गत दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत जी के मंदिरों के विषय में दिए वक्तव्य के बाद से मीडिया जगत में एक घमासान-सा छिड़ा प्रतीत होता है। या यूं कहें कि यह घमासान जान-बूझकर पैदा किया जा रहा है। स्पष्ट-सीधे वक्तव्य के अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। नित नई प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। इन प्रतिक्रियाओं में स्वत: स्फूर्त सामाजिक राय की बजाय सोशल मीडिया धुरंधरों की रची धुंध और उन्माद ही अधिक दिखाई देता है।
भारत एक ऐसी सभ्यता-संस्कृति का नाम है, जिसने सहस्रों वर्षों से विविधता में एकता के दर्शन को बताया ही नहीं, बल्कि जिया और आत्मसात किया है। यह भूमि केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों का जीवंत स्पंदन है। ऐसे में मंदिरों का महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और ऐतिहासिक भी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत जी का मंदिरों से जुड़ा बयान एक गहरी दृष्टि और सामाजिक विवेक का आह्वान है। उन्होंने मंदिरों और उनसे जुड़े मुद्दों को राजनीति से ऊपर उठकर समझने तथा संवेदनशीलता के साथ विचार करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है।
प्रश्न यह है कि एक समाज के रूप में हम दिन-प्रतिदिन मंदिरों की ‘खोज’ को और गली-मोहल्लों में वीरान पड़े मंदिरों की खोज-खबर न लिए जाने की प्रवृत्ति को किस प्रकार देखें?
ऐतिहासिक मंदिर : आहत सभ्यता के चिह्न
भारत के हर कोने में ऐतिहासिक, किंतु अल्पज्ञात मंदिर, आक्रांताओं के वार झेलते हुए विकृत-खंडित शिल्प और खंडहर हो गए धार्मिक स्थल हमारी सभ्यता की विरासत हैं। ये मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि उस काल की स्मृतियां हैं, जब भारत को बार-बार आक्रमणों का सामना करना पड़ा। ये मंदिर उस सभ्यता के अध्याय और इतिहास को विज्ञान की तार्किकता के साथ सिद्ध करने वाले जीवंत संग्रहालय हैं। ऐतिहासिकता की कसौटी पर और कुछ विशिष्ट मामलों में यह इतिहास की वह आवाज है, जो नई पीढ़ी को अपनी जड़ों को पहचानने और उन पर गर्व करने का अवसर देती है। किंतु क्या सभी मामलों में ऐतिहासिकता की यह कसौटी ठीक बैठती है? या मामला कुछ और है!
वास्तव में ऐतिहासिकता और आध्यात्मिकता से शून्य, किंतु राजनीतिक स्वार्थ से लबरेज कुछ ऐसे तत्व हैं, जिन्होंने हर गली-मुहल्ले में हिंदू मंदिरों के उद्धार का मुखौटा चढ़ाकर अपनी राजनीति को चमकाना, समुदायों को भड़काना और स्वयं को सर्वोच्च हिंदू चिंतक के रूप में प्रस्तुत करना आरंभ कर दिया है। मंदिरों की ‘खोज’ को सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत करना संभवत: मीडिया के लिए भी एक ‘ट्रेंड’ और इस प्रकार का मसाला बन गया है, जिससे 24 घंटे चलने वाले चैनल और खबर-बाजार का पेट भरता रहता है। लेकिन सवाल है कि इस तरह की खबरों और हर दिन उठने वाले विषयों से समाज में क्या संदेश जा रहा है? एक समाज के तौर पर क्या हम ऐसे विषयों को उठाने और उसके परिणामों के लिए तैयार हैं?
क्या आपको परिवारवादी राजनीति के युवराज का ‘… तो देश भर में आग लग जाएगी!’ वाला बयान याद है?
सोचिए, सामाजिक विद्वेष की आग फैलने की प्रतीक्षा जो लोग पेट्रोल लेकर कर रहे हैं, उनके लिए समाज में उबाल लाने वाला यह मुद्दा कैसा है? जो राजनीति समाज को बांटने के आधार पर ही काम करती है, उस राजनीति के पैंतरों की कितनी चिंता और समझ भोले-भाले लोगों को है?
इस प्रश्न का चिंतन विशेषकर उनके संदर्भ में होना चाहिए जो इन विषयों की आड़ में हिंदू समाज के बीच ‘नेता’ बनकर फांक डालने में लगे हुए हैं।
विवेकपूर्ण दृष्टिकोण की आवश्यकता
मोहन भागवत जी के बयान में समाज से विवेकशील दृष्टिकोण अपनाने का स्पष्ट आह्वान है। यह ठीक भी है। मंदिर हिंदुओं की श्रद्धा के केंद्र हैं, किंतु इन्हें राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करना कतई स्वीकार्य नहीं है। आज के दौर में मंदिरों से जुड़े विषयों पर अनावश्यक बहस और भ्रामक प्रचार को बढ़ावा देना एक चिंताजनक प्रवृत्ति है। सोशल मीडिया ने हल्ला-हंगामे के इस चलन को और बढ़ाया है।
स्वयं को सोशल कहने वाले कुछ समाज विरोधी (या कहें ‘एंटी सोशल’) तत्व सोशल मीडिया मंचों पर ‘स्वयंभू’ उद्धारक और विचारक बन बैठे हैं। समाज के भावनात्मक मुद्दों पर जन भावनाओं का दोहन करने वाले ऐसे विवेकशून्य विचारकों से बचकर रहने की आवश्यकता है। श्रीमद्Þभगवद्गीता (2.63) में कहा गया है-
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
अर्थात् विवेक का अभाव विनाश की ओर ले जाता है।
इतिहास और वर्तमान का संतुलन
मोहन भागवत जी ने नागपुर में 2022 में दिए अपने बयान में कहा था कि ‘इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इसे न तो आज के हिंदुओं ने बनाया और न ही मुसलमानों ने। यह उस समय की घटनाएं थीं।’ यह दृष्टिकोण हमें वर्तमान में सामंजस्य और सौहार्द स्थापित करने का सही मार्ग दिखाता है।
निश्चित ही कुछ मंदिर ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। मंदिरों से जुड़े जो विवाद न्यायालयों में हैं, उन पर न्यायालयों को ही निर्णय लेना है। किसी भी सभ्य समाज से ऐसी ही समझदारी की अपेक्षा रखी जा सकती है। ऐतिहासिक मंदिरों का संरक्षण, अतीत को समझने और उससे सीखने का प्रयास, यह कार्य केवल एक समुदाय की पहचान नहीं, बल्कि पूरे समाज को जोड़ने का एक जरिया है।
एक दूसरा मुद्दा उन मंदिरों का है, जो भवन रूप में तैयार भले किए गए हैं, किंतु उन्हें पूजने वाले अपने घर बेचकर नई कॉलोनी और सोसाइटियों में जा बसे हैं। ऐसे में ये मंदिर वीरान पड़े हैं और देखभाल से शून्य हैं। ऐसे मंदिरों की देखभाल और पुनर्स्थापना न एक दिन का काम है, न एक व्यक्ति या किसी दल विशेष का काम। यह दिन-प्रतिदिन चलने वाला ऐसा कार्य है, जो बिना सामाजिक भागीदारी के संभव ही नहीं है। समाज को भड़काने वालों को यह समझना होगा कि यदि इन मंदिरों की झाड़-पोंछ आवश्यक है, तो सामाजिक भागीदारी और सौहार्द भी आवश्यक होगी। ये मंदिर सामाजिक सद्भाव के सेतु हो सकते हैं।
ओछी राजनीति और सामाजिक विघटन
आज के समय में मंदिरों से जुड़े मुद्दों को ‘राजनीति के हथियार’ के रूप में इस्तेमाल करना चिंताजनक है। सरसंघचालक जी ने इस प्रवृत्ति पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। यह दृष्टिकोण दिखाता है कि हिंदू समाज को अपनी सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करते हुए राजनीतिक झगड़ों, व्यक्तिगत महिमामंडन और विवादों से बचना चाहिए।
नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल की एक चर्चित पुस्तक-‘इंडिया : अ वूंडेड सिविलाइजेशन’ (भारत एक आहत सभ्यता) है। इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय इतिहास, समाज और राजनीति की प्रकृति पर चिंतन और विश्लेषण करते हुए इस बात पर जोर दिया है कि भारत एक सहस्राब्दी के उपनिवेशवाद से इतनी बुरी तरह घायल हो चुका है कि अब उसकी अपनी पहचान धूमिल हो गई है।
आपातकाल जैसी घटनाओं से यह और भी गहरा हुआ। यह ऐतिहासिक आघात स्थायी सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को जन्म देता है, विशेषकर हिंदू बहुल देश में लंबे समय तक हिंदू शासन की अनुपस्थिति के कारण। यानी उनके शब्दों में भारत एक ऐसा देश है, जहां अपनी संस्कृति पर आघात करने वाले विषय पढ़ाए, बताए और बढ़ाए जाते रहे हैं।
फिर समाज को बांटने वाले विद्वेषपूर्ण पहचान खड़ी करने के कुचक्र की रोकथाम कैसे हो?
मोहन भागवत जी का संदेश एक गहरी सामाजिक चेतना को जागृत करता है। यह हमें याद दिलाता है कि इतिहास के घावों को कुरेदने के बजाय हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित करते हुए समाज में सामंजस्य और सौहार्द की भावना को बढ़ावा देना चाहिए। मंदिरों के पुनरुद्धार और उनके संरक्षण में निहित यह भाव हमें एकजुट कर सकता है और भविष्य के भारत को मजबूती प्रदान कर सकता है।
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