गत 12 फरवरी को उदयपुर में संपर्क विभाग ने एक प्रबुद्ध नागरिक गोष्ठी आयोजित की। इसका विषय था- ‘सनातन के समक्ष चुनौतियां एवं हमारी भूमिका।’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, राजस्थान क्षेत्र प्रचारक श्री निम्बाराम ने इसे संबोधित करते हुए कहा कि जब विश्व में सभ्यता का उदय नहीं हुआ था, तब भी भारत में ज्ञान था। भारत ने कभी विश्व पर अपना ज्ञान नहीं थोपा और न ही आक्रमण किया, लेकिन आज विश्व पटल पर सनातन की व्यापक चर्चा है।
उन्होंने कहा कि विश्व ने आध्यात्मिक महापुरुषों के ज्ञान का अभिनंदन किया है। सनातन भारत की मत-पंथ परंपरा का मूल है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है कि हिंदू एक जीवन पद्धति है। आज हिंदू शब्द अधिक मान्य है। कभी आर्य के रूप में पहचान थी। वर्तमान में तकनीक व विज्ञान का समय है। नई पीढ़ी के समक्ष इस स्वरूप में शोधपरक विचार रखने चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि हमारी संस्कृति व जीवन मूल्य एक हैं, पंथ-परंपराएं अलग हो सकती हैं।
भारत के संविधान में पंथनिरपेक्ष, हम भारत के लोग, अधिकार व कर्तव्य, चित्र, सनातन का प्रतिबिंब हैं। हूण, कुषाण, शक जैसे बाहरी समूह शासन के उद्देश्य से आए, परंतु भारतीय समाज ने उन्हें आत्मसात कर लिया। वहीं इस्लाम का उद्देश्य मजहब का विस्तार था, इसके चलते जजिया कर लगाया गया। महिला दुष्कर्म, आस्था व सांस्कृतिक केंद्रों को ध्वस्त किया गया। इस कालखंड में भारतीय समाज में रूढ़ियां भी स्थापित हुईं। उन्होंने कहा कि जब कन्वर्जन करने वाले ईसाई तत्व भारत आए तो यहां के एकत्व को देखकर अचंभित रह गए थे। उन्होंने भारतीय समाज का व्यापक अध्ययन कर अलग-अलग पहचान स्थापित कर समाज को बांटा।
मैकाले की शिक्षा-पद्धति ने हमारे पूर्वजों को कमतर बताया और अंग्रेजों का विचार प्रचारित किया। इसी विचार ने भारतीय पीढ़ी की मन:स्थिति को बदलना प्रारंभ किया। उन्होंने कहा कि स्व की त्रयी—स्वदेशी, स्वधर्म व स्वराज— को लेकर 1857 का स्वतंत्रता संग्राम हुआ था। 1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने समस्त व्यवस्थाएं संभालीं। गांधी जी की अध्यक्षता में हुए इस अधिवेशन में डॉ. हेडगेवार ने पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखने का आग्रह किया, लेकिन उसे स्वीकार नहीं किया गया। बाद में लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित हुआ तो संघ ने भी अपनी सभी शाखाओं में 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाया और आभार प्रस्ताव पारित किया। परंतु पराधीनता के प्रतीक अब तक क्यों? इन्हें बदलना आवश्यक है, चाहे प्रतीक हों या नाम। अब राजपथ कर्तव्य पथ है।
ऐसे कई उदाहरण हैं, इसमें समाज को भी जुड़ना चाहिए। हम तभी भावी पीढ़ी को गर्व महसूस करवा पाएंगे। जी-20 के मंच पर वैश्विक नेताओं के समक्ष भारत ने नालंदा विश्वविद्यालय के चित्र को प्रदर्शित किया एवं अपना गौरवशाली इतिहास सबके सामने रखा। गोष्ठी के दौरान भारत के संविधान में अंकित 22 चित्रों की व्याख्या सहित प्रदर्शनी लगाई गई, लोकमाता अहिल्यादेवी के जीवन पर आधारित प्रदर्शनी भी लगाई गई थी।
टिप्पणियाँ