सम्भल में उपद्रव के बाद सबसे पहले एक प्राचीन शिव मंदिर मिला, जो 46 वर्ष से बंद पड़ा था। इसके बाद वहां बरसों से बंद दो और मंदिर मिले। फिर अलीगढ़, मुजफ्फरनगर, काशी और अन्य स्थानों पर मुस्लिम बहुल इलाके से ‘गायब’ और जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मंदिरों के मिलने की खबरों का जैसे सिलसिला ही चल पड़ा है।
अलीगढ़ में जिस मंदिर को अतिक्रमण से मुक्त कराया गया, वह 150 वर्ष पुराना है। अन्य स्थानों की तरह यहां भी मूर्तियां मिट्टी में दबी हुई मिलीं। यह समाचार न केवल हिंदू समाज को राहत देने वाला है, बल्कि इस प्रकार की घटनाओं ने एक बड़ा प्रश्न भी खड़ा किया है—क्या भारत में बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के अधिकार और उनकी सांस्कृतिक धरोहर सुरक्षित हैं? यह कैसा लोकतंत्र है कि पहले आक्रांताओं और फिर औपनिवेशिक शासन के जाने के बाद भी बहुसंख्यक हिंदुओं को निशाना बनाने का कुचक्र चलता रहा!
विविधता को पोसने वाली हिंदू संस्कृति का पालना कहे जाने वाले भारत में बरसों से बहुसंख्यक हिंदू समाज के ही हितों की अनदेखी की गई। तुष्टीकरण की राजनीति ने उनके अधिकारों और सांस्कृतिक अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। मंदिरों पर कब्जा, कन्वर्जन की बढ़ती घटनाएं और हिंदू परंपराओं की उपेक्षा, यह सब सोचने पर मजबूर करते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त प्रयास हो भी रहे हैं या नहीं?
भारत में ‘सेकुलरिज्म’ को अक्सर बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ तुष्टीकरण की राजनीति के रूप में प्रयोग किया गया है। यह विचारधारा हमेशा से हिंदुओं के अधिकारों को कमजोर करती रही है। पिछले कुछ दशकों में वामपंथी राजनीति और पक्षपातपूर्ण नीतियों ने हिंदू समाज के मन-मस्तिष्क में यह बात बैठने की कोशिश की कि उनकी संस्कृति और परंपराएं रूढ़िवादी या पिछड़ी हुई हैं।
ऐतिहासिक रूप से देखें तो मुगलकालीन आक्रमणों से लेकर औपनिवेशिक काल तक, हिंदू सांस्कृतिक धरोहर को बार-बार निशाना बनाया गया। स्वतंत्रता के बाद तुष्टीकरण की राजनीति ने इस उपेक्षा को और गहरा किया। मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में लाने और उनकी आय का उपयोग अन्य क्षेत्रों में करने की नीति, साथ ही इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने जैसे प्रयास, हिंदू समाज की असुरक्षा को बढ़ाने वाले कारक हैं।
स्मरण रहे, हिंदू मंदिर केवल धार्मिक स्थल नहीं हैं; बल्कि इस देश और समाज की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर के प्रतीक हैं। काशी, मथुरा, अयोध्या और अब अलीगढ़ जैसे स्थानों पर मंदिरों को अतिक्रमण से मुक्त कराना यही दर्शाता है कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर किस हद तक उपेक्षित और खतरे में है।
इन मंदिरों पर कब्जा करना या उन्हें क्षति पहुंचाना केवल आस्था पर हमला नहीं है, यह हिंदू पहचान और सभ्यता को मिटाने का प्रयास भी है। यह स्थिति तब और गंभीर हो जाती है, जब न्याय और निष्पक्षता की मांग करने वाला मीडिया और अंतरराष्ट्रीय मंच इन मुद्दों को पूरी तरह नजरअंदाज करते हैं।
कन्वर्जन की बढ़ती घटनाएं भी हिंदू समाज के लिए एक गंभीर चुनौती हैं। विशेष रूप से आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को निशाना बनाकर उन्हें बड़े पैमाने पर कन्वर्ट किया जा रहा है। यह प्रक्रिया न केवल धार्मिक संरचना को प्रभावित करती है, बल्कि इसके दूरगामी सामाजिक और सांस्कृतिक परिणाम भी होते हैं। मुस्लिम बहुल मुहल्लों से हिंदुओं के पलायन और ‘यह मकान बिकाऊ है’ के दारुण चित्र प्रदर्शित करती खबरें अपराध, उपेक्षा और जनसंख्या असंतुलन की ओर बढ़ने की एक के बाद एक सीढ़ियां ही तो हैं!
कोई 10-12 बरस पहले इस देश में चर्च पर हमले का हल्ला उठा था। हालांकि, बाद में पुलिस जांच से साफ हो गया कि यह लोकसभा चुनाव से पहले जनमत को भड़काने की साजिश थी। असल में ऐसा कुछ था ही नहीं, जिसका ढिंढोरा पीटा गया। बाद में अंतरराष्ट्रीय मीडिया में मुस्लिम हितों की भारत में उपेक्षा को लेकर ऐसी ही कहानी उठाई गई।
यह विचारणीय है कि जब मुस्लिम या ईसाई समुदाय के ‘अधिकारों के हनन’ का झूठ फैलाया जाता है तो, मीडिया और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में इसकी गूंज सुनाई देती है। लेकिन हिंदू हितों के वास्तविक दमन को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। क्या यह दोहरी मानसिकता बहुसंख्यक समाज में असंतोष और असुरक्षा की भावना को जन्म नहीं देती?
क्या हिंदू अपने ही देश में सुरक्षित हैं? और सुरक्षित हैं तो कब तक! यह सवाल अब राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बन गया है। विडंबना ही है कि जहां अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चर्चा होती है, वहीं हिंदू समाज को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
यह सब देखते हुए आवश्यक लगता है कि भारत में हिंदू हितों की रक्षा हेतु धार्मिक स्थलों की सुरक्षा और अतिक्रमण की रोकथाम के लिए सख्त कानून बनाए जाएं। स्कूल और कॉलेजों में इतिहास और संस्कृति पर आधारित पाठ्यक्रम लागू किए जाएं। मीडिया में हिंदू समाज के मुद्दों को ऐतिहासिक अन्याय का उल्लेख करते हुए प्राथमिकता और संतुलित दृष्टिकोण के साथ उठाया जाए। भारत में हिंदुओं की सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करना राजनीतिक ही नहीं, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक जिम्मेदारी भी है।
सुखद बात यह है कि हाल के वर्षों में हिंदू समाज अपने अधिकारों और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा के प्रति अधिक जागरूक हुआ है। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और अतिक्रमण से मंदिरों को मुक्त कराने के प्रयास इसी सामाजिक जागरूकता के प्रतीक हैं। दूसरी ओर, युवाओं में अपनी संस्कृति और इतिहास के प्रति बढ़ती रुचि ने भी एक नई उम्मीद जगाई है। मंदिरों का संरक्षण, कन्वर्जन के विरुद्ध आवाज उठाना और अपने सांस्कृतिक प्रतीकों की पुनर्स्थापना के प्रयास हिंदू समाज के पुनर्जागरण की दिशा में उठाए गए कदम हैं।
अतएव हिंदू समाज की पहचान, अधिकार और धरोहर की रक्षा केवल धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक अखंडता और इतिहास की सुरक्षा की दृष्टि से भी आवश्यक है। मंदिरों का संरक्षण और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा का मतलब केवल अतीत की ओर देखना नहीं, बल्कि भविष्य के लिए एक मजबूत नींव रखना भी है।
भारत की संस्कृति और परंपराएं राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता का आधार हैं। यहां की सभ्यता और संस्कृति हजारों वर्ष पुरानी ही नहीं, अपितु दुनिया की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यदि हिंदू भारत में ही सुरक्षित नहीं होंगे, तो न केवल उनकी संस्कृति, बल्कि भारतीय सभ्यता की जड़ें भी कमजोर होंगी। इसलिए यह समय तुष्टीकरण की राजनीति को नकारने और सांस्कृतिक गौरव को पुनर्स्थापित करने का है।
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