वर्ष 1992 को भारत का प्रगतिशील खेमा बहुत शिद्दत से याद करता है। यह उसके लिए जैसे एक युगांतकारी वर्ष है। उसने अपने लिए कैलेंडर में दिसंबर, 1992 की तारीख और स्थान अयोध्या अंकित कर रखा है और हर वर्ष वह उसे याद करके रोता है। विशेषकर कथित प्रगतिशील लेखिकाओं के लिए वह दिन विशेष होता है, क्योंकि उस दिन उन्हें अपनी कविताओं को चमकाने का अवसर प्राप्त होता है। परंतु उनकी स्मृति बहुत ही पूर्वाग्रही है। गत 20 अगस्त को जब अजमेर बलात्कार कांड के शेष 6 आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई तब भी तथाकथित संवेदनशील वर्ग में हलचल नहीं हुई। एक बड़ा वर्ग जो पूरे विश्व की महिलाओं की पीड़ा को बहनापे के आवरण में समेट लेता है, वह वर्ग अपनी ही देश की महिलाओं की इतनी बड़ी पीड़ा पर, वेदना की कथाओं पर शांत है। और आज से शांत नहीं है, वह 1992 से ही शांत है।
ऐसे में प्रश्न यह उठता ही है कि क्या जैसे राजनेताओं ने यह कहते हुए इस मामले को दबाने का प्रयास किया था कि सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा, क्योंकि कुछ आरोपी दरगाह के खादिम परिवार से हैं, उसी प्रकार कथित निष्पक्ष लेखिकाओं को भी क्या यह डर है कि उन पर सांप्रदायिक होने का ठप्पा लग जाएगा? यह कैसा डर है जो उन्हें अपने ही देश की उन महिलाओं के साथ खड़ा नहीं होने देता है, जो दशकों की पीड़ा झेलकर आज न्याय पा रही हैं। जबकि हर कोई जानता है कि अब इतने वर्षों के बाद न्याय का कोई मोल नहीं है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या बलात्कार भी तेरे खेमे का और मेरे खेमे का होता है? इस विषय में वरिष्ठ पत्रकार सर्जना शर्मा कहती हैं, ‘‘इन मामलों में बहुत तेज कदम उठाए जाने चाहिए। हालांकि कुछ मामले ऐसे भी पाए गए हैं, जो सच नहीं थे, मगर फिर भी निर्भया और अभी बंगाल वाले मामले को हम देख ही रहे हैं। यदि हमारे राजनेता, विशेषकर महिला नेता राजनीति छोड़कर इन मामलों मे एकजुट होंगे तो समाज बेहतर बन जाएगा।’’ उन्होंने अजमेर कांड पर आए निर्णय पर कहा, ‘‘इस मामले में जो निर्णय आया है, वह देर से मिला न्याय अ-न्याय समान है। यह केवल एक अपराध नहीं, बल्कि मानवता पर कलंक है और नारी जाति के प्रति अपराध है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘तेरा रेप-मेरा रेप जैसे मामले हो रहे हैं। हो यह रहा है कि हाथरस के मामले में पूरा विपक्ष गया, मगर अभी कोलकता में निर्भया-2 हुआ, उसमें विपक्ष ने एक भी बयान नहीं दिया। लड़की हूं लड़ सकती हूं का नारा देने वाली प्रियंका वाडा न ही कोलकता वाले मामले में कुछ बोल रही हैं और न ही अयोध्या, कन्नौज वाले मामले में बोल रही हैं। आवश्यकता है कि महिला नेता पार्टी लाइन से ऊपर उठकर महिलाओं के प्रति, बच्चियों के प्रति इन अपराधों के विरोध में एकजुट हों। मगर अफसोस यह है कि ऐसा हो नहीं रहा है!’’
क्या वास्तव में अब तेरा रेप-मेरा रेप जैसी बात है? क्या वह वर्ग जिस पर पीड़ा की संवेदना को समझने का उत्तरदायित्व है, वह एजेंडा में फंसकर ही पीड़ाओं को देख रहा है? क्या कारण है कि अजमेर कांड में 32 वर्ष के उपरांत न्याय हुआ है, मगर उस खेमे में पूरी तरह से शांति है, जो बहनापे का दम भरता है। वरिष्ठ लेखिका एवं पत्रकार प्रीतपाल कौर कहती हैं, ‘‘32 साल लगे इस फैसले को आने में। इस दौरान जिन बच्चियों के साथ ये अपराध किया गया उन्हें जिस यातना से गुजरना पड़ा, उनके परिवारों पर जो मुसीबतें आयीं, उनके सामाजिक संबंधों और प्रतिष्ठा का जो हश्र हुआ, उसका तो लेखा-जोखा शायद किया भी नहीं जा सकता।’’
प्रीतपाल ने उस पीड़ा को बहुत नजदीक से देखा है, जो इन लड़कियों के जीवन में आई और प्रौढ़ता की सीढ़ी पर भी उसने उन लड़कियों का दामन नहीं छोड़ा। प्रीतपाल ने कहा, ‘‘आज के समय में विचार और आवाज पर रोक लगाने वाले घटक न के बराबर हैं। सही बात के लिए सही समय पर बोलना हमें जल्दी ही सीखना होगा, ताकि समाज की दिशा को बदल सकें। सिर्फ यह कह देना कि ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे’ काफी नहीं है।’’
इसके लिए अपने आपको एजेंडे से मुक्त करना आवश्यक है। इसके लिए उस बहनापे को समझना आवश्यक है, जो किसी भी एजेंडे में नहीं बंधा हुआ होता है। रचनाकार सुप्रिया पुरोहित पूर्वाग्रही बहनापे के विरुद्ध लगातार बोलती रहती हैं। वे महिला पीड़ा को किसी भी पंथ और वाद में बांधने की विरोधी हैं। वे कहती हैं, ‘‘अजमेर कांड का सत्य बहुत अधिक काला होगा। जितना इसके बारे में लिखना, बोलना चाहिए था उतनी ही चुप्पी ओढ़ी जा रही है। खासकर उस वर्ग द्वारा जो खुद को महिलाओं का हितैषी बताता है। खुद को स्त्रीवाद के आंदोलन का अगुआ बताता है। लगता है उनकी आवाज चुप्पियों के जंगल में बस गई है। बहनापे के सारे स्वर मूक हैं। स्त्रीवादी लॉबी इस पूरे कांड के प्रति मुखर न होकर मौन है।’’
इस चुप्पी का अर्थ बहुत भयावह है। चुप्पी अधिकांश मामलों में समर्थन का प्रतीक होती है। यह नहीं कहा जा सकता है कि स्त्रीवादी लेखिकाएं अपराधियों के पक्ष में होंगी, मगर वह मुखर होकर विरोध में नहीं हैं, इसलिए कहीं न कहीं ऐसे लोगों के हौसले भी बुलंद होते जाते हैं।
इसी चुप्पी पर कई और वरिष्ठ लेखिकाओं के प्रश्न हैं और व्यथा है। वरिष्ठ लेखिका अलका सिन्हा कहती हैं, ‘‘1992 में जो अपराध हुआ उस पर 2024 में निर्णय आया और उनमें से कई लोगों को तो पहले ही छोड़ दिया गया था।’’ उन्होंने इस बात पर भी आपत्ति व्यक्त की कि कैसे यह अनुमान लगाते हुए किसी को छोड़ा जाना चाहिए कि उसकी सजा पूरी हो गई है। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे मामलों पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए और एकजुट होकर ऐसी घटनाओं का विरोध करना चाहिए।
परंतु प्रश्न यही है कि क्या यह बात वह वर्ग समझेगा, जो हमेशा कुछ ही घटनाओं पर मुखर रहता है और जब अपराधी या तो कांग्रेसी हो या फिर मुस्लिम समुदाय से हो तो वे विरोध करना उचित नहीं समझते हैं? उन्होंने लड़कियों की व्यथा पर कहा कि अब तो सबूतों में से भी बदबू आने लगी थी, तो जो लड़कियां बार-बार इस बदबू से होकर गुजर रही होंगी उनकी पीड़ा का अनुमान लगाना संभव नहीं है।
वास्तव में उस पीड़ा का अनुमान लगाना संभव है ही नहीं। सुप्रिया पुरोहित कहती हैं, ‘‘क्या आवाजें किसी विशेष वाद या किन्हीं विशेष व्यक्ति और वर्गों के लिए उठती हैं? ये आवाजें आम महिलाओं और उनके प्रति हुई हिंसा को लेकर सजग क्यों नहीं, मुखर क्यों नहीं? कहां है इनका प्रगतिवाद, स्त्रीवाद? इनके तेवर क्या मात्र किन्हीं विशेष संगठनों के लिए है?’’यह प्रश्न तो उठता ही है कि जो नारीवादी नारा लगाने वाली हैं, उनमें से कितनी महिलाएं इन लड़कियों के आंसू पोंछने के लिए गई थीं? शायद एक भी नहीं! क्योंकि उनके लिए 1992 का संदर्भ मात्र अयोध्या में दिसंबर, 1992 तक ही सीमित है। उनकी दृष्टि 1992 के अजमेर तक जा ही नहीं पाती है, क्योंकि वहां पर घट रही घटना उनके विमर्श के एजेंडे को वह रूप दे ही नहीं पाती, जो अयोध्या 1992 दे देती है।
यह बहुत ही खतरनाक और दमघोंटू चुप्पी है, जिसके नीचे बहनापे का सिद्धांत दम तोड़ रहा है। खैर, चुप्पियों का भी अपना व्याकरण होता है। इसे समझना आवश्यक है। इस पर इंदौर की वरिष्ठ लेखिका डॉ. मीनाक्षी स्वामी ने भी कहा कि चुप्पी साधे हुए एक बड़ा वर्ग केवल अपने अनुसार ही बोलता है। जो उसके अनुसार नहीं होता है तो वह राई का पहाड़ बना लेता है। उन्होंने बांग्लादेश के मामले पर कुछ लेखकों के विचारों का उल्लेख करते हुए कहा कि ये लोग अपने अनुसार तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने में माहिर होते हैं। जहां पानी भी नहीं होता वहां तालाब बताते हैं और जहां तालाब होता है, वहां वे कहते हैं कि पानी ही नहीं है! अर्थात वे अपनी सुविधा के अनुसार विरोध और समर्थन करते हैं। उन्होंने कहा कि पूर्वाग्रही विरोध न केवल देश के लिए, बल्कि मानवता के लिए भी खतरनाक है। क्योंकि पूर्वाग्रही विरोध से अपराधी निश्चिंत रहते हैं कि उनके विरुद्ध तो एक बड़ा प्रभावी वर्ग आवाज नहीं उठाएगा तो वे और भी बेखौफ होकर अपराध करते हैं।
पूर्वाग्रही विरोध अपराध के नकार को जन्म देता है। जैसा अभी कुछ तथाकथित प्रगतिशील लेखकों ने बांग्लादेश की घटना को लेकर किया है। और जैसा अजमेर कांड के दोषियों पर कुछ न लिखकर कर रहे हैं। अब प्रश्न यह भी उठता है कि क्या संवेदना भी पूर्वाग्रही हो सकती है? क्या संवेदना भी राजनीतिक आकाओं के इशारों पर प्रकट एवं अदृश्य होती है?
लखनऊ की लेखिका प्रीति श्रीवास्तव इस चुप्पी को दुर्भाग्यपूर्ण बताती हैं। वे खुलकर कहती हैं, ‘‘अजमेर मामले में कुछ कांग्रेसी नेताओं और एक समुदाय विशेष के लोगों के नाम आने के बाद लेखक/लेखिका वर्ग की चुप्पी उनके कथित महिला विमर्श पर गंभीर सवाल खड़े करता है। ये वही लोग हैं जो महिलाओं की साड़ी,बिंदी,चूड़ी को उनकी स्वतंत्रता का हनन करने वाला मानते हैं और हिजाब के समर्थन में नारेबाजी करते हैं। स्त्री सुरक्षा और स्वतंत्रता के इनके दोहरे मापदंड हैं। तभी एक वर्ग विशेष और पार्टी विशेष का नाम सामने आते ही इनकी जबान को लकवा मार जाता है।’’
प्रीति श्रीवास्तव ने जो बात कही है, उसे कहने से ज्यादातर लेखिकाएं संकोच करती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि इतना सत्य कहा जाता है तो पूरी लॉबी यह प्रयास करती है कि ऐसी बात कहने वालों की साहित्यिक पहचान न बन पाए। पहले ऐसा हो जाता था, परंतु सोशल मीडिया के जमाने में सबकी असली शक्लें जैसे-जैसे सामने आने लगीं, और जैसे-जैसे नए मंच आते गए, वैसे ही यह डर भी समाप्त हो गया कि वह लॉबी क्या करेगी?
पूर्वाग्रही विरोध का परचम लहराने वाली लॉबी बहुत ही चुनिंदा मामलों पर अपनी बात रखती है। वह कठुआ बलात्कार मामले में जब विरोध करती है तो महादेव के प्रति अपमानजनक तस्वीरें बनाने लगती है, मगर वह मदरसों में हो रहे या कहें चर्च मे हो रहे यौन शोषण पर मौन रहती है। वह सिस्टर अभया के मामले में आए निर्णय पर भी चुप रहती है, वह यदि कोलकता वाले मामले में कुछ बोलती है तो उसके निशाने पर सबूत मिटाने वाली प्रदेश सरकार न होकर पितृसत्ता होती है और जब वह हाथरस वाले मामले पर बात करती है तो वह मुख्यमंत्री का इस्तीफा मांगती है।
यही पूर्वाग्रही विरोध मानवता के लिए खतरनाक है। डॉ. मीनाक्षी स्वामी कहती हैं कि क्योंकि वह अजमेर कांड में दोषियों के प्रति कोई भी विमर्श नहीं पैदा कर रहा है। वह सैकड़ों लड़कियों की व्यथाओं पर चुप्पी का लेप नहीं लगा रहा है, बल्कि पीड़ाओं को ऐसी खाई में धकेल रहा है कि ऐसे किसी भी कांड के प्रति लड़कियां भविष्य में सचेत न हो सकें। अपराधियों के प्रति सावधानी न बरत सकें और उस पूरे कार्यप्रणाली को समझ ही न सकें, जो सैकड़ों लड़कियों और परिवारों को असमय मार सकता है। सुप्रिया पुरोहित इसी पर प्रश्न उठाते हुए कहती हैं, ‘‘यह लॉबी अजमेर पर आधारित फिल्म के बहिष्कार के लिए अदालत तो पहुंच गई, लेकिन किसी पीड़िता के आंसू पोंछने नहीं गई। उनकी बात सामने रखने नहीं आई। इनका चयनात्मक स्त्रीवाद समाज के लिए हानिकारक है। इनकी वामवादी क्रांतियां पूंजीवाद के चक्के पर आरोहित हैं। लेकिन शोर साम्यवाद है, स्त्रीवाद का है। पर सिर्फ शोर है वह भी चयनात्मक!’’
संवेदनाओं का बंटवारा
बहनापे की बात करने वाले वर्ग से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी संवेदनाओं में सभी महिलाओं को सम्मिलित करेगा और जब वह महिला की बात करेगा तो पीड़ा के अनुभव में भेदभाव नहीं करेगा, मगर 20 अगस्त को आए इस निर्णय के बाद भी स्त्रीवादी विमर्श के खेमे में पसरा हुआ सन्नाटा यही कहता है कि कथित स्त्रीवाद और कुछ नहीं तमाम स्त्रियों की वेदना की कब्रगाह है और कुछ नहीं! जहां पर कम्युनिस्ट और इस्लामिक एजेंडे के अनुसार ही विमर्श का निर्माण होता है, जहां अपने एजेंडे के अनुसार पीड़ाओं को दफनाया जाता है, स्त्रियों को पंथ और वादों में बांटकर उन्हें अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति करने का उपकरण माना जाता है।
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