यूके में ग्रूमिंग गैंग्स को लेकर अब और भी आवाजें तेज हो रही हैं। वे लगातार ही नई नई मगर पुरानी कहानियाँ सामने ला रही हैं। नई और पुरानी एक साथ कैसे हो सकता है? कोई भी यह प्रश्न कर सकता है? तो यह कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ तो पुरानी हैं, मगर लोगों के सामने अब आई हैं तो उन पुरानी कहानियों को नई कहा जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि ये कहानियाँ अपरिचित हैं, क्योंकि ग्रूमिंग तो भारत में भी हिंदू लड़कियों की उसी तरह से होती आ रही है, और उन्हें नकारे जाने का पैटर्न भी वही है, जो वहाँ पर हो रहा है। भारत की मुख्य धारा की मीडिया इन पीड़ित लड़कियों की पीड़ा को उसी तरह से नकारती है, जैसे यूके की उन लड़कियों की पीड़ाओं को नकारा जा रहा है, जिनका शोषण पाकिस्तानी मुस्लिम ग्रूमिंग गैंग्स ने किया था।
इन लड़कियों की पीड़ाओं को सहमति से यौन संबंध की बात करने वालों की भी तादाद बहुत अधिक है। ग्रूमिंग गैंग्स का अर्थ हुआ, वह समूह जो छोटी लड़कियों को एक विशेष प्रकार की मानसिकता से प्रशिक्षित करता है या कहें ग्रूम करता है। उन्हें महंगी कारों, महंगे उपहारों का लालच देकर ड्रग्स आदि के जाल में फँसाते हैं और फिर उन्हें शारीरिक संबंधों में ही नहीं बल्कि देह के बाजार में भी फेंक देते हैं। उन्हें फ़ैन्सी स्पोर्ट्स कार में बैठाते थे, और बॉय फ्रेंड बनने के रूप में लुभाते थे और फिर अधिक उम्र के लोगों के पास भेजते थे।
एक नहीं बल्कि कई मीडिया रिपोर्ट्स आदि आईं, जिनमें इन लड़कियों की पीड़ाएं आईं, मगर इन पीड़ाओं पर ध्यान नहीं दिया गया, बल्कि नकारा गया क्योंकि इससे कथित रूप से मल्टीक्लचरिज्म को नुकसान होता और दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों को लाभ होता।
जिन लोगों ने इस व्यथा को उठाया, उन्हें नस्लवादी कहा गया। क्योंकि पीड़ित लड़कियां श्वेत थीं और उन पर अत्याचार करने वाले लोग अधिकतर पाकिस्तानी मूल के मुस्लिम थे। जब लड़कियों के अपराधियों को पकड़ा जाता तो यह विमर्श खड़ा होता कि रंग के आधार पर या नस्ल के आधार पर ही केवल उन्हें अपराधी ठहराया जा रहा है। इसलिए नस्लवादी का ठप्पा लगने से बचने के लिए, लड़कियों को ही चरित्रहीन ठहराया जाने लगा।
अपने ऊपर हुए अत्याचारों पर आवाज उठाने वाली लड़कियों को नस्लवादी कहा गया। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या अपने पर हुए दैहिक हमले का विरोध भी नहीं किया जा सकता क्या? यदि कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट मीडिया की बात मानें तो यदि हमलावर कट्टरपंथी मुस्लिम है तो पीड़िता को अपनी व्यथा सुनाने का भी अधिकार नहीं है, क्योंकि यदि वह ऐसा करेगी तो वह नस्लवादी कहलाएंगी।
The Sun में 7 जनवरी को एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। जुली बिनडेल द्वारा लिखे गए इस लेख का शीर्षक ही बहुत कुछ कहता है। शीर्षक था कि “मुझे ग्रूमिंग गैंग्स का खुलासा करने को लेकर नस्लवादी कहा गया”। जी हाँ, नस्लवादी! जरा सोचिए कि जो व्यक्ति उन बच्चियों की पीड़ाओं को बता रहा है, उसे नस्लवादी इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि पीड़ित लड़कियां श्वेत हैं। तो क्या श्वेत लड़कियों के साथ यौन शोषण करना आम बात है?
आखिर ऐसा क्या कारण है कि श्वेत लड़कियों के साथ यदि पाकिस्तानी मूल के मुस्लिम युवक यौन शोषण करते हैं, तो लड़कियों को ही दोषी ठहराया जाता है? इसमें फियोना इवीसन की फ़ोटो दी गई है और जिनके विषय में लिखा है कि उन्हें 14 वर्ष की उम्र में ग्रूम किया गया और फिर एक बूढ़े आदमी ने उनके साथ बलात्कार किया और फिर एक पन्टर के हाथों उनका कत्ल 18 वर्ष की उम्र में हो गया था।
फियोना को देह के बाजार में धकेल दिया गया था। फिओना की माँ ने लड़कियों की दलाली को हटाने के लिए एक संस्था बनाई। उन्होनें Coalition for the Removal of Pimping का गठन किया था। फिओना का कथित बॉयफ्रेंड एक अश्वेत था और वह इस संवेदनशील और मध्यवर्गीय लड़की को इस दावे के साथ अपने इशारों पर नचाता था कि उसकी माँ को वह उसकी नस्ल के कारण नापसंद है न कि उम्र के कारण।
जूली का कहना है कि उन्हें यह चालबाजी बहुत मामलों में मिली। वे लिखती हैं कि “बाद में मुझे पता चला कि यह रणनीति हाल ही में ग्रूमिंग गिरोहों के केंद्र में पाकिस्तानी-मुस्लिम लोग बहुत ही ज्यादा प्रयोग कर रहे थे- क्योंकि माता-पिता मदद के लिए CROP से संपर्क कर रहे थे क्योंकि पुलिस और सामाजिक सेवाएँ हस्तक्षेप करने के लिए बहुत कम या कुछ भी नहीं कर रही थीं।
नवंबर 2003 में, 14 वर्षीय चार्लेन डाउन्स गायब हो गई – ब्लैकपूल क्षेत्र में दर्जनों लड़कियों में से एक जिसे इस तरह से ग्रूम किया जा रहा था।“
वे लिखती हैं कि कई लड़कियों को व्यापारिक साझेदारों के पास भेजा गया तो वहीं कई लड़कियों के साथ उनके कथित बॉयफ्रेंड्स ने ही बलात्कार किये थे।
फिर वे लिखती हैं कि ये पिंपिंग अर्थात लड़कियों को देह व्यापार में धकेलने वालेय गैंग बहुत व्यवस्थित थे। 12-13 साल की लड़कियों को उनकी ही उम्र के लड़कों द्वारा निशाने पर लिया जाता था, उनके साथ टेकअवे या स्थानीय शॉपिंग सेंटर्स के पास मुलाकात की जाती थी। फिर उन्हें आकर्षक कारों और ड्रग्स के लिए पैसे वाले खूबसूरत, थोड़े बड़े पुरुषों से मिलवाया जाता था।
अंत में, उन्हें मध्यम आयु वर्ग के पुरुषों के पास भेज दिया जाता था जो उन्हें आसपास ले जाते थे, इन गरीब लड़कियों को फ्लैटों और घरों के बदले उन पुरुषों को बेचते थे जो बच्चों का बलात्कार करने के लिए पैसे देते थे।
जूली लिखती हैं कि वे अपनी इस स्टोरी को गार्डीअन के पास लेकर गईं, मगर उनसे कहा गया कि “हमें नस्लवादी कहा जाएगा!”
जूली यह भी लिखती हैं कि उन्हें यह सुनकर धक्का लगा, क्योंकि इन मामलों में अधिकतर पाकिस्तानी मूल के लोग ही शामिल थे, मगर यह भी सच है कि कई मामलों में लड़की के नजदीकी परिजन ही ऐसे मामलों में आरोपी होते थे। फिर यह भी डर था कि कहीं दक्षिणपंथी दल जैसे ब्रिटिश नैशनल पार्टी इसे नस्ल का मामला न बना ले और पुलिस के लिए नस्लीय दंगों से निबटने की चुनौती हो जाती, यदि लड़कियों के शोषण को पूरी तरह से नस्ल से जोड़ दिया जाता और इसे अप्रवासन की गलती मान लिया जाता।
जूली खुद को एक फेमनस्ट कहती हैं और वह लिखती हैं कि जब 2007 में उनकी यह रिपोर्ट Sunday Times Magazine में प्रकाशित हुई तो उनका नाम दो चरमपंथी कम्युनिस्ट श्वेत लोगों द्वारा संचालित इस्लामोफोबिया वाच की सूची में जोड़ दिया गया था।
एक फेमनस्ट जूली बिनडेल जिन्होनें केवल इन लड़कियों की पीड़ा उठाई थी, और जिन्होनें कहा था कि वे एक फेमनस्ट होने के नाते महिलाओं के साथ अत्याचार करने वाले किसी के भी साथ खड़ी हो नहीं हो सकती हैं, को इस्लामोफोबिक और नस्लवादी कहा गया क्योंकि उन्होनें इन लड़कियों की पीड़ा को उठाया था।
यूके में ग्रूमिंग गैंग्स की पीड़ित लड़कियों की कहानी तो अभी तक सामने आनी ही शुरू नहीं हुई हैं, अभी तो बस उनकी पीड़ा नकारे जाने पर ही प्रश्न उठ रहे हैं कि आखिर ऐसा क्यों हुआ?
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