पर्थ में दमदार जीत के साथ भारत ने जिस तरह से ऑस्ट्रेलियाई दौरे की शुरुआत की थी, उससे टीम इंडिया से काफी उम्मीदें बढ़ी थीं। भारतीय टीम खेल के हर क्षेत्र में मेजबान ऑस्ट्रेलिया को पस्त करते हुए 5 मैचों की सीरीज में जीत के साथ शुरुआत की थी। टीम में उत्साह, जबरदस्त फॉर्म और मेजबान की आंखों में आंखें डालकर परिणाम अपने पक्ष में करने का हौसला दिखा था। लेकिन एडिलेड में पिंक बॉल टेस्ट मैच शुरू होते ही भारतीय टीम एकदम से बदली हुई नजर आयी।
सटीक रणनीति का अभाव
भारतीय खिलाड़ियों ने पर्थ में जो लय हासिल की थी, वह पूरी तरह से खोते दिखे। जुझारू क्षमता और रणनीति का सर्वथा अभाव दिखा। इन दिनों मॉडर्न डे क्रिकेट के तहत विशेषकर युवा खिलाड़ियों के खेल में कुछ ज्यादा ही आक्रामकता दिखती है। इसी आक्रामक अंदाज के चलते भारतीय बल्लेबाज परिस्थितियों को नजरअंदाज करते हुए कंगारुओं की जाल में फंसते चले गए। इसके अलावा एडिलेड टेस्ट से पहले टीम से जुड़े कप्तान रोहित शर्मा और पर्थ टेस्ट के शतकवीर विराट कोहली व यशस्वी जायसवाल जिम्मेदारियों के बोझ तले कुछ ज्यादा ही दबाव में दिखे। इसके अलावा जसप्रीत बुमराह के नेतृत्व में भारतीय गेंदबाजों ने जो मारक क्षमता दिखायी थी, वह बिखरी-बिखरी सी दिखी। ऑस्ट्रेलियाई गेंदबाजों ने जहां मात्र 81 ओवरों में भारत की दोनों पारियां समेट दीं, वहीं बुमराह को छोड़ अन्य भारतीय गेंदबाज अपनी धार खोते नहीं दिखे। ऐसा नहीं है कि सिर्फ एक मैच के बाद भारतीय गेंदबाज अचानक से खराब हो गए, लेकिन बाउंसर या छोटी लेंग्थ की तेज गेंदों से मेजबान टीम को कभी भी सुरक्षात्मक रुख अपनाने को मजबूर नहीं कर सके। इसी तरह पर्थ टेस्ट में ठीकठाक प्रदर्शन करने वाले वाशिंगटन सुंदर की जगह रविचंद्रन अश्विन को टीम में शामिल कर लिया गया। रोहित शर्मा चूंकि टीम के कप्तान हैं और शुभमन गिल टीम के स्थापित बल्लेबाज हैं, इसलिए उनकी टीम में वापसी के लिए युवा बल्लेबाजों को टीम से बाहर करना जायज कारण था। लेकिन जीत की लय पा चुकी टीम में जरूरत से ज्यादा ‘ नाम की जगह प्रतिष्ठा ’ को महत्ता देने की सोच से टीम प्रबंधन को बचना चाहिए।
खुद पर ओढ़ा दबाव
ऑस्ट्रेलिया को उसी की भाषा में जवाब देते हुए पूर्व कप्तान सौरव गांगुली ने वर्ष 2001 और 2004 की सीरीज में साबित किया था कि मेजबान टीम को हराना मुश्किल जरूर है, पर असंभव नहीं। भारतीय टीम में इसकी झलक पर्थ टेस्ट में दिखाई भी दी। लेकिन एडिलेड में पिंक बॉल कृत्रिम प्रकाश में स्विंग ज्यादा करती है, इस बात का दबाव ज्यादातर शीर्ष बल्लेबाजों पर दिखा। यह सही है कि मिचेल स्टार्क सहित अन्य ऑस्ट्रेलियाई गेंदबाजों ने बेहतर रणनीति के साथ भारतीय बल्लेबाजों को अपनी जाल में फंसाया। लेकिन बल्ले से अपना लोहा मनवा चुके यशस्वी, रोहित, के एल राहुल, विराट कोहली और शुभमन गिल अगर दबाव अपने ऊपर हावी नहीं होने देते तो विकेट बचा सकते थे। इसके बाद भारतीय गेंदबाजों ने अनुशासित गेंदबाजी करने के प्रयास में मैकस्विनी व लाबुशेन सहित शतकवीर ट्रेविस हेड जैसे बल्लेबाजों को क्रीज पर टिकने का मौका दे दिया। जिन स्विंग व उछाल लेती गेंदों पर भारतीय बल्लेबाज फंसे थे, वो मारक क्षमता बुमराह को छोड़ अन्य भारतीय तेज गेंदबाजों में नहीं दिखी। बाउंसर के जरिए मेजबान बल्लेबाजों को दबाव में लाने की न तो ज्यादा कोशिश हुई और न ही फुल लेंग्थ गेंदों से उन्हें ड्राइव करने को प्रेरित किया ताकि कैच पकड़े जा सके।
नायक बनने की होड़ ले डूबी
एडिलेड टेस्ट मात्र 1031 गेंदों में समाप्त हुआ और एक शर्मनाक रिकॉर्ड भारत के नाम दर्ज हुआ। भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच टेस्ट इतिहास में गेंदों के लिहाज से यह सबसे छोटा मैच रहा। एक समय था जब टेस्ट मैचों का नतीजा पांच दिनों में भी नहीं निकलता था, वहीं एडिलेड टेस्ट 15 में से 7 सत्र तक भी नहीं चला। ये जल्दबाजी कहीं न कहीं तथाकथित मॉडर्न डे क्रिकेट की खामियों को उजागर करता है जो टेस्ट क्रिकेट के रोमांच व खूबसूरती को धीरे-धीरे लील रही है। खैर, यह एक बृहत विषय है जिस पर चर्चा कभी और जरूर होगी। लेकिन संक्षेप में भारतीय टीम, विशेषकर बल्लेबाजों के हाव-भाव या रणनीति पर ध्यान दें तो स्पष्ट नजर आएगा कि जिन गेंदों को छोड़ा जा सकता था उसके साथ छेड़खानी कर भारतीय बल्लेबाजों ने अपने विकेट गंवाए। मैच प्रसारणकर्ता की कमेंट्री टीम में शामिल पूर्व क्रिकेटर हरभजन सिंह और चेतेश्वर पुजारा ने स्पष्ट तौर पर कहा कि टेस्ट क्रिकेट में किस गेंद को खेलना है और किस गेंद को छोड़ना है, यह भी टेस्ट क्रिकेट की एक महत्वपूर्ण कला है। सुनील गावस्कर, दिलीप वेंगसरकर, सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण और चेतेश्वर पुजारा जैसे कितने ही महान भारतीय बल्लेबाज है जिन्होंने रनों का अंबार खड़ा किया तो उसके पीछे उनका धैर्य व विकेट पर टिके रहने की दृढ़ इच्छाशक्ति थी। आज मिचेल स्टार्क अगर बेहतरीन स्विंग गेंदबाजी कर रहे हैं तो भारतीय बल्लेबाज उनकी गेंदों को रक्षात्मक ढंग से खेलना अपना तौहीन समझते हैं। इसके उलट अच्छी उछाल लेती व बाउंसर गेंदों को जहां ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाजों ने पूरा सम्मान देते हुए या तो डक किया या छोड़ दिया, उसी तरह की गेंदों को छेड़ते हुए भारतीय बल्लेबाजों ने मेजबान टीम के कप्तान पैट कमिंस की झोली में उपहारस्वरूप विकेट बांटे।
एडिलेड में हुई चूक न दोहराएं
विश्वास मानें, वर्तमान भारतीय टीम की प्रतिभा व उपलब्धियों पर किसी को कोई संदेह नहीं है। लेकिन पर्थ में अच्छी शुरुआत के बाद एडिलेड में कुछ इस तरह के मनोभाव या नजरिये के साथ एक कदम आगे बढ़ाती टीम दो कदम पीछे छूट जाएगी। कामना है कि भारतीय टीम एडिलेड में हुई चूक को नहीं दोहराएगी। प्रतिभावान खिलाड़ियों से लैस भारतीय टीम में अब भी सीरीज जीतने का माद्दा है। चूंकि भारतीय क्रिकेट टीम विश्व की शीर्षस्थ टीमों में शुमार की जाती है तो उसके जायज कारण भी हैं। हम भारतीय क्रिकेटप्रेमियों को अब भी भरोसा है कि सीरीज के बचे अगले तीन मैचों में वापसी करती जरूर दिखेगी। … और उसके लिए जरूरत पड़ेगी सिर्फ मानसिकता बदलने की।
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