मॉडल हर्षा रिछारिया, मोनालिसा, आईआईटीयन बाबा और अब पूर्व अभिनेत्री ममता कुलकर्णी, कुछ ऐसे पात्र हैं जो महाकुंभ में पत्रकारों के लिए महत्वपूर्ण बने हुए हैं। प्रिंट मीडिया के कम लेकिन इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया के पत्रकार अधिक चटखारे लेकर इस पर बहस कर रहे हैं। महाकुंभ में धर्म, संस्कृति और सामाजिक विमर्श के मुद्दे अब इन पत्रकारों के लिए गौण होते जा रहे हैं। कहां और किस धर्माचार्य के पंडाल में इस पर विमर्श हो रहा है, इस पर गंभीरता से विचार करने की किसी को फुर्सत ही नहीं है। इनके लिए टीआरपी का मामला जो है!
ऐसा क्यों हो रहा है? पत्रकारिता का दायरा क्यों इतना संकुचित और संवेदनहीन होता जा रहा है? इसे इस प्रसंग से समझा जा सकता है। जहां तक मुझे याद है, यह घटना वर्ष 2010 की रही होगी। मैं नोएडा स्थित एक बड़ा मीडिया संस्थान के इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग में दो मि़त्रों के साथ बैठा था। कुछ समय बाद उन्होंने अपने एक सहयोगी पत्रकार को बुलाया और जेपी पर एक स्क्रिप्ट लिखने के लिए कहा, क्योंकि जेपी के जन्मदिन पर एक वृत्तचित्र बनानी थी। कुछ देर बाद वह सहयोगी पत्रकार आया और कहा, सर जेपी गौड़ कहां मिलेंगे। उनसे बात कर लेता तो स्क्रिप्ट और अच्छी बन जाती। फिर निविड़ जी ने समझाया कि वह लोकनायक जयप्रकाश नारायण की बात कर रहे हैं, जेपी सीमेंट के मालिक उद्योगपति जयप्रकाश गौड़ की नहीं।
यही हाल इन दिनों अधिकांश पत्रकारों का है। सोचिए, जिस महाकुंभ में पूरी दुनिया से श्रद्धालु आ रहे हों, बगैर किसी प्रशासनिक सुविधा की अपेक्षा किए सिर पर गठरी और हाथ में खाने के सामान की पोटरी लिये संगम में डुबकी लगाने के लिए प्रयागराज महानगर की पैदल ही परिक्रमा कर रहे हों, तमाम कथा वाचक कथा कह रहे हों, विभिन्न विचारधाराओं के सनातन धर्मी साधु-संत सनातन संस्कृति के समक्ष आसन्न संकट और उसके संवर्धन पर विचार-विमर्श कर रहे हों, वहां हर्षा रिछारिया, मोनालिसा, आईआईटीयन बाबा और ममता कुलकर्णी पर बहस हो रही हो, यह निश्चित की भारतीय समाज के समक्ष चिंता का विषय है। यदि यही पत्रकारिता की दशा और दिशा रही तो आने वाले समय में प्रिंट मीडिया की तरह ही इलेक्ट्रानिक मीडिया का भी भविष्य हो जायेगा।
(लेखक प्रयागराज में रहते हैं और तीन दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।)
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