बिहार में साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए 18-20 अक्तूबर तक दरभंगा स्थित कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रांगण में चंद्रगुप्त साहित्य महोत्सव आयोजित हुआ। इसका उद्घाटन बिहार के राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर ने किया। उन्होंने कहा कि महोत्सव में उत्सव भी होता है और उत्साह भी। शायद इसीलिए इसे मेला भी कहते हैं।
जयपुर, सोलन आदि में आयोजित होने वाले साहित्य उत्सवों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उनमें कई बार भारत-विरोधी विचारधारा प्रस्तुत की जाती है, जो गलत है। उन्होंने राष्ट्रवाद व समाज-हित से जुड़े सभी विषयों को साहित्य में शामिल करने की आवश्यकता बताई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख नरेंद्र ठाकुर ने संवाद, समन्वय और निरंतरता पर बल देते हुए कहा कि भारत की परंपरा में विचार मंथन करना कोई नई बात नहीं है। ऐसे मंथन से कुछ अमृत निकले और वह अमृत समाजोपयोगी हो, ऐसी हमारी परंपरा रही है। पराधीनता के काल में सबसे ज्यादा साहित्य और इतिहास विकृत किया गया। मुस्लिम और अंग्रेज शासक हमें हमारी जड़ों से काटकर बौद्धिक गुलाम बनाना चाहते थे।
भारत की समृद्ध संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए विदेशी मानसिकता से बाहर आना होगा। इसलिए आज के समय में साहित्यकारों का दायित्व और भी बढ़ जाता है। साहित्य अकादमी की उपाध्यक्ष डॉ. कुमुद शर्मा ने बताया कि भारत विरोध के लिए बौद्धिक गुलामों द्वारा हमारे सांस्कृतिक मानकों को चुनौती दी जा रही है। डॉ. राममनोहर लोहिया कहते थे कि हमें कृष्ण का हृदय दो, राम की मर्यादा दो और शिव का मस्तक दो, जबकि आज बौद्धिक गुलाम राम के नाम पर बिदकते हैं। उद्घाटन कार्यक्रम को आयोजन समिति के स्वागताध्यक्ष युवराज कपिलेश्वर सिंह तथा चंद्रगुप्त साहित्य महोत्सव के संयोजक प्रो. राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने भी संबोधित किया।
महोत्सव में कई विषयों पर समानांतर सत्र हुए, जिनमें देश के गणमान्य विद्वानों ने हिस्सा लिया। इनमें साहित्य के साथ ही सम-सामयिक विषयों पर भी चर्चा हुई। समापन कार्यक्रम में बिहार विधानसभा के अध्यक्ष नंदकिशोर यादव ने कहा कि चंद्रगुप्त की नीतियां और मिथिला के विचार एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। दरभंगा महाराज ने इस परंपरा को बखूबी निभाया है। विशिष्ट अतिथि राधाकृष्ण पिल्लई ने कहा कि चंद्रगुप्त साहित्य महोत्सव लोगों को मौर्य काल का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करेगा। मौर्य काल की संस्कृति और सभ्यता अब लुप्त हो रही है। इसे फिर से व्यापक स्तर पर फैलाने की जरूरत है। इसमें मैथिली भाषा सहायक हो सकती है।
प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय कार्यकारिणी मंडल के सदस्य रामाशीष सिंह ने कार्यक्रम की भूरी-भूरी प्रशंसा की। समापन समारोह की अध्यक्षता कर रहे कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. लक्ष्मी निवास पांडेय ने कहा कि साहित्य समारोह की सफलता का आकलन इस बात से किया जाएगा कि कितने युवा अपने पूर्वजों की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए आगे आते हैं। जब तक युवा और बच्चे अपनी विरासत को भुलाकर चलेंगे अपनी जड़ को ही कमजोर करेंगे। इसलिए अब समय आ गया है कि अपनी विरासत की ओर लौटने के लिए साहित्य को पढ़ें और अपने सही इतिहास को जानें।
समापन कार्यक्रम में इस वर्ष का चंद्रगुप्त साहित्य शिखर सम्मान हिंदी एवं मैथिलि के प्रख्यात लेखक जनार्दन प्रसाद यादव को प्रदान किया गया। इस अवसर पर विभिन्न स्तर में आयोजित प्रदेश स्तर के तीन विजेता प्रतिभागियों को पुरस्कृत भी किया गया। महोत्सव में अनेक प्रकाशकों ने अपने स्टॉल भी लगाए। परिसर में मिथिला की सुदीर्घ परंपरा को प्रदर्शित करते हुए एक चित्र प्रदर्शनी भी लगाई गई। तीन दिन के आयोजन में प्रतिदिन शाम को सांस्कृतिक संध्या भी हुई।
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