भारत पैरालंपिक खेलों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए इस बार नया इतिहास रच चुका है। पैरालंपिक खेलों के इतिहास में यह पहली बार है, जब भारत इतने पदक जीतने में सफल हुआ है। पैरालंपिक खेलों में भारत ने पहला पदक 1972 में जीता था और तब से 2016 तक केवल 12 पदक ही जीत सका था। 2021 में हुए टोक्यो पैरालंपिक में भारत 5 स्वर्ण और 8 रजत सहित कुल 19 पदक जीतने में सफल हुआ था यानी 1972 से 2020 के पैरालंपिक तक भारत के खाते में केवल 31 पदक ही दर्ज थे लेकिन इस बार नया इतिहास रचते हुए भारत पहली बार इससे भी ज्यादा पदक जीतने की अग्रसर होता दिख रहा है। यह लेख लिखे जाने तक भारत पेरिस पैरालंपिक में 5 स्वर्ण और 9 रजत सहित कुल 24 पदक जीत चुका है और अभी कई स्पर्धाओं में पदक जीतने की उम्मीदें बाकी हैं। पैरालंपिक में देश के लिए चौथा स्वर्ण पदक जीता 4 सितम्बर को 33 वर्षीय हरविंदर सिंह ने, जिन्होंने आर्चरी (तीरंदाजी) में पुरुष रिकर्व ओपन तीरंदाजी स्पर्धा के फाइनल में शानदार प्रदर्शन करते हुए तीन सैटों में पोलैंड के पैरा एथलीट लुकास्ज सिस्जेक को मात देते हुए गोल्ड भारत के नाम किया। पेरिस में तीरंदाजी में भारत का यह दूसरा पदक है। हरविंदर से पहले शीतल देवी और राकेश कुमार ने मिक्स्ड टीम कंपाउड वर्ग में कांस्य पदक जीता था।
स्वर्ण के लिए हुए फाइनल मुकाबले में हरविंदर सिंह का शानदार प्रदर्शन देखने को मिला, जिसमें उन्होंने पहले सैट को 28-24 के स्कोर से अपने नाम करते हुए दो अहम अंक हासिल किए। उसके बाद दूसरे सैट में उन्होंने फिर से 28 का स्कोर किया जबकि पौलैंड का पैरा एथलीट 27 का स्कोर ही कर सका, इस तरह वह सैट भी हरविंदर के ही नाम रहा और उन्होंने 4-0 से बढ़त बना ली। तीसरे सेट में हरविंदर ने 29-25 के अंतर से जीत हासिल करने के साथ 2 अंक बटोरे और 6-0 से मात देते हुए स्वर्ण पदक जीतकर आर्चरी के एक अविस्मरणीय इतिहास रच दिया। न केवल पेरिस ओलंपिक बल्कि पैरालंपिक के इतिहास में भारत का तीरंदाजी में अभी तक का यह पहला स्वर्ण पदक है, इसलिए यह पदक भारत के लिए बहुत मायने रखता है।
हरविंदर का पैरालंपिक खेलों में यह लगातार दूसरा पदक है, इससे पहले उन्होंने टोक्यो पैरालंपिक में कांस्य पदक जीता था और तब भी वह पैरालंपिक और ओलंपिक में पदक जीतने वाले भारत के पहले तीरंदाज बने थे। अब पेरिस में भी गोल्ड जीतकर वह पैरालंपिक में तीरंदाजी में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहले भारतीय तीरंदाज बन गए हैं। इस जीत के बाद हरविंदर का कहना था, ‘यह शानदार है क्योंकि यह 12 साल पहले का सपना था, जब मैंने तीरंदाजी शुरू की थी। मैंने बस अपनी भावनाओं तथा शरीर को नियंत्रित किया, अपनी शूटिंग को नियंत्रित किया और उसी का परिणाम यह स्वर्ण पदक है।’
हालांकि 25 फरवरी 1991 को हरियाणा में कैथल जिले के अजीत नगर में एक किसान परिवार में जन्मे हरविंदर सिंह के लिए पैरालंपिक में स्वर्ण पदक जीतने के इस मुकाम तक पहुंचने का सफर बेहद कठिन चुनौतियों से भरा रहा लेकिन उन्होंने परेशानियों का डटकर सामना किया और अपने जीवन कभी भी संघर्षों से मुंह नहीं मोड़ा। हरविंदर की पैरालंपिक में गोल्ड जीतने तक की कहानी बेहद भावुक करने वाली है लेकिन साथ ही साहस और जुनून से भरी उनके संघर्षों की कहानी तमाम भारतीयों के लिए प्रेरणादायक भी है। जब वह केवल डेड़ वर्ष के थे, उसी दौरान उन्हें डेंगू हो गया था, जिसके उपचार के लिए उन्हें एक स्थानीय डॉक्टर ने इंजेक्शन लगाए। उनकी जान तो बच गई लेकिन दुर्भाग्य से इंजेक्शन के दुष्प्रभाव से उनके पैरों के काम करने की क्षमता हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गई।
नन्हीं सी उम्र में ऐसा होना किसी सदमे से कम नहीं था लेकिन परिजनों ने भी हिम्मत नहीं हारी। हालांकि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, हरविंदर को जीवन में तमाम तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन परिवार से मिले पूरे सपोर्ट और स्वयं के आत्मबल के चलते उन्होंने कभी भी चुनौतियों से हार नहीं मानी। इसी का परिणाम है कि उन्होंने पैरालंपिक खेलों में तीरंदाजी का स्वर्ण पदक जीतकर न केवल स्वयं के लिए बल्कि भारत के लिए भी ऐसा इतिहास रच दिया, जो उनसे पहले भारत का कोई भी तीरंदाज नहीं कर सका। जीवन में तमाम चुनौतियों का दृढ़ता से सामना करते हुए हरविंदर तीरंदाजी की दुनिया में एक चमकता सितारा बनकर उभरे हैं और खेलों के प्रति उनके जूनून ने ही उन्हें आज दुनिया का सबसे सफल पैरा तीरंदाज बना दिया है।
पैरों की निष्क्रियता के कारण लगातार सामने आती रही चुनौतियों से डटकर मुकाबले करते हुए उन्होंने तीरंदाजी में ही कैरियर बनाने का फैसला किया था। तीरंदाजी से उनका परिचय पहली बार पंजाबी यूनिवर्सिटी में 2010 में तब हुआ, जब उन्होंने वहां तीरंदाजों के एक समूह को प्रशिक्षण लेते देखा। उसके दो वर्ष बाद इकोनॉमिक्स में डॉक्टरेट की पढ़ाई करते हुए उन्होंने लंदन पैरालंपिक में तीरंदाजी में एथलीटों को देखा, जिसने उनमें एक प्रोफैशनल तीरंदाज बनने की इच्छा जगा दी। 2017 हुई पैरा तीरंदाजी विश्व चैंपियनशिप में अपने डेब्यू में वह सातवें स्थान पर रहे। उसके बाद 2018 में जकार्ता एशियाई पैरा खेलों में स्वर्ण पदक जीतने में सफल रहे। उनके खेल कौशल को तराशने में परिवार का भी उन्हें इतना साथ मिला कि उनके पिता ने कोविड-19 महामारी के कारण लगे लॉकडाउन के दौरान अपने खेत को ही तीरंदाजी रेंज में बदल दिया था ताकि हरविंदर वहां अपना नियमित अभ्यास करते रहें। 2021 में उन्होंने टोक्यो पैरालंपिक में कांस्य पदक जीतकर भारत के लिए पैरालंपिक में पहली बार तीरंदाजी में पदक जीतने वाले खिलाड़ी बनने का गौरव हासिल किया।
अप्रैल 2024 में विश्व तीरंदाजी ओशिनिया 2024 पैरा ग्रैंड प्रिक्स में उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में कांस्य पदक जीता और उसके दो ही महीने बाद जून 2024 में पैरा तीरंदाजी विश्व रैंकिंग स्पर्धा में भी चेक गणराज्य में कांस्य पदक जीता। 2023 में वह उस टीम का भी हिस्सा थे, जिसने हांगझोउ में एशियाई पैरा खेलों में पुरुषों के डबल्स रिकर्व इवेंट में कांस्य जीता था। फिलहाल तीरंदाजी में सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित करने के साथ-साथ हरविंदर अर्थशास्त्र में पीएचडी की डिग्री भी ले रहे हें।
पेरिस में हरविंदर के स्वर्ण जीतने की कहानी भी भावुक करने वाली है क्योंकि उन्होंने अपने इस इवेंट से केवल 20 दिन पहले ही अपनी मां को खो दिया था। स्वर्ण पदक जीतने के बाद अपनी मां को याद करते हुए उन्होंने कहा, ‘मैंने इवेंट से ठीक 20 दिन पहले अपनी मां को खो दिया था, इसलिए मैं मानसिक रूप से बहुत दबाव महसूस कर रहा था। मैंने अपने जीवन में बहुत कुछ खोया है, यहां तक कि अपनी मां को भी, इसलिए मुझे वहां से मेडल लेना था और सौभाग्य से मैं जीत गया। यह सब मेरी कड़ी मेहनत और मेरी मां के आशीर्वाद के कारण है।’ बहरहाल, पेरिस पैरालंपिक में हमारे पैरा खिलाड़ी जिन बुलंद हौंसलों के साथ ऊंची उड़ान भरते हुए लगातार भारत को गौरवान्वित कर रहे हैं, उसके लिए उनकी जितनी भी सराहना की जाए, कम है। हमारे पैरा खिलाड़ी पैरालंपिक में पदकों की झड़ी लगाते हुए पूरे देश को यह संदेश देने में सफल हो रहे हैं कि जीवन में तमाम चुनौतियों के बावजूद यदि सपने बड़े हों और साथ में जूनून हो तो लक्ष्य को हासिल करने में कितनी भी रुकावटें क्यों न आएं, वे कम पड़ जाती हैं।
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