‘‘शिक्षा के क्षेत्र में विज्ञान व अध्यात्म के संतुलित समन्वय से ही समाज प्रगतिशील बन सकेगा। वैज्ञानिक जीवन दृष्टि शिक्षक, शिक्षण व विद्यार्थी को जिज्ञासु बनाएगी, प्रश्र करना सिखाएगी, प्रयोगों में पारंगत करेगी। उसमें सत्य को स्वीकारने का साहस होगा। इसी तरह आध्यात्मिक संवेदना के इसमें घुलने से शिक्षक, शिक्षार्थी एवं शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया में संवेदनशील उदारता एवं उत्तरदायित्व निभाने के गुणों का विकास होगा। आध्यात्मिकता से उपजे सद्गुण व्यक्तित्व को समस्त मानवीय क्षुद्रताओं से मुक्त करेंगे। रूढ़ियां और कुरीतियां समाज से विचारशीलता व चिन्तन की मौलिकता को छीन लेते हैं। शिक्षा के क्षेत्र वैज्ञानिक जीवन दृष्टि और जीवन मूल्यों के संयोग से यह कुहासा सदा के लिए दूर हो सकेगा। आध्यात्मिक सम्वेदनाएं उसमें पारस्परिक सौहार्द्र, सौमनस्य, एक- दूसरे के सुख- दुःख में भागीदारी निभाने के सद्गुण विकसित करेंगी। परिणाम स्वरूप समाज अपने अतीत का सही पुनर्मूल्यांकन कर देश के भविष्य को संवार सकेगा।’’
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रजत जयन्ती समारोह में यह उद्गार व्यक्त करते हुए विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना पं. मदन मोहन मालवीय भविष्य के भारत की उजली तकदीर का समाधान निहार रहे थे। 21 जनवरी 1942 की वह शुभ तिथि स्वयं में कई अलौकिक रंग समेटे हुए थी। विश्वविद्यालय की स्थापना के 25 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में आयोजित उस समारोह में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पं. जवाहरलाल नेहरू और काशी नरेश तथा एनी बेसेंट जैसी अनेक मूर्धन्य विभूतियां विराजमान थीं। उक्त समारोह को संबोधित कहते हुए महामना आगे बोल रहे थे- हमारा विश्वास है कि महात्मा गांधी के मार्गदर्शन में हमारे राष्ट्रीय नेता एवं देशवासी मिलकर जल्दी ही स्वाधीनता प्राप्त कर लेंगे। मैं देख रहा हूं कि सम्भवतः इसमें पांच- छह साल से अधिक समय नहीं लगेगा। ऐसे में आज से, अभी से, इसी क्षण से हमारे विश्वविद्यालय के बल्कि मैं तो कहूंगा पूरे देश के शिक्षकों, छात्र- छात्राओं सहित समस्त बुद्धिजीवियों को भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाली विचार पद्धति की संरचना का कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिए। भगवान शिव जो समस्त ज्ञान-विज्ञान के आदिगुरु हैं और माता अन्नपूर्णा जो कि सर्व समृद्धि की अधिष्ठात्री हैं- आज हम उनकी नगरी काशी में बैठे हैं। वैदिक ऋषियों एवं देवों के स्वर कभी यहीं गूंजे थे। भगवान् बुद्ध ने यहीं अपना सारनाथ संदेश सुनाया था। भारत भूमि के हजारों सन्तों एवं आचार्यों ने इसी भाव से प्रेरित होकर अपने विचारों को मूर्त रूप दिया था; इसलिए मेरा आप सबसे भावपूर्ण अनुरोध है कि क्यों न हम सब देश के शैक्षणिक एवं सामाजिक क्षेत्र में सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप जलाएं। शिक्षा का विषय कोई भी हो, पर उसमें वैज्ञानिक जीवन दृष्टि के साथ आध्यात्मिक सम्वेदना भी स्पन्दित होनी चाहिए। शिक्षा का मूल उद्देश्य होना चाहिए वैज्ञानिक अध्यात्म पर आधारित सफल एवं समग्र व्यक्तित्व का निर्माण। हमारे सामाजिक परिदृश्य में वैज्ञानिक अध्यात्म की ऐसी क्रान्ति किरणें फूटनी चाहिए जिससे समाज से जातीयता, क्षेत्रीयता व साम्प्रदायिकता का अंधियारा मिट जाए और बचे तो केवल बस भारतीयता जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आध्यात्मिक पावनता से ओत-प्रोत हो।
देश की भावी पीढ़ी को आधुनिक शिक्षा के साथ सनातन जीवन मूल्यों की आध्यात्मिक विद्या देने के प्रबल पक्षधर महामना पंडित मदन मोहन मालवीय भारतीयता व हिन्दुत्व की साक्षात प्रतिमूर्ति के रूप में जाने जाते हैं। 25 दिसम्बर 1861 को प्रयाग के प्रख्यात भागवत कथाकार पंडित ब्रजनाथ जी के घर जन्मी भारत की इस महान विभूति का समूचा जीवन देशवासियों के हितचिंतन एवं देश की उन्नति में बीता था। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि देश के सुशिक्षित व संस्कारी युवा ही उज्ज्वल राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। दैनिक “लीडर” के प्रधान संपादक श्री सी.वाई. चिंतामणि ने एक बार लिखा था, “महात्मा गांधी के मुकाबले में अगर कोई व्यक्ति खड़ा किया जा सकता है तो वह हैं मालवीय जी। उनके व्यक्तित्व में एक अनोखा आकर्षण था और उनकी वाणी में इतनी मिठास, लेकिन इतनी शक्ति थी कि असंख्य लोग स्वतः ही उनकी ओर खिंचे चले आते थे। उनकी वाणी का लोगों के मन पर स्थायी प्रभाव पड़ता था। उन्होंने अपने लंबे कर्तव्य परायण जीवन के द्वारा यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि समाज और देश की सेवा में कभी भी विश्राम करने की गुंजाइश नहीं है।”
अंग्रेजों के षड्यंत्रों के मुखर विरोधी
उस समय भारत पर अंग्रेजों का शासन था और अंग्रेजी विद्यालयों में हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति के विरोध में बहुत दुष्प्रचार होता था। देश की दुर्दशा और अंग्रेजों के अत्याचार देख बालक मदन मोहन का मन पीड़ा से भर जाता था। अंग्रेजों के इन अत्याचारों का विरोध करने के लिए उन्होंने किशोरवय में ही अपने कुछ साथियों के मदद से ‘वाग्वर्धिनी सभा’ की स्थापना कर जगह-जगह भाषण देकर हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध किये जाने वाले अंग्रेजों के षड्यंत्रों का मुखर विरोध शुरू कर दिया था। प्रारंभिक शिक्षा के बाद प्रयाग के म्योर सेंट्रल कॉलेज में उन्होंने पंडित आदित्यराम भट्टाचार्य से संस्कृत की शिक्षा लेकर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। उसी दौरान मालवीय जी द्वारा लिखित व मंचित ‘जेंटलमैन’ नामक नाटक कॉलेज में खासा लोकप्रिय हुआ जिसमें अंग्रेजी सभ्यता की थोथी मान्यताओं की खूब खिल्ली उड़ायी गयी थी।
प्रखर संपादक के साथ कुशाग्र वकील भी थे मालवीय जी
मालवीय जी के विचारों से कालाकांकर राजा रामपाल सिंह इतने प्रभावित हुए की उन्होंने मालवीय जी को ‘हिंदुस्तान’ पत्र का संपादक बना दिया था। जहाँ उनके व्यक्तित्व का एक विराट पक्ष उभरकर सामने आया। मालवीय जी के संपादन में ‘हिंदुस्तान’ ने बड़ी ख्याति अर्जित की। मालवीय जी ने ढाई वर्ष तक ‘हिंदुस्तान’ का संपादन किया और पत्र को एक सामाजिक दर्जा दिलवाने में सफलता प्राप्त की। सन 1889 में उन्होंने अंग्रेजी पत्र ‘इंडियन ओपेनियन’ के संपादन का कार्य किया। संपादन के साथ-साथ मित्रों के आग्रह पर मालवीय जी ने देशसेवा के लिए प्रयाग उच्च न्यायालय में वकालत भी की और कुछ दिनों में ही कई पेचीदे मुकदमे जीतकर सभी को हतप्रभ कर दिया। अत्यंत कुशाग्र होने के साथ-साथ परम विवेकी भी थे। वे अपने तर्कों को इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते कि विरोधी पक्ष के वकील को उसके खंडन की कोई युक्ति नहीं मिलती थी। देखते देखते वे देश के उच्चकोटि के वकीलों में गिने जाने लगे। कालांतर में अपने विचारों को जनमानस तक पहुंचाने के लिए उन्होंने ‘अभ्युदय’ नामक पत्र का प्रकाशन भी किया। इस पत्र के माध्यम से वे जनमानस को अवगत कराते थे कि शिक्षा और सुधार कार्यों के नाम पर अंग्रेज अधिकारी हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांतों पर प्रहार कर ज्यादा से ज्यादा हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन का प्रलोभन देते हैं। अपने धर्म का यह अपमान करना उन्हें सहन नहीं था। कालांतर में अपने इन्हीं विचारों के कार्यरूप में परिणत करते हुए जनसहयोग से 4 फरवरी, 1916 को वसंत पंचमी के दिन काशी हिन्दू विश्वविधालय की आधारशिला रखी थी।
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