”मैं मनीषजी से बात कर रहा था। जो पीड़ा मेरे मन में है, वह मनीषजी के मन में भी है। इनके लिए भी वही सब कहा गया है जो मेरे लिए कहा गया है।”
जब अरविन्द केजरीवाल 15 सितम्बर को अपने इस्तीफे के एलान के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं को यह बता रहे थे, उनकी ही पार्टी का एक कार्यकर्ता, दूसरे से कह रहा था कि अरविन्दजी को मनीष सिसोदिया मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे, यह घोषणा करने के लिए उनसे पूछने की जरूरत पड़ेगी क्या? मनीष ही क्यों, पार्टी में कोई भी नहीं है, जो अरविन्दजी के निर्णय पर सवाल उठा सके। फिर मनीष ने कहा और रवीश ने कहा, जैसी काल्पनिक कहानी वे मंच से क्यों सुना रहे हैं?
संभव है कि अरविन्द केजरीवाल सच बोल रहे हों और मनीष से उनकी बात भी हुई हो लेकिन उनकी छवि अपने पार्टी के अंदर कार्यकर्ताओं के बीच ऐसी ही बन गई है। इसका कोई क्या करे?
कौन बनेगा मुख्यमंत्री..?
अब बात करते हैं कि अरविन्द की पार्टी में अगला मुख्यमंत्री कौन होगा? इसका जवाब अरविन्द अलावा किसी दूसरे के पास नहीं है। यदि कोई नाम चला भी रहा है तो उसके पीछे कोई सूत्र नहीं है बल्कि मीडिया की मजबूरी है कि उसे कोई नाम चलाना है। पार्टी के अंदर कोई लोकतंत्र नहीं है। इसे आफ द रिकॉर्ड पार्टी के नेता स्वीकार करते हैं। वहां अरविन्द केजरीवाल का आदेश होता है और सभी को उस पर सहमति की मुहर लगानी पड़ती है।
अब यदि मंगलवार को विधायक दल किसी दूसरे को मुख्यमंत्री स्वीकार करने को तैयार ना हो अथवा अरविन्द के जूते को कुर्सी पर रख कर उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल के नेतृत्व में काम करने को तैयार हो जाए तो चौंकिएगा मत। कल का निर्णय जो भी होगा, उसमें अरविन्द केजरीवाल को अपना मुनाफा (पार्टी का नहीं) दिख रहा होगा। उसके बाद ही उस निर्णय को विधायक दल के निर्णय के नाम पर मीडिया में जारी किया जाएगा। इसलिए नामों पर कयास मत लगाइए। होगा वही जो अरविन्द केजरीवाल चाहेंगे। यह बात आपको चौंकाने वाली लग सकती है लेकिन सुनीता केजरीवाल के नाम पर चर्चा करने वालों को एक बार बताना चाहिए कि यदि सुनीता मुख्यमंत्री बन सकती हैं तो हर्षिता केजरीवाल क्यों नहीं? हर्षिता, अरविन्द केजरीवाल की बेटी हैं। आईआईटी दिल्ली से पढ़ी हुई हैं। उनकी उम्र 28 साल हैं। अरविन्द उन पर पूरी तरह से विश्वास कर सकते हैं। यदि वे मुख्यमंत्री बनती हैं तो देश की सबसे कम उम्र की मुख्यमंत्री होंगी।
कांग्रेस इको सिस्टम के स्वतंत्र पत्रकार
अपनी जमी जमाई पत्रकारिता छोड़कर आम आदमी पार्टी में गए आशुतोष गुप्ता, कुछ दिनों से कांग्रेस पार्टी के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए नजर आते हैं। जब अरविन्द ने दो दिनों बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की बात कही। इस मुद्दे पर टीवी चैनलों में होने वाली डिबेट में कांग्रेस पार्टी ने अपने प्रवक्ताओं को भेजने से इंकार कर दिया। ऐसे समय में जब कांग्रेस का कोई प्रवक्ता चैनल पर आने को तैयार नहीं था, पार्टी का पक्ष रखने के लिए निष्पक्ष पत्रकार बनकर आशुतोष गुप्ता एक टीवी चैनल पर बैठे हुए थे। पैनल में आम आदमी पार्टी से मंत्री आतिशी मार्लेना की मौजूदगी में आशुतोष ने कहा कि दिल्ली का मुख्यमंत्री कौन होगा, आम आदमी पार्टी में यह सिर्फ और सिर्फ अरविन्द केजरीवाल को तय करना है, किसी और को तय नहीं करना। यह ढकोसला की विधायक दल मुख्यमंत्री चुनेगा, मैं इसको कतई नहीं मानता। पहले से सब तय होता है। विधायकों के सामने एक प्रस्ताव रखा जाता है और फिर ध्वनि मत से उसे स्वीकृत कर लिया जाता है।
अरविन्द की तरह सोचने लगी है दिल्ली की जनता
मतलब अब अरविन्द केजरीवाल की चालाकियों और ठगी को दिल्ली अच्छी तरह समझने लगी है। अरविन्द ने लोकसभा चुनाव में कहा था कि वोट दीजिए, नहीं तो मुझे फिर जेल जाना पड़ेगा। दिल्ली की जनता ने उन्हें जेल भेजने का विकल्प चुना। वे फिर कह रहे हैं कि दिल्ली की जनता विधानसभा में चुनेगी तो वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे। अब यह कुर्सी दो तीन महीने के लिए बची है तो उन्हें इस्तीफे का ख्याल आया है। दिल्ली में अरविन्द को अपनी बेटी की झूठी कसम खाने वाले नेता के तौर पर भी याद किया जाता है। जो नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए अपनी बेटी की झूठी कसम खा सकता है, उससे कोई विश्वसनीयता की उम्मीद क्या रखे?
दिल्ली की जनता अरविन्द के साथ बारह साल बिताने के बाद उनकी तरह सोचने लगी है। केजरीवाल की आम आदमी वाली छवि पर जबर्दस्त डेंट लग चुका है। उस छवि को अगले तीन चार महीनों में वे वापस हासिल करना चाहेंगे। उनके बयानों से लगता है कि वे मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़कर अब दिल्ली की एक—एक गली और मोहल्ले में जाने का निर्णय ले चुके हैं। 2013 में जैसे मनीष और अरविन्द ने चुनाव अभियान चलाया था। वैसा ही अभियान एक बार और चलेगा। कुछ लोग जो पुराने कार्यकर्ता थे, अब पार्टी के संपर्क में नहीं हैं। उनसे भी संपर्क किया जा सकता है। दूसरे प्रदेशों में पार्टी के जो काबिल कार्यकर्ता हैं, उन्हें दो तीन महीनों के लिए अब दिल्ली अरविन्द बुला सकते हैं। अरविन्द की तैयारी अब लगातार दिल्ली विधानसभा चुनाव तक खबरों में रहने की होगी। हो सकता है कि वे अपने पुराने साथी योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, आशुतोष गुप्ता से भी पिछले दरवाजे से बात करें।
यह अराजकतावादियों से सावधान रहने का समय है!
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अरविन्द दिल्ली में अपनी अराजक नीति की कोई नई मिसाल पेश करें। उनकी पहचान बीते बारह सालों में एक अराजक नेता की रही है। एक समय अरविन्द और अराजकता पर्यायवाची हो गए थे। केन्द्र सरकार को अब इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि आंदोलन या अभियान के नाम पर वे दिल्ली में बड़ा तमाशा भी खड़ा कर सकते हैं।
जिस तरह वे खुद की गिरफ्तारी को केन्द्र सरकार के षडयंत्र से जोड़कर पेश कर रहे थे। उनसे पहले भी कई मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए गिरफ्तार हुए हैं। मोदी सरकार से पहले 2008 में मधु कोरा मुख्यमंत्री रहते हुए गिरफ्तार हुए, 2006 शीबू सोरेन मुख्यमंत्री थे और गिरफ्तार हुए, 2000 एम करूणानिधि गिरफ्तार हुए, उस समय वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थे। 1997 में लालू प्रसाद यादव पर जब गिरफ्तारी की तलवार लटकी, उन्होंने इस्तीफा देकर राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। 1996 जयललिता भी मुख्यमंत्री रहते हुए जेल गईं थीं। लेकिन मुख्यमंत्री रहते हुए जेल जाने वालों में जो रिकॉर्ड केजरीवाल ने बनाया, वह किसी ने नहीं बनाया। सभी इस्तीफा देकर जेल गए थे। सभी गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री थे। इनमें किसी की गिरफ्तारी के समय प्रधानमंत्री मोदी नहीं थे।
Self proclaimed भगत सिंह
15 सितम्बर के अपने भाषण में अरविन्द केजरीवाल कहते हैं, भगत सिंह की शहादत के 95 साल के बाद आजाद भारत के अंदर एक क्रांतिकारी मुख्यमंत्री जेल गया। जब अरविन्द ने यह बात जनता को बता रहे थे तो पार्टी के कार्यकर्ता यही समझ रहे थे कि केजरीवाल हेमंत सोरेन का जिक्र कर रहे हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत कुछ दिनों पहले ही जेल से बाहर आए हैं। फिर अरविन्द को ही बताना पड़ा कि वे किसी और की नहीं बल्कि खुद की बात कर रहे हैं। मतलब एक शराब घोटाले का आरोपी जो सशर्त जमानत पर रिहा हुआ है। वह अपनी तुलना भगत सिंह से कर रहा है।
भगत सिंह के साथ अरविन्द केजरीवाल द्वारा अपना नाम जोड़ने पर, उनका परिवार पहले भी अपनी आपत्ति दर्ज कर चुका है। वैसे भी भगत सिंह के साथ अरविन्द केजरीवाल की कोई तुलना हो भी नहीं सकती। एक देश के लिए फांसी पर चढ़ गया और दूसरा गद्दी के लिए भ्रष्टाचार के गटर में उतर गया। यदि सही में अरविन्द को अपनी तुलना किसी से करनी चाहिए तो वो 1907 में जन्में भगत सिंह नहीं बल्कि 1912 में बिहार के सीवान के बंगरा गांव में जन्में मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव हो सकते हैं। जिस तरह आज अरविन्द झूठ सच बोलकर दिल्ली की जनता को राजी कर लेते हैं, मिथिलेश में भी कुछ कुछ ऐसी ही शक्ति थी। वह अपनी किसी भी बात पर सामने वाले को राजी कर लेता था। राजी होने वाले को बहुत बाद में पता चलता था कि वह ठगा गया है। जैसे अन्ना हजारे, प्रशांत किशोर, योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास, कपिल मिश्रा जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं को बहुत बाद में पता चला कि वे ठगे गए हैं।
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