जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते है तो सबसे पहले हम भारत की संस्कृति की मूल जड भगोरिया हाट(गलालिया हाट) ध्यान मै आता है। यह केवल एक हाट ही नहीं है व्यक्ति को व्यक्ति से तथा समाज को समाज से जोड़ने का सबसे बड़ा त्यौहार, उत्सव है। भारत वर्ष मै कई त्यौहार, संस्कृति, रीती रिवाज़, परम्पराएं है लेकिन भगोरिया हाट विश्व भर मै एक अलग ही पहचान रखता है। इस दौरान विभिन्न प्रकार की मिठाई की दुकानों भी लगती है। लेकिन वनवासी समाज काकणी, माजम की मिठाई का लुप्त उठाते है।
विश्व की संस्कृति की आत्मा भारत है तो भारत की संस्कृति की आत्मा वनवासी समाज है
भारत की संस्कृति का पुनरुद्धार किसी राष्ट्र की ताकत और पहचान को आकार देने में सर्वोपरि महत्व रखता है। किसी समाज की सांस्कृतिक विरासत उसके मूल्यों, परंपराओं और साझा अनुभवों की परिणति है, जो एकता और उद्देश्य की भावना को बढ़ावा देती है। वनवासी संस्कृति, सरलता, प्रकृति-प्रेम, और पारंपरिक मान्यताओं से परिपूर्ण है। वनवासी समाज, जंगल और पहाड़ों में रहता है। ये अपने निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहते हैं। वनवासी संस्कृति में प्रकृति को पूजनीय माना जाता है। वनवासी समाज की एक विशिष्ट संस्कृति, परंपरा, रीति रिवाज, रहन-सहन, खान-पान होता है। गोदना, शरीर पर टैटू बनवाने की एक परंपरा है। यह भारत के वनवासी समुदायों में काफ़ी प्रचलित है इसे स्थायी आभूषण और सौंदर्यीकरण के तौर पर भी देखा जाता है। भगोरिया हाट में विशेष रूप से गोदवाने का काम युवक युवतियों द्वारा किया जाता है।
होली से सात दिन पहले मनाया जाता है भगोरिया हाट
भगोरिया हाट रबी फसल की कटाई के बाद वनवासी द्वारा वनवासियों के लिए पारंपरिक रूप अर्थात् होली के सात दिन पूर्व लगने वाले हाट को भगोरिया हाट(गलालिया हाट) कहते है। इस दौरान ढोल-मांदल गूंजते हैं। वनवासी पारंपरिक लोकनृत्य करते हैं। सातों दिन अलग-अलग जगह इसका आयोजन होता है। वनवासी बड़ी संख्या में वहां पहुंचते हैं। मेले जैसा नजारा हो जाता है। आदिवासियों की परंपरा के बीच अलग ही उत्साह नजर आता है। अब तो आसपास के शहरों से भी लोग यहां पहुंचने लगे हैं। यह मध्य प्रदेश के मालवा निमाड़ अंचल झाबुआ, अलीराजपुर, बड़वानी, धार, खरगोन आदि जिलों के गावों में मुख्य रूप से आयोजित होता है।
बसंत के मनभावन मौसम में नई फसल आने की खुशी में आयोजित भगोरिया हाट, मूलभूत दैनिक आवश्यकताओं की खरीदारी हेतु आयोजित होता है यह हाट विश्व भर मै प्रसिद्ध है।
वनवासी महिलाओं और पुरषों के पारंपरिक आभूषण
अलंकरण अपना विशेष महत्व रखता है। सामान्यतः वनवासी स्त्री और पुरुष विविध प्रकार के गहने पहनते है। ये कथिर, चांदी और कांसे के बने होते है। जिनमे कथिर का प्रचलन सर्वाधिक है। आज के वर्तमान संदर्भों में जहां पारम्परिक वनवासी आभूषणों को आधुनिक समाज ने फैशन के नए आयामों के रूप में स्वीकार कर लिया है। वनवासी संस्कृति के अनुरूप कमर में काले रंग का मोटा घाटा( बेल्ट नुमा) पहनाए जाते है स्त्री के पैरो के कड़ला, बाकड़िया, नांगर, तोड़ा, पावलिया, तागली, बिछिया महिलाओं के सौभाग्य के प्रतीक आभूषण होते है तो वही पुरषों के हाथों में बोहरिया, कमर में कंदोरा, कानो में मोरखी आदि आभूषण पहनते है।
भगोरिए हाट की शुरुवात
भगोरिया हाट की शुरुआत राजा भोज के समय हुई थी उस समय दो भील राजाओं कसूमर और बालून ने अपनी राजधानी भगोर में मेले का आयोजन करना शुरू किया था। धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी उनका अनुसरण करना शुरू किया। इसी वजह से हाट और मेलों को भगोरिया कहने का चलन बन गया। अब यह बड़ा रूप धारण कर चुका है। जो वनवासी अंचल का एक प्रमुख उत्सव हो चुका है। इस हाट को देखने के लिए पलायन से भी वनवासी समाज घर आते है और बड़े धूम धाम से मनाते है।
वनवासी संस्कृति का समावेश होता है भगोरिए हाट में
भगोरिए हाट में वनवासी समाज की संस्कृति की झलक देखने मिलती है। इसमें युवक और युवतियां एक ही प्रकार की वेश-भूषा में आते है तथा भगोरिए का भरपूर आनन्द लिया जाता है। झूले में झूलना, पान खाना, और बांसुरी बजाना, ढोल के साथ नाचना भगोरिया का प्रमुख आकर्षण का केंद्र होता है।
वनवासी समाज की युवक-युवतियां गहनों से सज धज कर हाट का आनंद लेने पहुंचती है। भगोरिया नृत्य मै ढोल की थाप, बांसुरी, घूँघरूओं की ध्वनियाँ सुनाई देती है। इस दौरान ढोल को विशेष रूप से तैयार किया जाता है। पुराने लोगों का कहना है कि कई सालों पहले पहाड़ों-जंगलों में बसे वनवासी क्षेत्रों में संचार तथा यातायात के साधन उपलब्ध नहीं थे। दूर-दूर रहने वाले परिवार, दोस्त से नहीं मिल पाते थे। ऐसी स्थिति में भगोरिया हाट के माध्यम से आपस में एक-दूसरे से मिलकर खुश हो जाते हैं। इस विशेष हाट में सभी वनवासी सज-धजकर आते हैं। बहुत अधिक संख्या होने से मेला जैसे भर जाता है। मेले रूपी हाट को उत्सव के रूप मे मनाते हैं और दिन भर मांदल की थाप, बांसुरी की धुन पर वनवासी लोकनृत्य करके खुशियां मनाते हैं। इस दौरान ताड़ी (देशी कच्ची शराब) का भी भरपूर दोहन होता है।
सामाजिक मिलन है भगोरिया हाट
भगोरिया हाट को लेकर कई लोगों में गलत भ्रांतियां है लेकिन वास्तव में यह वनवासी समाज का मिलन उत्सव है। कई लोगो ने समाज को बदनाम करने के लिए भगोरिया हाट के बारे में गलत लिखा है लेकिन जब हम वास्तव में भगोरिया के बारे में जानते है तो यह होली के समय वनवासी समाज अपनी खेती वाडी से फुरसत होकर होली के पूर्व खरीदारी के लिए हाट आते है। उसमे फसल की कटाई व काम काज की निवृति के बाद आने वाला सबसे बड़ा उत्सव है। जहां पर पलायन से भी वनवासी समाज आ जाता है और इस हाट में बड़ चढ़ कर हिस्सा लेता है। तथा समाज के युवक और युवतियां बड़े धूम धाम के साथ भगोरिया हाट का आनंद लेते है। समाज में पान खिलानी को लेकर जो भ्रांतियां है वह जुट है। ऐसा कुछ नही है। उस समय सोसल मिडिया का जमाना नही थी फिर भी वनवासी समाज एक सूत्र में बंधे हुए थे। वनवासी समाज की युवक युवतियां परिवार की रजा मंदी के बाद ही विवाह करते है। गुलाल लगाने को लेकर भी कई सोसल मीडिया और पत्र पत्रिकाओं में गलत प्रिंट किया जाता है लेकिन वास्तव में यह ऐसा कुछ भी नही है। वनवासी समाज स्त्री और पुरुष सज धज के भगोरिया हाट का आनंद लेते है। तथा झूले व मांदल की धुन पर नृत्य करते है। बांसुरी से गीत गाते हुए भगोरिया नृत्य करते है।
टिप्पणियाँ