरिक वस्त्रों और आभूषणों से सजाया जाता है, जो सदियों से चले आ रहे हैं। दूल्हे के सिर पर खिड़किया पाग, ललाट पर पेवड़ी और कुमकुम-अक्षत का तिलक, शरीर पर बनियान और पीताम्बर तथा गले में पुष्पहार शामिल होते हैं। ‘खिड़किया पाग’, जो एक विशेष प्रकार की पगड़ी है, उसके सिर की शोभा बढ़ाती है जबकि ललाट पर पेवड़ी और कुमकुम-अक्षत का तिलक उसकी पवित्रता को दर्शाता है। पीताम्बर और पुष्पहार उसे भगवान विष्णु के स्वरूप में प्रस्तुत करते हैं। विशेष बात यह है कि यह बारात पारंपरिक विवाह जैसी तो होती है लेकिन इसमें विवाह की कोई रस्में नहीं होतीं। दूल्हा केवल विभिन्न घरों में जाता है, जहां महिलाएं उसकी ‘पोखने’ की रस्म निभाती हैं और मंगल गीत गाती हैं। इस अनूठी बारात के दौरान दूल्हा और बाराती लगभग तेरह घरों में जाते हैं। प्रत्येक घर में महिलाएं मंगल गीत गाकर और दूल्हे को आशीर्वाद देकर इस ऐतिहासिक परंपरा का पालन करती हैं। मकानों पर पोखने की रस्म निभाने के बाद दुल्हा निर्धारित वापस मोहता चौक लौट आता है। यह अनूठी प्रक्रिया दर्शाती है कि समाज में आपसी सौहार्द और एकता कितनी महत्वपूर्ण है। वैसे यह परंपरा केवल हर्ष जाति के लोगों तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह पूरे समाज को जोड़ने का एक माध्यम है। विष्णुरूपी दूल्हे की इस अनूठी बारात में समाज के सभी वर्गों की सहभागिता देखने को मिलती है, जिससे सामाजिक समानता और एकता को बढ़ावा मिलता है।
बारात के मार्ग पर हर गली और मोहल्ले में उत्सव का माहौल होता है। लोग अपने घरों के बाहर इकट्ठा होते हैं, रंगों और गुलाल से एक-दूसरे का स्वागत करते हैं और पारंपरिक लोकगीत गाते हैं। इस दौरान विष्णु रूपी दूल्हा विभिन्न घरों में जाता है, जहां महिलाएं पारंपरिक रीति-रिवाजों के अनुसार उसका स्वागत करती हैं। ‘पोखने’ की रस्म, जो विवाह की रस्मों से मिलती-जुलती है, इस अवसर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। महिलाएं मंगल गीत गाते हुए दूल्हे को आशीर्वाद देती हैं और उसे मिष्ठान्न तथा फल अर्पित करती हैं। बारात के मार्ग पर वातावरण पूरी तरह से विवाहमय हो जाता है, जिसमें मांगलिक गीतों, शंख ध्वनि और झालर की झंकार से पूरा वातावरण संगीतमय हो जाता है। विवाह की रस्मों के समान ही पूरे प्रेम और श्रद्धा के साथ निभाई जाने इन रस्मों में फेरे जैसी कोई प्रक्रिया नहीं होती। ये रस्में न केवल धार्मिक महत्व रखती हैं बल्कि सामाजिक बंधन को भी मजबूत करती हैं। बारात के साथ चलने वाले बाराती भी पारंपरिक वेशभूषा में होते हैं, जो इस उत्सव को और भी रंगीन और जीवंत बनाते हैं। ढोल-नगाड़ों की थाप, शंख ध्वनि और झालर की झंकार पूरे वातावरण को संगीतमय बना देती है। लोग नाचते-गाते और रंगों से खेलते हुए बारात के साथ चलते हैं, जिससे पूरा शहर एक विशाल उत्सव स्थल में बदल जाता है।
इस परंपरा का सामाजिक महत्व भी बहुत गहरा है, जो विभिन्न जातियों और समुदायों के लोगों को एक साथ लाता है, जिससे सामाजिक समरसता और एकता को बढ़ावा मिलता है। यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है और हर पीढ़ी ने इसे अपने तरीके से मनाया है, जिससे यह और भी समृद्ध हुई है। यह न केवल बीकानेर के लोगों के लिए गर्व का स्रोत है बल्कि देशभर के पर्यटकों और विद्वानों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है। आज के आधुनिक युग में जब कई परंपराएं लुप्त हो रही हैं, बीकानेर की यह अनूठी विरासत आज भी जीवंत है। यह इस बात का प्रमाण है कि सांस्कृतिक धरोहर और परंपराएं समाज के लिए कितनी महत्वपूर्ण हैं। यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी और बीकानेर अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखते हुए इसे भविष्य की पीढ़ियों तक पहुंचाने का कार्य करता रहेगा। यह अनूठी परंपरा हमें बताती है कि भारतीय समाज में सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं का कितना गहरा प्रभाव है और इन्हें संजोकर रखना हमारी जिम्मेदारी है।
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