14 सितंबर को हिन्दी दिवस के साथ ही एक ऐसा दिन आता है, जिसे हमेशा ही विस्मृत कर दिया जाता है। लेकिन इसे हमेशा ही स्मृतियों में रखा जाना चाहिए। 14 सितंबर वैश्विक रूप से कश्मीरी हिंदुओं द्वारा बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
यही वह दिन है जब कश्मीरी हिन्दू नेता पंडित टीकालाल टपलू की हत्या जिहादियों ने कर दी थी। पंडित टीकालाल टपलू भारतीय जनता पार्टी के नेता थे, वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े थे और पेशे से वकील थे। पंडित टीकालाल टपलू को कश्मीरी हिन्दू समुदाय इसलिए भी याद करता है क्योंकि नब्बे के दशक में कश्मीरी हिंदुओं के पलायन से पहले जिन कश्मीरी हिंदुओं की हत्याएं चुन-चुन कर हुई थीं, वे उनमें से सबसे पहले लोगों में से एक थे। वे निडरता से आतंकियों का सामना करते थे। वह लोगों में यह विश्वास भरते थे कि मैं हूँ, और वे यह भी कहा करते थे कि जो गोली मुझे मार सकती है, वह बनी ही नहीं है!” अब जो व्यक्ति इस प्रकार निडरता का भाव लिए होगा, और अपने समुदाय के मध्य निडरता का भाव भरेगा उसकी हत्या पूरे समुदाय के भीतर डर का भाव भरेगी कि यदि इनकी हत्या हो सकती है, तो कुछ भी हो सकता है।
पंडित टीकालाल टपलू लोकप्रिय थे और उन्हें हर कोई आदर से लाला जी कहा करते थे। लाला जी का अर्थ होता है बड़ा भाई। वे बड़े भाई जैसा ही विश्वास भरते थे। पंडित टीकालाल टपलू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की थी, और अपनी इस पढ़ाई का सदुपयोग उन्होंने अपने समुदाय के लिए किया। उनकी स्वीकार्यता सभी समुदायों में थी। ऐसा भी कहा जाता है कि उन्होंने कई मुस्लिम लड़कियों की भी शादी कराई थी। वे एक राजनेता थे। हब्बाकदल निर्वाचन क्षेत्र के लोग ही नहीं, बल्कि कश्मीरी पंडित उनमें अपना ऐसा बड़ा भाई देखते थे, जो उनके साथ रहे।
जीनोसाइड स्टडीज में एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू होता है और वह “सेलेक्टिव किलिंग!”। इसमें पूरे समुदाय को निशाना न बनाकर ऐसे लोगों को निशाना बनाया जाता है, जिस पर वह समुदाय विश्वास करता है, जिसका जीनोसाइड होने वाला होता है।
पंडित टीकालाल टपलू की 14 सितंबर 1989 को की गई हत्या आतंकियों द्वारा इसी सेलेक्टिव किलिंग का एक उदाहरण थी। आतंकी पंडित टपलू की हत्या के माध्यम से कश्मीरी पंडितों के समुदाय में यही संदेश भेजना चाहते थे कि उनके नेता ही सुरक्षित नहीं है और जाहिर है कि वे भी नहीं होंगे। पंडित टपलू की हत्या आतंकियों ने दिनदहाड़े की थी। पूरी योजना के साथ इस प्रकार हत्या की थी कि उन पर विश्वास रखने वाले लोगों के भीतर वही डर फैले, जो वह फैलाना चाहते थे।
14 सितंबर 1989 को रोज की तरह पंडित टपलू कोर्ट के लिए निकले और उन्होंने देखा कि एक बच्ची जोर-जोर से रो रही है और जब वे उस बच्ची को स्कूल के फ़ंक्शन के लिए पैसे देने लगे तो आतंकियों ने उन्हें गोलियों से भून दिया। उनकी हत्या ही वह घटना थी जिसके साथ जीनोसाइड के शिकार कश्मीरी पंडितों के मन में डर भरा और उनकी हत्याओं का दौर फिर से आरंभ हुआ और जिहादियों की वजह से पलायन करना पड़ा।
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