दिल्ली विधानसभा का चुनाव विपक्षी दलों के खुद का अग्निपरीक्षा का होने जा रहा है। विपक्षी दल आपस में इतने विभाजित हैं, इसकी तस्दीक दिल्ली का विधानसभा का चुनाव अच्छे से जनता के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है। दिल्ली में समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना(यूबीटी) सहित कई दल आम आदमी पार्टी को समर्थन कर रहे हैं। आश्चर्य है कि इन दलों का यह समर्थन कांग्रेस पार्टी की कीमत पर किया जा रहा है।
देश के मतदाता जिन्होंने विपक्षी गठबंधन को मत दिया था, वो विस्मित हैं कि अगर इंडि गठबंधन की सरकार भी बन जाती तो क्या ये दल आपस में मिलकर सत्ता का संचालन कर पाते? जनता अब यह महसूस करने लगी है कि ये दल केवल अपनी पहचान बचाए रखने और मतदाताओं को ठगने के लिए आपस में गठबंधन में बंधे थे। इन दलों के गठबंधन का हश्र भी गठबंधन 1996 और 1998 के गठबंधनों के तर्ज़ पर होता, ऐसा आम चर्चा जनमानस के बीच है।
सवाल यह है कि ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे सहित कई अन्य विपक्षी दल आप को समर्थन तो कर रहे हैं मगर कांग्रेस से दूरी आखिर बना क्यों रहे हैं? इस प्रश्न के उत्तर में कांग्रेस पार्टी और इन क्षेत्रीय दलों के बीच आपसी अविश्वास और सत्ता लोभ छिपा है। समाजवादी पार्टी को डर है कि अगर दिल्ली में या देश के किसी भी अन्य हिस्से में अगर कांग्रेस पार्टी मजबूत होती है तो उसका खामियाजा सपा को उत्तर प्रदेश में उठाना पड़ेगा।
अगर कांग्रेस पार्टी देश के किसी भी हिस्से में मजबूत होती है तो सपा से उत्तर प्रदेश में गठबंधन के लिए अधिक सीटों की मांग करेगी। इसकी बानगी सपा को 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में देखने को मिला है जब कांग्रेस पार्टी सिर्फ एक सीट राय बरेली जीतने और तीन सीटों पर दूसरे पायदान पर रहने के बावजूद भी कांग्रेस ने 17 लोकसभा की सीटें गठबंधन करने के लिए सपा से झटक लिया। अब अगर कांग्रेस पार्टी मजबूत होती है तो 2027 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस लोकसभा की तर्ज़ पर गठबंधन के लिए अधिक सीटों की मांग करेगी। कांग्रेस पार्टी को कमजोर रखना अखिलेश यादव के लिए खुद के लिए अनिवार्य है।
पश्चिम बंगाल में भी ममता बनर्जी कांग्रेस पार्टी से संशंकित रहती हैं कि अगर कांग्रेस पार्टी मजबूत हो गई तो उनको इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। 2023 में मुर्शिदाबाद जिले की मुस्लिम बाहुल्य सागरदिघी विधानसभा की सीट पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस को करारी शिकस्त दिया। ममता बनर्जी ने बिना वक्त गंवाए कांग्रेस के सागरदिघी के विधायक को अपनी पार्टी में शामिल करवा लिया। ममता बनर्जी को भय है कि कांग्रेस के मजबूत होने पर वह उनके आधार मुस्लिम वोटों में सबसे पहले सेंधमारी करेगी। इस कारण लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने कांग्रेस पार्टी से गठबंधन भी नहीं किया था।
हरियाणा में कांग्रेस पार्टी की हार से भाजपा से ज्यादा खुश आप थी क्योंकि अगर कांग्रेस हरियाणा का चुनाव जीतकर मजबूत हो जाती तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी आप के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी करने का प्रयास अवश्य करती।\n\nबिहार में लालू यादव की पार्टी कांग्रेस पार्टी से गठबंधन केवल उसके चुनाव हराने की मंशा के कारण ही करती है। कांग्रेस पार्टी जहां चुनाव नहीं जीतने की स्थिति में होती है, वहां अपने पूर्व के सहयोगी को चुनाव हरवाना ही उसका मकसद होता है।
बिहार में 2009 के लोकसभा और 2010 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राजद से अलग होकर चुनाव लड़ा और इन दोनों चुनावों में राजद को घुटनों के बल लाकर खड़ा कर दिया। क्योंकि कांग्रेस पार्टी के पास खोने को कुछ भी नहीं था, अतएव कांग्रेस पार्टी ने खुलकर और बढ़चढ़कर राजद को चुनाव हरवाया। 2009 के लोकसभा चुनाव में लालू यादव पाटलिपुत्र से खुद की सीट भी हार गए थे। 2010 के विधानसभा चुनाव उपरांत राजद नेता विपक्ष का पद भी हासिल करने लायक सीटें नहीं जीत सकी थी। कांग्रेस के इस चुनाव हराने की मंशा से बहुत सारे कांग्रेस पार्टी के पूर्व सहयोगी मजबूरी में कांग्रेस से गठबंधन करते हैं।
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