नख-शिख सोलह श्रृंगार से अलंकृत भारतीय सुहागिनों द्वारा निर्जल उपवास की तप ऊर्जा को अंतस में संचित कर कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष के चौथ (चतुर्थी तिथि) के चंद्रमा को अर्ध्य देकर पति के मंगलकामना जैसी सुंदर परम्परा दुनिया की किसी भी अन्य धर्म-संस्कृति में नहीं मिलती। यह पुनीत पर्व युगों युगों से भारतीय स्त्रियों के पतिव्रत धर्म की यशोगाथा को समूची दुनिया में फैला रहा है। भले ही हमारा समाज कितना भी अत्याधुनिक क्यों न होता जा रहा हो; लेकिन हिंदू सुहागिनों की आस्था की अपनी अनमोल पर्व परम्पराओं के प्रति जरा भी कम नहीं दिखती। करवाचौथ हिंदू सुहागिनों का सर्वाधिक प्रिय पर्व है जिसका इंतजार वे पूरे साल बेसब्री से करती हैं।
दरअसल हमारी सनातन हिन्दू संस्कृति में पति-पत्नी का सम्बन्ध मात्र एक जीवन का नहीं अपितु जन्म-जन्मान्तरों का माना जाता है; और करवाचौथ, हरतालिका तीज व वट सावित्री जैसे सुहाग पर्व हमारी इसी पुरातन आस्था को पोषित व प्राणवान कर पति-पत्नी के जन्म-जन्मांतर के संबंध को सुदृढ़, प्रगाढ़ और प्रेमपूर्ण बनाते हैं। हमारे बडे़ बुर्जुगों द्वारा दिया जाने वाला “सदा सुहागिन” का आशीर्वाद भी इन पर्वों में प्रतिबिंबित होता प्रतीत होता है।
इस सुहाग पर्व से जुड़े पौराणिक कथानक के अनुसार करवाचौथ के पर्व की परंपरा आदिकाल में देव-दानव युद्ध के दौरान शुरू हुई थी। इस कथा के मुताबिक उस युद्ध में जब देवताओं की हार होने लगी तो भयभीत देवताओं ने ब्रह्मदेव के पास जाकर उनसे रक्षा की प्रार्थना की। तब ब्रह्मदेव ने कहा यदि उन सबकी पत्नियां निर्जल उपवास कर अपने पतियों के मंगल की कामना करें व चंद्रदेव को जल देकर अपने व्रत का पारण करें तो इस संकट से मुक्ति मिल करती है। ब्रह्मदेव को इस सुझाव को स्वीकार कर सभी देव पत्नियों ने कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को यथाविधि निर्जल उपवास किया। ईश्वर से उनकी प्रार्थना स्वीकार की और युद्ध में देवताओं की विजय हुई। तभी से करवाचौथ व्रत की परंपरा शुरू हो गयी। इसी प्रकार द्रौपदी के करवाचौथ व्रत करने की पौराणिक कथा भी प्रचलित है।
करवाचौथ की से जुड़ी राजपूताने की एक लोककथा भी खासी चर्चित है। इस कहानी के अनुसार सात भाइयों की एक बहन थी। वह शादी के बाद पहली बार मायके आकर उसने अपनी भाभियों के साथ करवाचौथ व्रत रखा लेकिन सूर्यास्त होते ही वह भूख से व्याकुल हो उठी। यह देख उसके भाइयों ने कृत्रिम चंद्रमा का निर्माण कर बहन से अर्घ्य दिलाकर व्रत खुला दिया। किंतु ज्यों ही उसने पहला कौर मुंह में रखा; उसे अपने पति की मृत्यु की सूचना मिल गयी यह सुनते ही वह बेसुध होकर गिर पड़ी। होश आने पर उसे अपनी भूल का बोध हुआ और उसने चौथमाता से सच्चे मन से क्षमा मांगी और पुनः पूरे नियम से व्रत का अनुष्ठान पूरा किया। उसके तप बल की शक्ति से उसका पति चमत्कारिक रूप से पुनः जीवित हो उसके पास आ गया। कहा जाता है कि तभी से सुहागिनों में यह व्रत लोकप्रिय हो गया। जानना दिलचस्प हो कि करवाचौथ पर पूजी जाने वाली चौथ माता का सबसे पुराना मंदिर राजस्थान के सवाई माधौपुर के बरवाड़ा गांव में स्थित है।
काबिलेगौर हो कि हिन्दूधर्म की पौराणिक कथाओं में भारतीय स्त्रियां निरुपाय अथवा असहाय नहीं, बल्कि सशक्त भूमिका में नजर आती हैं। जिस देश में सावित्री जैसे उदाहरण मौजूद हैं, जिसने अपने पति सत्यवान को अपने सशक्त मनोबल से यमराज तक से छीन लिया था, वहां की स्त्रियां साहसी हों भी क्यों न हों? करवाचौथ पर विवाहित महिलाओं द्वारा प्रमुख रूप से शिव-पार्वती के साथ गणेश और कार्तिकेय के पूजन की पुरातन परम्परा है। इस सुहाग पर्व पर प्रत्येक सुहागिन यह प्रार्थना करती है कि उन्हें भी माता पार्वती जैसा एकनिष्ठ सुहाग का अनुदान वरदान मिले, उनकी संतति गणेश व कार्तिकेय की तरह विवेकी व अप्रतिम साहसी बने। उन्हें माता पार्वती जैसी शक्ति और साधना हासिल हो सके ताकि वे भी अपने पति के प्रत्येक सुख दुख में उनके कंधे से कंधा मिलाकर अर्धांगिनी का कर्तव्य पूरा कर सकें। चंद्रमा को अर्ध्य देने के पीछे मूल भाव यह है कि उनके वैवाहिक जीवन में चंद्रमा सी शीतलता सदैव बनी रहे। इन्हीं पावन भावों के साथ खासतौर से उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश व बिहार में कार्तिक मास की चतुर्थी को चंद्रोदय तिथि में मनाया जाने वाला यह सुहाग पर्व सदियों से सुहागिन स्त्रियों को ऊर्जान्वित करता आ रहा है।
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