गीतकार अपने गीतों को समाज को देकर अमर हो जाता है। कवि प्रदीप तो देश की नब्ज पकड़ने वाले गीतकार थे। उन्होंने खुद कहा था कि देश और उपदेश को पकड़े रखा। कवि प्रदीप ने हर मंच पर खुलकर बात की। अपने बारे में, फिल्मों के बारे में और फिल्मी दुनिया के बारे में भी।
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने यह भी बताया था कि वह अध्यापक होने वाले थे। कविता उनका मुख्य उद्देश्य नहीं था। अध्यापन के साथ-साथ साइड में कविता लिखते थे। गीतकार प्रदीप कहते हैं कि मुझे यह नहीं पता था कि यही कविता मेरे भाग्योदय का कारण बनेगी। मेरा कवि जीवन ज्यादा नहीं रहा, पांच-छह साल तक कविता की। इसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि 1938 में महाकवि निराला ने चार पन्ने का आर्टिकल माधुरी में लिखा। यह लेख निराला रचनावली में आज भी है।
फिल्मों से जुड़ने के सवाल पर कवि प्रदीप कहते हैं कि फिल्मों से अनायास जुड़ा। किसी का बच्चा बीमार था। उसने कहा कि बंबई जाना होगा, तुम भी चलो। इस तरह मैं बंबई आया। यहां एक कवि सम्मेलन में शामिल हुआ। सौभाग्य से वहां बॉम्बे टॉकीज में सर्विस करने वाला एक व्यक्ति भी मौजूद था। उसने बॉम्बे टॉकीज में अपने बॉस से यह बात बताई। हिमांशु राय ने उसे मुझे ढूंढ़ने के लिए कहा। वह आदमी मुझे हिमांशु के पास ले गया। मैंने उन्हें कविता सुनाई। वह उन्हें पसंद आई 200 रुपये की नौकरी पर मुझे रख लिया। उन्होंने पहली फिल्म कंगन दी। कंगन सिल्वर जुबली हुई। जागृति में देशभक्ति के तीन गाने लिखे।
इस तरह रातो-रात बदला गाना
1962 में चीन ने भारत पर हमला किया। उन्होंने हमें थप्पड़ मारा, अपने आप निर्णय कर लिया कि चलो वापस। देश में आवाज उठी कि कहीं देश हिम्मत न हार बैठे। सबका ध्यान या तो रेडियो पर जाता था या फिल्म पर। मुझसे गाने के लिए कहा गया। उन दिनों दो-तीन गाने फिक्स थे। नौशाद ने शकील बदायुनी से लिखवाया था, जो लीडर में आया – अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते सकते नहीं, यह गाना मोहम्मद रफी को रिजर्व हो गया।। मुकेश को राजकपूर ने रिजर्व कर लिया, हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है। हमारे पास लता जी आईं। हमने कहा कि लता मंगेशकर नाम की स्वर साम्राज्ञी कहती हैं कि भाइयो अभी चंद महीनों पहले अपने यहां एक लड़ाई हुई थी, जिसमें हमारे भाई कुछ अपने घरों से अपनी माताओं से, बहनों से, पत्नियों से तिलक लगवाकर गए थे, देश के लिए कुछ करने के लिए, लेकिन वे वापस नहीं लौटे। क्यों न हम-तुम मिलकर आज उन्हें याद करें। क्यों न हम उन्हें याद कर अश्रु के दो अंजलि प्रदान करें। यही गाने का बेस था। लेकिन हमने शुरू में दो लाइन लिखी
ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी
ये दो लाइन लिखने के बाद म्यूजिक डायरेक्टर दौड़ा-दौड़ा आया। उसने कहा कि अपनी तो पोल खुल गई। मैंने कहा कि क्या हुआ? दिल्ली से संदेश आया है कि हम स्मारिका निकाल रहे हैं। पहली दो लाइन लिखकर दे दीजिए। मैंने कहा कि शहीदों का टॉपिक ओपन हो गया। अब तो कोई भी राइटर शहीदों के बारे में लिख देगा। चौंकने का तत्व खत्म हो जाएगा। मैंने उसे सुबह आने को कहा। रात भर मुझे नींद नहीं आई। कार्यक्रम 1963 में लाल किला में होने वाला था। उसमें प्रधानमंत्री, मंत्री आदि सब थे। हमने उस गीतको बदल दिया। दूसरी तीसरी लाइन में ओपन किया। गीत बना –
ऐ मेरे वतन के लोगों
तुम खूब लगा लो नारा
ये शुभ दिन है हम सब का
लहरा लो तिरंगा प्यारा
पर मत भूलो सीमा पर
वीरों ने है प्राण गँवाए
कुछ याद उन्हें भी कर लो
जो लौट के घर न आये
ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी
अब पैसा परमात्मा हो गया है
फिल्मों के गीत के विषय के सवाल पर कवि प्रदीप कहते हैं कि हमने वह लिखा जो लोग लिखवाते थे। फिल्में ऐसी मिलती थी जिसमें देशभक्ति के गानों का स्कोप था तो हमने लिखा। आज कहानियां इस तरह से बनती हैं कि देश से कोई मतलब नहीं, इसलिए इस तरह के गीत नहीं लिखे जाते। अब पैसा परमात्मा हो गया। अब लोगों को खटिया, कबूतर, कौए के गाने चाहिए। सिनेमा के भविष्य पर वह कहते हैं कि भविष्य प्रलय वाला है। आज लोग भूल रहे हैं। बीएन सरकार, शांताराम, गुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश सभी को भूल रहे हैं। समय बहुत क्रूर है।
(90 के दशक में कवि प्रदीप से बीबीसी ने खास बातचीत की थी)
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