बीआरआई के जिस समझौते पर ओली दस्तखत कर आए हैं उसके माध्यम से विस्तारवादी चीन नेपाल में बुनियादी ढांचे से जुड़ीं कुछ परियोजनाओं के लिए पैसा देगा, और ‘नेपाल के विकास’ के रास्ते उस देश पर अपनी धमक और बढ़ाता जाएगा। यहां यह जानकारी रहे कि चीन नेपाल के कई सीमांत क्षेत्रों में घुसपैठ करके उसके काफी हिस्सों को ‘अस्पष्ट सीमा’ की आड़ में अपने कब्जे में ले चुका है।
आखिरकार नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपनी पहली ही चीन यात्रा में वह किया जिसको लेकर उनका पूरा देश घबरा रहा था। नेपाल के प्रधानमंत्री ने कम्युनिस्ट ड्रैगन की महत्वाकांक्षी बीआरआई परियोजना से अपने देश को जोड़ने संबंधी समझौते पर दस्तखत करके नेपाल के अर्थविशेषज्ञों के माथे पर बल डाल दिए हैं। उनके इस कदम ने सत्ता में उनकी सहयोगी नेपाली कांग्रेस को भी नाराज किया है।
ओली के चीन जाने से पहले ही कयास लगाए जा रहे थे कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ओली को अपने ‘वादों’ में उलझाकर उनसे बीआरआई पर दस्तखत करा लेंगे, और पांच दिन की ओली की बीजिंग यात्रा का लब्बोलुआब यही निकला। अब नेपाल भी अधिकृत रूप से कम्युनिस्ट देश की उस बीआरआई परियोजना का सदस्य देश बन गया है जिसके शिकंजे में पहले से फंसे कई देश अब पछता रहे हैं।
बीआरआई के जिस समझौते पर ओली दस्तखत कर आए हैं उसके माध्यम से विस्तारवादी चीन नेपाल में बुनियादी ढांचे से जुड़ीं कुछ परियोजनाओं के लिए पैसा देगा, और ‘नेपाल के विकास’ के रास्ते उस देश पर अपनी धमक और बढ़ाता जाएगा। यहां यह जानकारी रहे कि चीन नेपाल के कई सीमांत क्षेत्रों में घुसपैठ करके उसके काफी हिस्सों को ‘अस्पष्ट सीमा’ की आड़ में अपने कब्जे में ले चुका है।
हालांकि प्रधानमंत्री ओली इस समझौते को एक बड़ा ‘क्रांतिकारी कदम’ कह रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञ और उनकी सहयोगी पार्टी नेपाली कांग्रेस इसे गरीब नेपाल देश का कर्ज के पिंजरे में कैद होना बता रहे हैं।
2 दिसम्बर से पांच दिन की पहली विदेश यात्रा के लिए चीन को चुनने को लेकर ही कम्युनिस्ट नेता ओली पर सवाल उठे थे। इस यात्रा पर उंगली उठाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड सहित अनेक वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें सावधान किया था कि इस दौरे में वे नेपाल को चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना के पिंजरे में न फंसाएं। लेकिन वही हुआ जिसकी आंशका पांचजन्य ने इस विषय पर अपने पूर्व विश्लेषण में जताई थी। ओली बीआरआई पर दस्तखत कर आए।
चीन ने ओली को यही बताया है कि इस समझौते का उद्देश्य ‘ट्रांस-हिमालयन मल्टी-डायमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क’ खड़ा करना होगा। इसके माध्यम से नेपाल कारोबार और कनेक्टिविटी के एक क्षेत्रीय केन्द्र के तौर पर उभरेगा। जाहिर है, ओली और उनके साथ गई उनकी टीम को यह सुनने में सुहाया होगा।
ओली की टीम भी इसे लेकर बागबाग है और बता रही है कि इस योजना में महामार्ग, रेल तथा उर्जा नेटवर्क जैसी कई महत्वपूर्ण बुनियादी परियोजनाएं शुरू हो सकेंगी। साफ है कि नेपाल और चीन की नजदीकियां बढ़ेंगी। ओली कहते हैं, इससे ‘कनेक्टिविटी बढ़ेगी’ और नेपाल का ‘आर्थिक विकास’ होगा।
ओली और जिनपिंग की शुरुआती बैठक के बाद, नेपाली दल ने संशय बनाए रखा था कि दस्तखत करें कि न करें। उस दौरान भी नेपाल के विशेषज्ञों को लग गया था कि ओली टीम अगर सोचने में समय लगा रही है तो यह समझौता हो ही जाएगा और ऐसा हुआ तो नेपाल को आगे खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। लेकिन ‘सोच—विचार’ के बाद ओली की टीम समझौते पर राजी हो गई, दस्तखत कर दिए गए। बैठक से बाहर आकर टीम ने मीडिया के सामने ‘नेपाल का विकास’ होगा की रट लगानी शुरू कर दी। लेकिन इससे हिमालयी देश में ओली के सामने कई चुनौतियां आने को बेताब हैं।
बीआरआई परियोजना से जुड़ने के नेपाल के लिए मायने होंगे उसकी विदेश नीति में बड़ा बदलाव। कूटनीति के जानकार कहते हैं कि अब काठमांडू चीन की तरफ ज्यादा झुका रहेगा बजाय भारत के, जो परंपरा से अलग जाने जैसा होगा। क्योंकि ऐतिहासिक रूप से भारत ही एकमात्र देश है जो नेपाल के हर सुख—दुख में साथ खड़ा रहा है। अब नेपाल चीन के इशारों पर चलता दिखे तो आश्चर्य नहीं होगा। और नेपाल में ऐसी परिस्थिति पैदा ही इसलिए हुई है क्योंकि वहां पिछले करीब 15 साल से राजनीतिक रूप से अस्थिरता रही है। सरकारें आई हैं और जल्दी ही गई हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों ने साठगांठ करके कुर्सी पर कई बार कब्जा किया है। नेपाल जैसे देश के लिए यह दुखद स्थिति है।
काठमांडू में सरकारों के आने—जाने की उठापटक के बीच उस देश की विदेश नीति की ऐसी अनदेखी हुई कि चीन को काठमांडू में घुसपैठ का मौका मिल गया। उसने वहां अपने तत्वों को रोप कर भारत विरोधी, हिन्दू विरोधी माहौल बनाना शुरू कर दिया। कम्युनिस्ट ड्रैगन ने वहां के नेताओं को अपने पैसे की चमक दिखाकर कई परियोजनाओं में चीनी कंपनियों की दखल करवा ली और हर उस क्षेत्र को तहस—नहस करने के कुचक्र चले जहां उसे भारत का पलड़ा भारी दिखा।
अब नेपाल के आखिरकार चीनी कर्ज जाल में फंसने के बाद सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि नेपाल की क्या गति हो सकती है। चीन की कर्ज-जाल की कूटनीति में फंसे कई गरीब देशों की हालत जर्जर हो चली है। श्रीलंका का उदाहरण सबसे ताजा है। नेपाल के अर्थ विशेषज्ञ कह रहे हैं कि जो देश बीआरआई के रास्ते लिया कर्जा नहीं चुका पाते उनकी अर्थव्यवस्था फिर चीन के इशारे पर चलते हुए चरमरा जाती है। चीन के कर्ज में दबकर ही श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह 99 साल के लिए चीन की झोली में जा चुका है।
कहना न होगा कि चीन से साथ ओली का बीआरआई समझौता करना उस देश की भारत से दूरी बढ़ा देगा। वह खुद ऐसा कुछ न भी करे तो भी चीन उसे ऐसा करने को मजबूर कर सकता है। ओली तब कितने प्रीाावी हो पाएंगे, कहना मुश्किल है।
ओली सरकार की प्रमुख गठबंधन सहयोगी पार्टी नेपाली कांग्रेस तो ओली के इस कदम से खासी नाराज है। पार्टी का कहना है कि वह नहीं चाहती कि कोई भी परियोजना चीन के दिए कर्ज से चलाई जाए। चीन पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाने के लिए 216 मिलियन डॉलर का कर्ज नेपाल को दिए बैठा है। भारत ने नेपाल के उस कदम की तब भर्त्सना की थी, लेकिन काठूमांडू में बैठे नेता चीन मोह में फंसे बैठे रहे।
राजनीतिक पंडित तो इस नए डेवलपमेंट के बाद सरकार चला रहे गठबंधन में दरार का खतरा देखने लगे हैं। ओली के सामने भारत को इस कदम के बारे में समझाना भी एक चुनौती होगी। जानकार कहते हैं कि ओली के लिए आने वाले दिन भारी दिक्कतों से भरे हो सकते हैं। उन्हें घरेलू मोर्चे को संभालने के साथ ही भारत के सामने भी अपनी स्थिति साफ करनी पड़ सकती है। कुल मिलाकर, लगता नहीं कि ओली और उनकी टीम ने बीजिंग में जो किया वह नेपाल के लिए सुभीता होगा।
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