4 नवंबर, 2019 के दिन आरसीईपी के तीसरे शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह घोषणा की कि भारत आरसीईपी से अलग हो रहा है और साथ ही साथ उन्होंने यह भी कहा कि उनकी आत्मा इस बात ही गवाही नहीं दे रही है कि भारत आरसीईपी के समझौते पर हस्ताक्षर करे। आरसीईपी सदस्य देश ही नहीं पूरी दुनिया इस घोषणा को लेकर चकित थी। लेकिन अगले पांच साल से भी कम समय में यह स्पष्ट हो गया है कि यह समझौता कुछ देशों, खासतौर पर चीन को छोड़कर शेष लगभग सभी देशों के लिए विनाशकारी था। ख़ास तौर पर इस समझौते का भारी दुष्प्रभाव हमारे डेरी और कृषि ही नहीं तमाम उद्योगों पर भी पड़ने वाला था। उचित समय पर सही निर्णय लेकर भारत तबाही से बच गया।
आरसीईपी 16 मुल्कों के बीच में एक ऐसा प्रस्तावित समझौता था, जिसमें आसियान के 10 देश, जापान, दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, चीन और भारत शामिल थे। भारत को इस समझौते में शामिल होने के लिए मनाने की तमाम कोशिशें नाकाम हुई और उस सम्मेलन में तो नहीं, लेकिन बाद के नवंबर 2020 के सम्मेलन में बाकी बचे देशों ने आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये।
गौरतलब है कि भारत के इस समझौते से निकलने के बावजूद आरसीईपी समूह दुनिया की 30 प्रतिशत जीडीपी और 30 प्रतिशत ही जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है। उसके बाद भी भारत को कभी भी इस समूह में शामिल होने का न्यौता भी दिया गया है। इस संदर्भ में विश्व बैंक ने हाल ही में यह कहा कि भारत को आरसीईपी में शामिल होने के लिए सोचना चाहिए। ऐसे में भारत में दुबारा से यह बहस छिड़ गई है कि क्या हमें आरसीईपी में वापिस शामिल होना चाहिए अथवा नहीं? भारत में विश्व बैंक के समर्थक अर्थशास्त्रियों को शायद यह बात अच्छी लगी हो, लेकिन पिछले कुछ वर्षों के व्यापार आंकड़े कुछ और ही कहानी कह रहे हैं।
वास्तविकता तो यह है कि आरसीईपी में शामिल न होकर भी आज भी भारत चीन से बड़ी मात्रा में सामान आयात कर रहा है। 2020 के बाद से भारत ने चीन के आयात काफी तेजी से बढ़े हैं और 2020-21 में चीन से भारत के आयात 65.2 अरब डालर से बढ़ते हुए 2023-24 तक 101.7 अरब डालर तक पहुंच चुके हैं। उधर चीन को भारत सामान्यतः बहुमूल्य खनिज और कच्चा माल ही निर्यात करता रहा है, जो अधिकांशतः भारत के हित में नहीं है। भारत से चीन को जाने वाले निर्यात कम होने के कारण भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा वर्ष 2020-21 में 44 अरब अमरीकी डॉलर से बढ़ता हुआ वर्ष 2023-24 में 85.1 अरब अमरीकी डॉलर तक पहुँच चुका है। भारत के आत्मनिर्भरता के संकल्प के सामने चीन से बढ़ते हुए आयात एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरे हैं। समझ सकते है कि 2020 के बाद भारत ने तेजी से आर्थिकी संवृद्धि की है, जिसके कारण उद्योगों में कलपुर्जों की मांग भी तेजी से बढ़ी है। ऐसा माना जाता है कि भारत में चीन से आने वाले 75 प्रतिशत आयात मशीनरी, थोक दवाएं, रसायन और अन्य प्रकार के उपकरण और कलपुर्जों के हैं। यह वो सामान है, जो भारत में प्रतिस्पर्धी कीमत पर उपलब्ध नहीं है।
ऐसे में यह प्रश्न भी उठता है कि क्या आरसीईपी से बाहर रहकर चीन से आयातों की बाढ़ को रोका जा सका या नहीं? यह प्रश्न भी उठता है कि भारत का आत्मनिर्भरता का लक्ष्य प्राप्त करने में आरसीईपी से दूरी कोई काम की है भी या नहीं?
इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए हमें यह समझने की कोशिश करनी होगी कि आरसीईपी में वर्तमान में शामिल अन्य मुल्कों की क्या स्थिति है? यह भी समझना होगा कि क्या आरसीईपी समझौते के अनुरूप यदि भारत ने भी आयात शुल्क घटाए होते (आरसीईपी समझौते की शर्त थी कि उसमें शामिल मुल्कों को 90 प्रतिशत वस्तुओं पर आयातों पर शुल्क घटाकर शून्य करना होगा) तो चीन से भारत के आयातों की क्या स्थिति होती?
इसको समझने के लिए हमें आरसीईपी में शामिल अन्य मुल्कों के आयातों, निर्यातों और व्यापार शेष का अध्ययन करना होगा। आरसीईपी के चालू होने के बाद से चीन के साथ आसियान देशों का व्यापार घाटा वर्ष 2020 में 81.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2023 में 135.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है। इसी तरह चीन के साथ जापान का व्यापार घाटा वर्ष 2020 में 22.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2023 में 41.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया था। दक्षिण कोरिया जो दुनिया भर में आपूर्ति्त श्रृंखला का महत्वपूर्ण घटक माना जाता रहा है, को भी वर्ष 2024 में पहली बार चीन के साथ व्यापार घाटे का भी सामना करना पड़ सकता है। हालाँकि चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा भी तेजी से बढ़ा है, लेकिन जानकारों का मानना है कि यदि भारत आरसीईपी में शामिल हो गया होता तो अधिकतर आयातों पर शुल्क शून्य होने के कारण यह घाटा असहनीय हो सकता था।
विश्व बैंक द्वारा भारत के आरसीईपी में शामिल होने संबंधी सुझाव के पीछे जो सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है, वो यह है कि आरसीईपी से बाहर रह कर भारत वैश्विक मूल्य शृंखला (जीवीसी) से बाहर हो रहा है। आरसीईपी में शामिल होकर हम पुनः जीवीसी का हिस्सा बनकर अपनी जीडीपी में वृद्धि कर सकते हैं। विश्व बैंक का पूरा तर्क वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में एकीकरण करते हुए जीडीपी में वृद्धि से संबंधित है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि एक ओर, विभिन्न निर्मित उत्पादों के लिए चीन पर हमारी बढ़ती निर्भरता हमारे घरेलू उद्योग को नुकसान पहुंचा सकती है, और साथ ही चीनी सामानों पर बढ़ती निर्भरता अंततः भुगतान की बड़ी समस्याओं और वित्तीय अस्थिरता का कारण बनती है। यह एक ऐसी लागत है जो तथाकथित वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के परिणामस्वरूप जीडीपी में होने वाले हल्के लाभ से कहीं अधिक बड़ी है। साथ ही कई आसियान देश जो पहले वैश्विक आपूर्ति्त श्रृंखला का हिस्सा थे, अब निवल आयातक बन चुके हैं, इस बात की दूर-दूर तक संभावना नहीं है कि भारत आरसीईपी में शामिल होकर वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बन सकेगा।
हमें समझने की जरूरत है कि वैश्विक मूल्य श्रृंखला आम तौर पर चीन केंद्रित है, और अन्य सदस्य देशों की इसमें कोई खास भागीदारी नहीं है। इससे अन्य देश कमजोर स्थिति में आ जाते हैं। हमें यह भी समझना होगा कि चीन ने विनिर्माण में बहुत बड़ी क्षमता का निर्माण किया हुआ है। इससे चीन के लिए वैश्विक बाजारों में सभी प्रकार के उत्पादों को डंप करना संभव हो जाता है। इस डंपिंग ने अधिकांश देशों में विनिर्माण के लिए तबाही मचा दी है। यहां तक कि वे देश भी, जो पहले जीवीसी का हिस्सा हुआ करते थे, चीन के सामने अपनी जमीन खो रहे हैं। इस मामले में दक्षिण कोरिया सहित कई दक्षिण पूर्व एशियाई देश इसके जीवंत उदाहरण हैं।
यह भी समझने की जरूरत है कि आयात शुल्कों को कम करना स्वचलित रूप से किसी देश को वैश्विक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा नहीं बना सकता, उसके लिए कई अन्य शर्तों को पूरा करना पड़ेगा। जीवीसी. पर शोधकर्ताओं का कहना है कि मूल्य श्रृंखला में सफल भागीदारी देश की आर्थिक ताकत, घरेलू फर्मों की अवशोषण क्षमता और घरेलू स्तर पर सक्षम वातावरण पर निर्भर करती है। सच्चाई यह है कि भूमण्डलीकरण के दौर में औद्योगिक नीति की अनदेखी के चलते, जीवीसी का लाभ उठाने में हमारी अर्थव्यवस्था तैयार नहीं। ऐसे में संभव है कि मूल्य श्रृंखला में हम मूल्य श्रृंखला में निम्न प्रौद्योगिकी के उत्पाद बनाने वाले देश ही बन कर रह सकते हैं।
देश आयात शुल्कों को उचित मात्रा में बढ़ाकर आयातों पर विभिन्न प्रकार के अंकुश लगाते हुए, प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव जैसी स्कीमों के साथ आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहा है, ऐसे में आरसीईपी जैसे समझौते की सोच अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार सकती है। हमें वैश्विक मूल्य श्रृंखला जैसे असत्यपूर्ण तर्कों के भुलावे में न आते हुए आरसीईपी में शामिल शेष देशों के अनुभवों के आलोक में आत्मनिर्भर भारत के अपने लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ने हेतु उपयुक्त औद्योगिक नीति के निर्माण की ओर आगे बढ़ने चाहिए।
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