पाञ्चजन्य विशेष : डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर का आर्थिक दृष्टिकोण
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पाञ्चजन्य विशेष : डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर का आर्थिक दृष्टिकोण

डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर न केवल संविधान निर्माता थे, बल्कि एक दूरदर्शी अर्थशास्त्री भी थे। उनके आर्थिक सिद्धांत, भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना और कृषि क्षेत्र के सुधारों में योगदान आज भी प्रासंगिक हैं। जानें उनके आर्थिक दर्शन और भारत की प्रगति में उनकी भूमिका।

by WEB DESK
Dec 6, 2024, 06:00 am IST
in भारत
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आज भारत, पूरे विश्व में आर्थिक दृष्टि से एक सशक्त राष्ट्र बनकर उभर रहा है। वैश्विक स्तर पर कार्य कर रहे वित्तीय एवं निवेश संस्थान भारत की आर्थिक प्रगति की मुक्त कंठ से सराहना कर रहे हैं। भारत आज विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है और सकल घरेलू उत्पाद के मामले में विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तथा संभवत: आगामी दो वर्षों में ही जापान एवं जर्मनी की अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ते हुए विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर भारत आज अग्रसर है।

इसी प्रकार, भारत आज विश्व का तीसरा सबसे बड़ा शक्तिशाली देश भी बन चुका है एवं भारत का शेयर बाजार भी आज विश्व का तीसरा सबसे बड़ा पूंजी बाजार बन चुका है। भारत ने वर्ष 1947 में जब राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त की थी तब भारत की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय थी। परंतु, वर्ष 1991 के बाद भारत में आर्थिक एवं वित्तीय क्षेत्र में लागू किए सुधार कार्यक्रमों के बाद एवं विशेष रूप से वर्ष 2014 के बाद से भारत की आर्थिक विकास दर में लगातार सुधार हो रहा है एवं भारत आज उक्त स्थिति में पहुंच गया है।

डॉक्टर बाबा साहेब आम्बेडकर ने भी भारत द्वारा राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत के आर्थिक विकास का सपना देखा था एवं अर्थशास्त्र विषय पर उनकी अपनी अलग सोच थी। यह देश का दुर्भाग्य था कि भारत की राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उन्हें आर्थिक क्षेत्र में काम करने का मौका ही नहीं मिला। अन्यथा, आज भारत की आर्थिक स्थिति और अधिक मजबूत बन गई होती।

बाबा साहेब को हम केवल भारत के संविधान निर्माता के रूप में ही जानते हैं। परंतु, उन्होंने अपनी स्नातक एवं पीएचडी की पढ़ाई विश्व के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र विषय में ही की थी। अर्थशास्त्र उनका बचपन से ही पसंदीदा विषय रहा है। अर्थशास्त्र के विभिन्न विषयों पर उनके उल्लेखनीय शोध कार्य भी आज भी प्रासंगिक हैं। उक्त कारणों के चलते उनके सामाजिक कार्यों पर भी अर्थशास्त्र की छाप दिखाई देती थी। वे महिलाओं एवं दलितों को उद्यमी बनाने की बात करते थे तथा इस कार्य में तत्कालीन सरकार से इस संदर्भ में इन वर्गों की सहायता की अपील भी करते थे। उनका स्पष्ट मत था की आर्थिक उत्थान के बिना कोई भी सामाजिक एवं राजनैतिक भागीदारी संभव नहीं होगी।

डॉक्टर साहेब ने जिन विषयों पर अपने शोध कार्य किए थे उनमें प्रमुख रूप से शामिल हैं – भारतीय मुद्रा (रुपए) की बाजार मूल्य (विनिमय दर) की समस्या, महंगाई की समस्या, भारत का राष्ट्रीय लाभांश, ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास, प्राचीन भारतीय वाणिज्य, ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रशासन एवं वित्त, भूमिहीन मजदूरों की समस्या तथा भारतीय कृषि की समस्या। उक्त विषयों पर आपने केवल शोध कार्य ही सम्पन्न नहीं किया बल्कि इनसे सम्बंधित कई समस्याओं के व्यावहारिक एवं तार्किक हल भी सुझाए थे। अर्थशास्त्र के प्रतिष्ठित प्राध्यापक श्री अंबीराजन जी ने मद्रास विश्वविद्यालय में अपने अम्बेडकर स्मृति व्याख्यान में कहा था कि अम्बेडकर उन पहले भारतीयों में से एक थे, जिन्होंने अर्थशास्त्र में औपचारिक शिक्षा पाई और एक पेशेवर की तरह ज्ञान की इस शाखा का अध्ययन और उपयोग किया। भारतीय अर्थशास्त्र की परम्परा प्राचीन है। भारत में सदियों पहले ‘अर्थशास्त्र’, ‘शुक्रनीति’ और ‘तिरुक्कुरल’ जैसे ग्रंथ लिखे गए जबकि पश्चिम में अर्थशास्त्र का औपचारिक शिक्षण, 19वीं सदी के मध्य में प्रारम्भ हुआ। यह देश का दुर्भाग्य रहा कि तत्कालीन सरकारों ने डॉक्टर साहब की अर्थ के क्षेत्र में गहन समझ एवं अधय्यन का लाभ नहीं उठाया।

डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी ने उस खंडकाल में ही कई देशों में तेजी से पनप रहे पूंजीवाद के दोषों को पहिचान लिया था तथा पूंजीवाद का पुरजोर विरोध करते हुए उन्होंने भारत में राष्ट्रीयत्व को प्राथमिकता देने का आह्वान किया था। बाद में, पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने भारत को ‘एकात्म मानववाद’ का सिद्धांत दिया, इस सिद्धांत के आर्थिक पक्ष को उभारते हुए पंडित दीनदयाल जी कहते थे कि सत्ता में रहने वाले दल की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि समाज में पंक्ति में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक विभिन्न आर्थिक योजनाओं का लाभ पहुंचे, अन्यथा उस दल को सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है। बाद के खंडकाल में श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी जी ने भी अर्थ को राष्ट्रीयत्व से जोड़ा था तथा इस संदर्भ में भारतीय नागरिकों में “स्व” के भाव को विकसित करने पर जोर दिया था। इसी प्रकार, डॉक्टर आम्बेडकर के आर्थिक दर्शन में भी लगभग यही दृष्टि दिखाई देती हैं। डॉक्टर आम्बेडकर भी आर्थिक एवं सामाजिक असमानता पैदा करने वाले पूंजीवाद के एकदम खिलाफ थे।

वर्ष 1923 में डॉक्टर आम्बेडकर ने लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स से डीएससी (अर्थशास्त्र) की डिग्री प्राप्त की थी। डीएससी की थीसिस का विषय था “The Problem of the Rupee – Its Origin and its Solution” और, आपने उस समय पर रुपए के अवमूल्यन जैसी गम्भीर समस्या पर अपना शोध कार्य सम्पन्न किया था, जो उस खंडकाल में सबसे महत्वपूर्ण और व्यावहारिक विषय का शोध कहा जाता है। आपने वर्ष 1923 में ही वित्त आयोग की चर्चा करते हुए सुझाव दिया था कि वित्त आयोग का प्रतिवेदन प्रत्येक 5 वर्ष के अंतराल पर अवश्य आना चाहिए। साथ ही, लगभग इसी खंडकाल में आपने भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना का ब्लूप्रिंट तैयार करने में अपना योगदान दिया था। बाद में, भारतीय रिजर्व बैंक ने डॉक्टर साहेब के इस योगदान को स्वीकार करते हुए अपनी स्थापना के 81 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में डॉक्टर अम्बेडकर के नाम पर कुछ सिक्के जारी किए थे।

डॉक्टर साहेब कृषि क्षेत्र को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानते थे और कृषि क्षेत्र के विकास के हिमायती थे। परंतु साथ ही, आप बड़े आकार के उद्योग के खिलाफ भी नहीं थे। आपका स्पष्ट मत था कि औद्योगिक क्रांति पर जोर देने के साथ साथ कृषि क्षेत्र को नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता है। क्योंकि, देश की अधिकतम आबादी ग्रामों में निवास करती है एवं यह अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है और फिर उद्योग क्षेत्र के लिए कच्चा माल भी तो कृषि क्षेत्र ही प्रदान करता है। आधुनिक भारत की इमारत कृषि क्षेत्र के विकास पर ही खड़ी हो सकेगी। इन्हीं विचारों के दृष्टिगत आपने कृषि क्षेत्र के पुनर्गठन के लिए क्रांतिकारी उपाय सुझाए थे। जैसे, कृषि योग्य भूमि के राष्ट्रीयकरण की आप वकालत करते थे। आप राज्य को यह दायित्व सौपने की सोचते थे कि राज्य नागरिकों के आर्थिक जीवन को इस प्रकार योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ाए कि उससे नागरिकों की उत्पादकता का सर्वोच्चय बिंदु हासिल हो जाय, इससे इन नागरिकों की आय में वृद्धि होगी और उनका जीवन स्तर ऊपर उठाया जा सकेगा। साथ ही, निजी उद्योग को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए और देश की सम्पदा का समाज में वितरण करने के भी प्रयास किए जाने चाहिए। कृषि के क्षेत्र में राजकीय स्वामित्व का नियोजन भी होना चाहिए ताकि सामूहिक रूप से खेती को बढ़ावा दिया जा सके तथा इसी प्रकार उद्योग के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कृषि एवं उद्योग क्षेत्रों के लिए आवश्यक पूंजी की व्यवस्था राज्य द्वारा की जानी चाहिए।

“Small Holdings in India and their Remedies” नामक शोधग्रंथ डॉक्टर अम्बेडकर ने वर्ष 1918 में लिखा था। यह शोधग्रंथ, भारत में किसानों के सम्बंध में जमीनी यथार्थ की व्याख्या करने में उनके कौशल और आर्थिक समस्याओं के लिए व्यावहारिक नीतियों का सुझाव देने में इनकी प्रवीणता को दर्शाता है। उनकी इस शोधपत्र में की गई व्याख्या आज भी भारत में कृषि क्षेत्र के लिए प्रासंगिक है। आपका विचार था कि श्रम, पूंजी और संयत्र – तीनों भारत में कृषि उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। पूंजी वस्तु है और श्रमिक व्यक्ति। पूंजी का यदि कोई उपयोग न किया जाय तो उससे कोई आय नहीं होती परंतु उस पर कोई खर्च भी नहीं करना पड़ता। परंतु, श्रमिक, चाहे वह आय का अर्जन करे अथवा नहीं, उसे जीवित रहने के लिए स्वयं पर व्यय करना होता है। यदि वह यह खर्च उत्पादन से नहीं निकाल पाता, जैसा कि होना चाहिए, तो वह लूटपाट करने को मजबूर हो जाता है। इसी प्रकार भारत में छोटी जोतों की समस्या, दरअसल, उसकी सामाजिक अर्थव्यवस्था की समस्या है। अतः इस समस्या का स्थाई हल खोजना ही चाहिए।

डॉक्टर साहेब द्वारा देश के आर्थिक विकास के संदर्भ में उस खंडकाल में दिए गए समस्त सुझाव आज की परिस्थितियों के बीच भी अति महत्वपूर्ण एवं उपयुक्त माने जाते हैं। वर्तमान समय में हालांकि कई प्रकार की आर्थिक समस्याओं का हल निकालने में सफलता हासिल हुई है परंतु फिर भी डॉक्टर साहेब द्वारा उस खंडकाल में किए गए शोधकार्यों एवं सुझावों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। जैसे, बेरोजगारी, मुद्रास्फीति, गरीबी, आय की असमानता, भारतीय रुपए का अवमूल्यन आदि के उन्मूलन पर विचार डॉक्टर साहेब द्वारा आर्थिक विषयों पर किए गए शोधों में देखे जा सकते है। डॉक्टर साहेब ने अर्थशास्त्र के सिद्धांतों एवं अपने शोधों को भारतीय समाज के लिए व्यावहारिक स्तर पर लागू करने के सम्बंध में अपने सुझाव रखे थे। डॉक्टर साहेब भारतीय समाज व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर अर्थशास्त्र के सिद्धांतों को भारतीयता के अनुरूप लागू करना चाहते थे। यह उनकी सामाजिक आर्थिक संवेदना एवं सामाजिक एवं आर्थिक विषयों पर गहन वैचारिकी को प्रदर्शित करता है। डॉक्टर साहेब भारतीय आर्थिक व्यवस्था में भारतीय समाज में न्यायसंगत समानता, गरीबी का पूर्ण उन्मूलन, शून्य बेरोजगारी, नियंत्रित मुद्रा स्फीति, नागरिकों का आर्थिक शोषण नहीं होना एवं सामाजिक न्याय होना जैसी व्यवस्थाएं चाहते थे। यह व्यवस्थाएं पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानववाद’ के सिद्धांत के बहुत करीब हैं।

Topics: Indian Rupee Problemडॉ. अंबेडकर आर्थिक योगदानAmbedkar Economic Contributionपाञ्चजन्य विशेषभारत की आर्थिक प्रगतिडॉ. बाबा साहेब अंबेडकर अर्थशास्त्रीIndia Economic GrowthDr. B.R. Ambedkar Economistएकात्म मानववाद और अंबेडकरभारतीय रिजर्व बैंक स्थापनाIntegral Humanism and AmbedkarRBI Establishment by Ambedkarभारतीय कृषि नीतिIndian Agriculture Policy by Ambedkarभारतीय मुद्रा समस्या
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