देवभूमि राज्य बनने के बाद बाहरी राज्यों से आए लोगों ने नदी-नालों पर अतिक्रमण कर सरकारी भूमि पर कब्जा कर लिया है। अब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की तजवार सरकार पर लटकी हुई है। जानकारी के मुताबिक सरकारी भूमि पर इन अवैध अतिक्रमणों ने मलिन बस्ती का रूप ले लिया है और वोट बैंक की राजनीति ने नदी नालों के फ्लड जोन को बाधित किया हुआ है। जानकारी ये भी कहती है कि इसी फ्लड जोन में हुए अतिक्रमण की एक बड़ी वजह डेमोग्राफी चेंज से जुड़ी हुई है।
राजधानी देहरादून और जिले की बात करें तो राज्य गठन के समय जिले में 75 मलिन बस्तियां थीं, जिनकी आबादी नाममात्र थी, लेकिन 2002 में इनकी संख्या बढ़कर 102 और 2008 में 129 हो गई। 2016 में यह संख्या 150 तक पहुंच गई और अब यह संख्या 200 के करीब पहुंच गई है। देहरादून से होकर बहने वाली मौसमी नदियों रिस्पना और बिंदाल के दोनों ओर कई किलोमीटर तक नदी श्रेणी बाढ़ क्षेत्र की सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे हैं।
2016 में कांग्रेस सरकार ने इन बस्तियों को नियमित करने की घोषणा कर दी। कांग्रेस के विधायको ने यहां बाहर से आए खास समुदाय के लोगों को बसाने और अपना वोट बैंक मजबूत करने की नियत से ये की घोषणा की। उत्तराखंड की राजनीति में पिछले विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो ऐसा तीन बार हुआ है जब भाजपा और कांग्रेस के वोट प्रतिशत में कोई खास अंतर नहीं रहा, दोनों राजनीतिक दल सरकार बनाने के लिए 35 सीटों के बहुमत के आसपास पहुंच जाते थे। ऐसे में कांग्रेस ने तुष्टिकरण की राजनीति के तहत बाहर से आने वाले मुसलमानों को बसाने और उनकी बस्तियों को नियमित करने के लिए यह चाल चली। इस घोषणा के पूरा होने से पहले ही राज्य में भाजपा की त्रिवेंद्र रावत सरकार ने सत्ता संभाल ली और इन कॉलोनियों के नियमितीकरण पर रोक लगा दी। तब से यह रोक लगी हुई है, लेकिन मलिन बस्तियों के विस्तार का सिलसिला अभी भी जारी है।
पूरे राज्य की यदि बात करें तो 582 मलिन बस्तियां 2016 में सर्वे में आई थी जिनमे नगरीय क्षेत्र की 270 बस्तियां नियमित पहले से थी। अब मलिन बस्तियों की संख्या बढ़ कर अब 700 के आसपास बताई जा रही है।राज्य की खनन नदियों और नालों के किनारे सरकारी जमीन पर कब्जा कर बाहरी लोग बस गए हैं। इनमें से अधिकतर लोग बिजनौर, पीलीभीत, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, यहां तक कि असम, बिहार, झारखंड आदि से हैं। यहां तक कहा गया है कि इनमें रोहिंग्या और बांग्लादेशी भी शामिल हैं।
2016 में अवैध रूप से 771585 की आबादी ने 153174 मकान सरकारी भूमि पर बनाए हुए है जिनमे से 37% नदी नालों के किनारे, 10% ने केंद्र सरकार की भूमि पर, 44 % ने राज्य सरकार की राजस्व,वन, सिंचाई आदि भूमि पर अवैध रूप से बसावाट की हुई थी। अब आठ साल बाद इनकी संख्या 10 लाख के आसपास पहुंच गई बताई गई है।
एक अनुमान के मुताबिक सरकारी भूमि पर कब्जे कर 57% लोगो ने पक्के,29% ने अद्धपक्के और 16 % की झोपड़ियां है जोकि धीरे धीरे अद्धपक्के मकानों में तब्दील हो रही है। नदी श्रेणी फ्लड जोन के भूमि पर अतिक्रमण को लेकर एनजीटी ने राज्य सरकार को बार-बार आदेशित किया और जुर्माना भी लगाया है कि उक्त भूमि खाली करवाए ताकि नदियों के प्राकृतिक बहाव में कोई दिक्कत नही आए अन्यथा एक दिन बड़ा नुकसान हो जायेगा। देहरादून की बिंदाल, रिस्पना, नैनीताल जिले की गौला और कोसी नदियों, हरिद्वार में गंगा, उधम सिंह नगर में गौला,किच्छा आदि नदियों के बारे में एनजीटी के स्पष्ट निर्देश है कि यहां से अतिक्रमण हटाया जाए। किंतु शासन प्रशासन ,राजनीतिक दबाव के चलते खामोश हो रहा है।
कांग्रेस दोनो दलों के नेताओ ने एनजीटी की कारवाई पर अवरोध खड़े किए हुए है, कुछ समय पहले रिस्पना रिवर फ्रंट योजना भी बनाई गई जो कि अब ठंडे बस्ते में है, प्रशासन भी एनजीटी को दिखाने के लिए कुछ अतिक्रमण हटा देता है और फिर चुप्पी साध लेता है।बरहाल ये मलिन बस्तियां बाहर से आए लोगो के अवैध कब्जो की वजह से भविष्य में परेशानी का सबब बनने जा रही है, सत्ता विपक्ष की राजनीति से इन्हे संरक्षण मिल रहा है।
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