Delhi Assembly Election-2025: अरविंद केजरीवाल घूम-घूमकर दिल्ली सरकार के कथित शिक्षा मॉडल का प्रचार कर रहे हैं। लेकिन जमीनी हकीकत इससे कहीं अलग है। शिक्षा के लिए जरूरी होते हैं शिक्षक, लेकिन विज्ञापनों के उलट दिल्ली के शिक्षकों की हालत खराब है। दिल्ली के शिक्षक आम आदमी पार्टी की कथित शिक्षा क्रांति वाली नीतियों के तहत ऐसे बदलावों का सामना कर रहे हैं, जिनसे उन पर उल्लेखनीय रूप से काफी दबाव बढ़ गया है। सुधारों के लिए लक्ष्य तो बड़े हैं, लेकिन कक्षाओं के अंदर के हालात को देखने भर से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सुधार सरकार के विज्ञापनों की तरह व्यापक और प्रभावी, बिल्कुल भी नहीं दिखते हैं। शिक्षकों को शिक्षा के अतिरिक्त चुनावी ड्यूटी, सर्वे जैसे गैर शैक्षणिक कार्यों में भी झोंका जा रहा है, जिससे मूल जिम्मेदारियों से ध्यान हट जाता है।
2022 में दिल्ली सरकार के शिक्षा मॉडल पर एक सर्वे किया गया, जिसमें सरकार के दावों की पोल खुलती दिखती है। उस सर्वे के मुताबिक, दिल्ली में 68 फीसदी शिक्षकों ने इस बात को स्वीकार किया कि सरकार की नीतियों से उनके मूल कर्तव्य बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं, उन पर जरूरत से अधिक बोझ बढ़ गया है। इससे पता चला कि आम आदमी पार्टी के कथित शिक्षा सुधार नवउदारवादी नीतियों से प्रेरित हैं, लेकिन इनकी बिडंबना ये है कि नीतियों के बाद भी शैक्षणिक व्यवस्था पर राज्य का अधिक नियंत्रण बढ़ने के कारण संस्थाओं की स्वतंत्रता कठिन हो गई है। दिल्ली की शिक्षा का इतना हौवा बनाने के बाद भी दिल्ली सरकार के स्कूलों में ज्यादातर छात्र वो परिणाम नहीं ला सके, जिसकी अपेक्षा थी। इससे सरकार की खामियां स्पष्ट दिखती हैं।
हालांकि, टीच ऑर इंडिया जैसे कॉर्पोरेट एनजीओ ने दिल्ली सरकार की शिक्षा नीति को बेहतर तरीके से लागू करने की कोशिशें अवश्य की। लेकिन, ये भी तकनीक के नजर से वंचित छात्रों की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाया। बल्कि, सत्य तो ये है कि जिस प्रकार से ये सरकार कॉर्पोरेट परोपकार पर निर्भर हो रही है, उससे शिक्षा की समावेशी स्थिरता अधिक प्रभावित हुई है। अपने क्रांतिकारी कदमों के तहत दिल्ली सरकार ने मिशन बुनियाद, चुनौती, हैप्पीनेस करिकुलम, देशभक्ति और एंटरप्रेन्योरशिप माइंडसेट करिकुलम (ईएमसी) सहित कई कार्यक्रमों को भी शुरू किया, लेकिन वे सभी धरातल पर वैसे बिल्कुल भी नहीं दिखे, जैसे होने चाहिए थे। 2021 के राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण से देखें तो मामूली सा सुधार हुआ है। गणित में तो दिल्ली सरकार के स्कूलों के छात्रों का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत जैसा ही रहा। इससे ये पता चलता है कि जिस तरह के परिणामों की अपेक्षा थी वैसे परिणाम मिले ही नहीं।
केजरीवाल के शिक्षा मॉडल की सच्चाई चिंताजनक
दिल्ली सरकार की कथित क्रांतिकारी शिक्षा पर दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा ने कहा, “अरविंद केजरीवाल के तथाकथित शिक्षा मॉडल की सच्चाई बेहद चिंताजनक है। कक्षा नौवीं के 17,308 बच्चे दूसरी बार फेल हो गए हैं, और इन्हें कहा गया है कि वे किसी और स्कूल में जाकर पढ़ाई करें। यह स्थिति न केवल शिक्षा प्रणाली की विफलता को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि बच्चों के भविष्य को लेकर सरकार कितनी असंवेदनशील है। शिक्षा की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ओपन स्कूल में मात्र 6,000 बच्चों ने रजिस्ट्रेशन कराया, जबकि 11,000 बच्चों ने तो पढ़ाई ही छोड़ दी। यह अरविंद केजरीवाल के शिक्षा के झूठे दावों की पोल खोलता है और दर्शाता है कि उनका मॉडल सिर्फ प्रचार का हिस्सा है, वास्तविकता में नहीं।”
कई रिपोर्ट से पता चलता है कि दिल्ली सरकार दिल्ली में प्रतिभा विकास स्कूलों को बंद कर रही है। इसमें से पहले ही 6 से 10 तक की कक्षाओं को पहले ही बंद किया जा चुका है, इसके अलावा 2025 तक 11 और 12वीं के स्कूलों को भी बंद करने की तैयारी है। इसके अलावा सरकार के भ्रष्टाचार, गलत धन के आवंटन के आरोपों के बीच सरकार के उच्च शिक्षा व्यय की स्थिरता पर भी लगातार सवाल उठ रहे हैं। बावजूद इसके दिल्ली सरकार शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक सुधार करने की कोशिश करने की जगह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए अपने छद्म सुधारों को मीडिया में क्रांतिकारी सफलता के रूप में पेश कर रही है।
फंडिंग की समस्या से जूझ रहे दिल्ली सरकार के कॉलेज
इसके अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय, जहां शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति कर रहा है, तो वहीं उसी से संबद्ध दिल्ली सरकार के द्वारा वित्तपोषित 12 ऐसे कॉलेज भी हैं, जिनमें प्रशासन के संचालन पर ही विवाद चल रहा है। कारण बहुत स्पष्ट है इन कॉलेजों को फंडिंग, शिक्षकों के वेतन और अन्य दूसरे कार्यों के लिए जूझना पड़ रहा है। इस मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने एक रिपोर्ट में आरोप लगाया था कि इन कॉलेजों के 78 फीसदी शिक्षकों को 2021 में वेतन देने तक में कई माह की देरी की गई। 2021 के आंकड़ों को देखें तो कुल 352 करोड़ रुपए इन कॉलेजों के लिए आवंटित किए गए थे, लेकिन अगले वर्ष इसमें मामूली सी बढ़ोत्तरी करते हुए इसे 361 करोड़ कर दिया गया था। वहीं 2024 की रिपोर्ट देखें तो जहां डीयू के अन्य संकायों में 5000 से अधिक नियुक्तियां की गईं, तो इन 12 कॉलेजों में 40 प्रतिशत पद अभी भी रिक्त पड़े हुए हैं। इसका सबसे बुरा असर छात्रों पर भी पड़ा है। 2022 के ही एक आंकड़े की मानें तो 67 फीसदी छात्र इन कॉलेजों से पूरी तरह से असंतुष्ट थे। छात्रों को स्कॉलरशिप भी नहीं दी गई। इससे सरकार की विफलता और कुप्रबंधन दिखता है। ये दिखाता है कि सरकार की बयानबाजी और हकीकत के बीच एक बड़ा अंतर देखने को मिलता है।
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