राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने विजयादशमी के पावन अवसर पर 1925 में की थी । आज देश भर में संघ की 40 हजार से अधिक दैनिक शाखाएं हैं। समाज के हर क्षेत्र में संघ की प्रेरणा से विभिन्न संगठन चल रहे हैं जो राष्ट्र निर्माण तथा हिंदू समाज को संगठित करने में अपना योगदान दे रहे हैं। संघ के विरोधियों ने तीन बार इस पर प्रतिबंध लगाया—1948,1975 व 1992 में। लेकिन तीनों बार संघ पहले से भी अधिक मजबूत होकर उभरा। संघ एक सामाजिक—सांस्कृतिक
संगठन है।
दृष्टि और दर्शन
प्राचीन काल से चलते आए अपने राष्ट्रजीवन पर यदि हम एक विहंगम दृष्टि डालें तो हमें यह बोध होगा कि अपने समाज के धर्मप्रधान जीवन के कुछ संस्कार अनेक प्रकार की आपत्तियों के उपरांत भी अभी तक दिखाई देते हैं। यहाँ धर्म-परिपालन करने वाले, प्रत्यक्ष अपने जीवन में उसका आचरण करने वाले तपस्वी, त्यागी एवं ज्ञानी व्यक्ति एक अखंड परंपरा के रूप में उत्पन्न होते आए हैं। उन्हीं के कारण अपने राष्ट्र की वास्तविक रक्षा हुई है और उन्हीं की प्रेरणा से राज्य-निर्माता भी उत्पन्न हुए हैं।
उस परंपरा को युगानुकूल बनाएँ
अत: हम लोगों को समझना चाहिए कि लौकिक दृष्टि से समाज को समर्थ बनाने में तभी सफल हो सकेंगे, जब उस प्राचीन परंपरा को हम लोग युगानुकूल बना, फिर से पुनरुज्जीवित कर पाएँगे। युगानुकूल कहने का यह कारण है कि प्रत्येक युग में वह परंपरा उचित रूप धारण करके खड़ी हुई है। कभी केवल गिरि-कंदराओं में, अरण्यों में रहनेवाले तपस्वी हुए तो कभी योगी निकले, कभी यज्ञ-यागादि के द्वारा और कभी भगवद्-भजन करने वाले भक्तों और संतों के द्वारा यह परंपरा अपने यहाँ चली है।
युगानुकूल सद्य: स्वरूप
आज के इस युग में जिस परिस्थिति में हम रहते हैं, ऐसे एक-एक, दो-दो,इधर-उधर बिखरे, पुनीत जीवन का आदर्श रखनेवाले उत्पन्न होकर उनके द्वारा धर्म का ज्ञान, धर्म की प्रेरणा वितरित होने मात्र से काम नहीं होगा। आज के युग में तो राष्ट्र की रक्षा और पुन:स्थापना करने के लिए यह आवश्यक है कि धर्म के सभी प्रकार के सिद्धांतों को अंत:करण में सुव्यवस्थित ढंग से ग्रहण करते हुए अपना ऐहिक जीवन पुनीत बनाकर चलनेवाले, और समाज को अपनी छत्र-छाया में लेकर चलने की क्षमता रखनेवाले असंख्य लोगों का सुव्यवस्थित और सुदृढ़ जीवन एक सच्चरित्र, पुनीत, धर्मश्रद्धा से परिपूरित शक्ति के रूप में प्रकट हो और वह शक्ति समाज में सर्वव्यापी बनकर खड़ी हो। यह आज के युग की आवश्यकता है।
कौन पूर्ण करेंगे
इस आवश्यकता को पूरा करने वाला जो स्वयंस्फूर्त व्यक्ति होता है वही स्वयंसेवक होता है और ऐसे स्वयंसेवकों की संगठित शक्ति ही इस आवश्यकता को पूर्ण करेगी ऐसा संघ का विश्वास है। डॉक्टरजी ने 12-14 वर्ष आयु के किशोरों को साथ लेकर संघर्ष शुरु किया किन्तु उस समय उसका नाम भी उन्होंने निश्चित नहीं किया था। संगठन का नाम क्या रखा जाए, इस संबंध में उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ विचार-विनिमय किया। किसी ने ‘शिवाजी संघ’ नाम सुझाया तो किसी ने ‘जरीपटका मंडल’ और किसी ने ‘हिन्दू स्वंयसेवक संघ’ नाम सुझाया किन्तु अन्त में नाम निश्चित हुआ- “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ”। यह नाम डाक्टरजी के मन में अवश्य रहा होगा किन्तु इसके निर्धारण में सभी को चर्चा-विचार विनिमय का अवसर उपलब्ध कराया गया, और इस तरह व्यापक विमर्श और सहमति से यह नाम सुनिश्चित किया गया।
प्रार्थना के सम्बंध में भी यही बात हुई। आज पूरे भारत में संघ की जो प्रार्थना है वह संघ की स्थापना के 15 वर्षों बाद तैयार की गई। प्रथम 15 वर्षों तक एक श्लोक मराठी में और एक श्लोक हिंदी में ऐसे दो श्लोक मिलाकर प्रार्थना की जाती थी। पंजाब, बंगाल, मद्रास, महाकोशल, उत्तर प्रदेश जैसे गैर- मराठी प्रदेशों में संघ का कार्य 1937 से ही प्रारंभ हो चुका था और वहां के स्वयंसेवक भी यही मराठी-हिंदी प्रार्थना ही कहते थे। उस प्रार्थना को हिंदी श्लोक में एक पंक्ति मूलतया इस प्रकार की थी, ‘शीघ्र सारे दुर्गुणों से मुक्त हमको कीजिए’- इसमें जो नकारात्मक, निराशा का भाव है, वह डॉक्टरजी को पसंद नहीं आया। अतः उन्होंने उस पंक्ति को बदलकर उसे स्थान पर शीघ्र सारे सद्गुणों को पूर्ण हिंदू कीजिए’ यह पंक्ति स्वीकार की। दुर्गुणों के अभाव का अर्थ सद्गुणों का सदभाव तो नहीं होता। इससे यही स्पष्ट होता है कि डॉक्टरजी का मौलिक चिन्तन कितना सूक्ष्म और मूलग्राही होता था।
संघ द्वारा स्वीकृत उत्सवों के सम्बन्ध में भी इसी मौलिक चिंतन का साक्षात्कार होता है। संघ ने किसी भी व्यक्ति को अपना गुरु नहीं माना है। वस्तुतः हिंदू समाज में यह ‘गुरु परंपरा’ हजारों वर्षों से चली आ रही है। डॉक्टरजी भी उसी परंपरा का अनुकरण कर स्वयं गुरु स्थान पर आरुढ़ होते तो इसके लिए न तो उन दिनों और न आज भी कोई उन्हें दोष देता। अपने नाम की जयजयकार सुनकर भला किसका मन प्रफल्लित नहीं होता? किंतु डॉक्टरजी ‘अलोक सामान्य’ पुरुष थे। उन्होंने कहा, संघ में कोई भी व्यक्ति गुरु नहीं रहेगा- परम पवित्र भगवा ध्वज ही हमारा गुरु है।
संघ की कार्यपध्दति की अनेक विशेषताएं हैं। दैनंदिन शाखा तो संघ का मानों प्राणभूत तत्व है। इन शाखाओं के कार्यक्रमों, में परिवर्तन होते गए, आदेशों की भाषा भी बदली किंतु मूल तत्व बना रहा। अनेक लोगों ने संघशाखा की नकल करने का प्रयास किया किन्तु वे असफल रहे, वह संभव भी नहीं है। जब तक डॉक्टर हेडगेवार जैसा संघ की शाखाओं के लिए अपने वैयक्तिक जीवन की आहुति चढ़ानेवाला, जब तक सारे प्रलोभनों, मोह आदि का यहां तक कि स्वयं की कीर्ति का लोभ भी छोड़कर स्वयं को शाखा के साथ एकरूप करनेवाला कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा। तब तक संघ जैसी शाखा निकालना किसी के लिए संभव नहीं।
“सर्वारम्भाः तण्डुल प्रस्थमूलाः” अर्थात कोई भी कार्य करना हो तो थोड़ा बहुत धन आवश्यक है, ऐसी हमारे यहां की प्रथा है। इस मामले में भी संघ की स्थिति अलग रही है। कागज, पेंसिल, प्रस्ताव रजिस्टर आदि के बिना ही संघ का कार्य प्रारंभ हुआ। किन्तु किसी भी कार्य के लिए धन तो आवश्यक है। प्रारंभ में चंदा एकत्रित कर यह खर्च वहन किया जाता। किंतु आगे चलकर कार्यकर्ताओं ने ही स्वयं विचार किया कि “यदि इसे अपना ही कार्य मानते हैं तो फिर संघ कार्य पर होनेवाले खर्च का भार हम स्वयं ही क्यों न वहन करें? अपने घर में यदि कोई कार्य हो, तो जैसा भी संभव हो, उसका खर्च स्वयं वहन करते हैं। कोई अपनी कन्या के विवाह हेतु चंदा एकत्र नहीं करता।” अतः सबने मिलकर तय किया कि हम सभी संघ के लिए पैसा देंगे। फिर, प्रश्न उठा कि हम जो पैसा देंगे उसके पीछे हमारी दृष्टि और मानसिकता क्या रहेगी? डाक्टरजी ने कहा, हमें कृतज्ञता और निरपेक्षबुध्दि से यह देना चाहिए। इस प्रकार संघ में गुरुदक्षिणा की पध्दति प्रारंभ हुई। पहले वर्ष नागपुर शाखा की गुरुदक्षिणा केवल 84 रु. हुई।
जो बात धन के सम्बन्ध में है, वही कार्यकर्ताओं के सम्बन्ध में भी है। कार्य-विस्तार हेतु कार्यकर्ता तो चाहिए किन्तु वे कहां से मिलेंगे? हमीं में से तैयार करने होंगे। सारे भारत में कार्य खड़ा करना है, यह कौन करेगा? आखिर,स्वयंसेवकों को ही यह करना पड़ेगा। तब कुछ स्वयंसेवक शिक्षा ग्रहण करने के निमित्ता अन्य प्रांतों में गये। इसका खर्च वहन करने की क्षमता उनमें थी। इन स्वयंसेवकों ने वहां शिक्षा ग्रहण करने के साथ ही संघ की शाखाएं भी खोलीं-बड़े बड़े कार्यकर्ता भी तैयार किए। आगे चलकर यही विद्यार्थी वहां पूर्णकालिक संघ कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य करने लगे। नागपुर से अन्य स्वयंसेवक भी संघ कार्य हेतु विभिन्न प्रांतों में गए। उनके पास ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में पड़ोस के किसी गांव में शाखा चलाने मात्र का अनुभव था। केवल इसके बल पर ही वे अपरिचित भाषा वाले प्रांत में गये और वहां उन्होंने संघ की शाखाएं स्थापित कीं। इस तरह प्रचारक वर्ग तैयार हुआ। कार्य की सफलता के लिए कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की आवश्यकता महसूस हुई और इस दृष्टि से संघ शिक्षा वर्ग की शृंखला चल पड़ी।
संघ की कार्यपध्दति की अनेक विशेषताएं हैं- शीत कालीन शिविर हैं, नियमित रूप से आयोजित होने वाली बैठकें हैं, नियमित होने वाले बौध्दिक वर्ग हैं, संघ गीत हैं, वर्षभर में मनाए जाने वाले छह उत्सव हैं और इन उत्सवों के लिए अध्यक्षों का चयन है तथा उनकेनिवास की व्यवस्था है, कार्यक्रमों की योजना है, स्वदेशी का अभिमान है, समाचार पत्रों में प्रसिध्दी सम्बन्धी एक विशेष दृष्टिकोण है।
सामान्यत: पूछे जाने वाले प्रश्न
संघ का पूरा नाम क्या है ? संस्थापक कौन है ? संघ की स्थापना कहाँ और कब हुई?
संघ का पूरा नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। संघ के संस्थापक है डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार। डॉ. जी स्वातंत्र्य सेनानी थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्र सेवा में ही समर्पित किया था। उन्होंने नागपुर में, 1925 में संघ प्रारंभ किया।
संघ का सदस्य कौन बन सकता है ?
कोई भी हिंदू पुरूष संघ का सदस्य बन सकता है।
संघ केवल हिन्दुओं के संगठन की ही बात क्यों करता है? क्या वह एक धार्मिक संगठन है?
संघ में हिन्दू शब्द का प्रयोग उपासना,पंथ,मजहब या रिलिजन के नाते नहीं होता है. इसलिए संघ एक धार्मिक या रिलिजियस संगठन नहीं है. हिन्दू की एक जीवन दृष्टि है,एक View of Life है और एक way of life है. इस अर्थ में संघ में हिंदूका प्रयोग होता है. सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि Hinduism is not a religion but a way of Life. उदाहरणार्थ सत्य एक है. उसे बुलाने के नाम अनेक हो सकते हैं. उसे पाने के मार्ग भी अनेक हो सकते हैं. वे सभी समान है यह मानना यह भारत की जीवन दृष्टि है. यह हिन्दू जीवन दृष्टि है. एक ही चैतन्य अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है. इसलिए सभी में एक ही चैतन्य विद्यमान है इसलिए विविधता में एकता (Unity in Diversity )यह भारत की जीवन दृष्टि है. यह हिन्दू जीवन दृष्टि है. इस जीवन दृष्टि को मानने वाला,भारत के इतिहास को अपना मानने वाला,यहाँ जो जीवन मूल्य विकसित हुए हैं,उन जीवन मूल्यों को अपने आचरण से समाज में प्रतिष्ठित करनेवाला और इन जीवन मूल्यों की रक्षा हेतु त्याग और बलिदान करनेवाले को अपना आदर्श मानने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है,फिर उसका मजहब या उपासना पंथ चाहे जो हो.
क्या संघ में मुस्लिम और ईसाई को भी प्रवेश मिल सकता है?
भारत में रहने वाला ईसाई या मुस्लिम भारत के बाहर से नहीं आया है. वे सब यहीं के हैं. हमारे सबके पुरखे एक ही है. किसी कारण से मजहब बदलने से जीवन दृष्टि नहीं बदलती है. इसलिए उन सभी की जीवन दृष्टि भारत की यानि हिन्दू ही है. हिन्दू इस नाते वे संघ में आ सकते हैं, आ रहे हैं और जिम्मेदारी लेकर काम भी कर रहे हैं. उनके साथ मजहब के आधार पर कोई भेदभाव या कोई स्पेशल ट्रीटमेंट उनको नहीं मिलती है. सभी के साथ हिन्दू इस नाते वे सभी कार्यक्रमों में सहभागी होते हैं.
संघ की सदस्यता की प्रक्रिया क्या है ?
संघ सदस्यता की कोई औपचारिक प्रक्रिया नहीं है। कोई भी व्यक्ति नजदीक की संघ शाखा में जाकर संघ में सम्मिलित हो सकता है। संघ सदस्य को स्वयंसेवक कहते है। उसके लिए कोई भी शुल्क या पंजीकरण प्रक्रिया नहीं है।
संघ के कार्यक्रमों में गणवेष क्यों होता है ? क्या यह स्वयंसेवक बनने के लिए अनिवार्य है ? उसको कैसे प्राप्त किया जाता है ?
संघ में शारीरिक कार्यक्रमों के द्वारा एकता का, सामूहिकता का संस्कार किया जाता है। इस हेतू गणवेष उपयुक्त होता है।परन्तु गणवेष विशेष कार्यक्रमों में ही पहना जाता है। नित्य शाखा के लिए वह अनिवार्य नहीं है। गणवेष कीउपयुक्तता ध्यान में आने पर हर स्वयंसेवक अपने खर्चे से गणवेष की पूर्ति करता है।
संघ का शाखा में निक्कर पहनने पर आग्रह क्यों है?
यह आग्रह का नहीं परन्तु सुविधा का विषय है। शाखा में प्रतिदिन शारीरिक कार्यक्रम होते हैं।उसके लिए निक्कर यह सुविधाजनक तथा सबके लिए संभव ऐसा वेष है।
शाखा क्या है?
किसी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र के स्वयंसेवकों के एक घण्टे के प्रतिदिन मिलन को शाखा कहते है।
एक घण्टे की शाखा में प्रतिदिन क्या कार्यक्रम होते हैं ?
प्रतिदिन की एक घण्टे की शाखा में विविध शारीरिक व्यायाम, खेल, देशभक्ति गीत, विविध राष्ट्र हित के विषयों पर चर्चा तथा भाषण और मातृभूमि की प्रार्थना होती है।
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