18 सितंबर, 2024 को कर्नाटक उच्च न्यायालय, बेंगलुरु में माननीय न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना के समक्ष एक महत्वपूर्ण आपराधिक याचिका दायर की गई। यह याचिका सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर की गई थी, जिसमें एफआईआर संख्या 316/2023 को रद्द करने की मांग की गई थी। इस एफआईआर को भारतीय दंड संहिता की धारा 34, 447, 448, और 295ए के तहत पंजीकृत किया गया था। याचिकाकर्ता, जो कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष हैं, का तर्क है कि यह एफआईआर उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान दायर की गई थी।
याचिकाकर्ता ने 19 नवंबर, 2023 को बेंगलुरु के “दारुल उलूम सैयदिया यतीमखाना” नामक अनाथालय का निरीक्षण किया था। यह अनाथालय कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए एक अपंजीकृत संस्थान था, जिसमें लगभग 200 बच्चे रह रहे थे। निरीक्षण के दौरान कई अनियमितताएं पाई गईं, जैसे कि बुनियादी ढांचे की कमी, बच्चों को स्कूल नहीं भेजना और मनोरंजक सुविधाओं का अभाव। याचिकाकर्ता ने इन समस्याओं के बारे में कर्नाटक सरकार के मुख्य सचिव और अन्य संबंधित अधिकारियों को सूचित किया था।
एफआईआर और कानूनी विवाद
याचिकाकर्ता के इस निरीक्षण के बाद उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 34, 447, 448, और 295ए के तहत मामला दर्ज किया गया, जिसमें उन पर अनधिकृत प्रवेश और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का आरोप लगाया गया। याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि उनके कृत्य आपराधिक अतिचार की श्रेणी में नहीं आते, क्योंकि वे अपने आधिकारिक कर्तव्यों का पालन कर रहे थे और यह कार्रवाई कानून के तहत वैध थी। वहीं, प्रतिवादी पक्ष के वकील ने तर्क किया कि याचिकाकर्ता के ट्वीट में धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का संदर्भ है, जो धारा 295ए के तहत अपराध बनता है।
अदालत का निर्णय
अदालत ने दोनों पक्षों के तर्कों को सुना और यह माना कि याचिकाकर्ता अपने आधिकारिक कर्तव्यों का पालन कर रहे थे। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया है। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एफआईआर को रद्द करते हुए कहा कि सार्वजनिक सेवक को अपने कार्य स्वतंत्रतापूर्वक करने की अनुमति दी जानी चाहिए, और उनके काम में बाधा नहीं डाली जानी चाहिए।
इसके अलावा, अदालत ने कहा कि वे दारुल उलूम सैयदिया यतीमखाना के प्रबंधक के खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं, लेकिन फिलहाल उन्हें ऐसे ही छोड़ने का निर्णय लिया। इस निर्णय ने स्पष्ट किया है कि सार्वजनिक सेवकों को उनके कार्यों के लिए सुरक्षा दी जानी चाहिए, ताकि वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन स्वतंत्रता के साथ कर सकें।
यह निर्णय न केवल याचिकाकर्ता के लिए बल्कि सभी सार्वजनिक सेवकों के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ प्रस्तुत करता है, जिसमें उनकी कार्यप्रणाली की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया है।
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