पाञ्चजन्य के सुशासन संवाद में विजय मनोहर तिवारी (पूर्व सूचना आयुक्त, मध्य प्रदेश) से ‘भारत का दिल : पुरखे और पहचान’ सत्र में वरिष्ठ मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक अनिल पांडेय ने बात की। चर्चा के दौरान विजय मनोहर तिवारी ने कहा कि भारत के धर्म के बारे में, उसकी प्रकृति के बारे में, उसके मूल के बारे में, जब आप इन प्रश्नों के साथ उसके अतीत में उतरेंगे उसका परिचय लेने के लिए तो आप किसी भी जगह कुछ पकड़ ही नहीं पाएंगे।
मेरे विचार से, भारत में थोड़ी यात्रा करने और थोड़ा पढ़ने के बाद, भारत कोई स्थिर परिचय नहीं है जिसे आप एक पंक्ति या एक पैराग्राफ में सीमित कर सकें। ये बहुत युगों की बहुत लंबी यात्रा का एक सिलसिला है जो सतत है, इसलिए भारत के धर्म को ”सनातन” कहते हैं, वह सनातन है, प्राचीन नहीं है। सनातन का मतलब जो कल था, आज है और आगे भी रहेगा ऐसी जीवंत सत्ता। हजारों वर्षों की भारत की यात्रा में मेरा धर्म सबसे बड़ी बात जो मुझे प्रभावित करती है, वह यह है कि वो किसी जगह पर ये दावा नहीं करता कि वह सर्वश्रेष्ठ है। तो मेरे धर्म में, मेरे देश की प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं है।
काल के प्रभाव में बहुत सारी कुरीतियां जमा हुईं। हम एक बहुत ही अद्भुत परंपरा देखते हैं हमारे ज्ञात इतिहास में पिछले हजार वर्षों के इतिहास में आचार्य शंकर हुए और उन्होंने पूरी संस्कृति को जैसे बिल्कुल रिफ्रेश कर दिया। सारे वायरस जितने घुस गए थे उन्होंने ठीक कर दिया। चार मठ संस्थान बनाए, उन्होंने वेदों में से कुछ अमृत निकाला, उपनिषदों की कुछ व्याख्या की, वेदांत के दर्शन को हमारे सामने पुनर्स्थापित किया केवल 32 वर्ष की आयु में वह ऐसा करके चले गए। मध्य प्रदेश से उनका बहुत गहरा नाता रहा है। फिर 12वीं शताब्दी में प्रयाग में एक रामानंदाचार्य हुए और उन्होंने राम की स्मृतियों को इस तरह से जीवंत किया कि अयोध्या के मंदिरों में जाएंगे तो जैसे राम और जब आप कनक भवन में खड़े होंगे तो लगेगा कि अभी राम और सीता बस उसमें से निकलने वाले हैं।
स्वामी विवेकानंद से 2500 साल पहले चीन से लेकर जापान तक भारत के धर्मदूत बने। उनको हमने ईश्वर कहा उनको अपनी स्मृतियों में सुरक्षित रखा। जबकि वह पूरी बात वेदों से बाहर बात कर रहे हैं। भारत की सनातन यात्रा में इतने सारे पड़ावों से गुजरा हुआ मेरा परिचय है। इसको किसी एक सिरे पर पकड़ना और उसकी एक पैराग्राफ में व्याख्या करना असंभव है। चार हमारे वेद, 18 पुराण, 108 हमारे उपनिषद और उनकी हजारों हजार टीकाएं और टीकाओं पर लिखी गई टीकाएं और कोई यह नहीं की साहब आपने क्या लिख दिया यह तो अंतिम है। सबसे खूबसूरत बात मेरे धर्म और मेरे भारत के परिचय में जो मुझे छूती है, वह यह है कि इसमें किसी पड़ाव पर यह दावा नहीं किया कि यह सर्वश्रेष्ठ है, यह अंतिम है अब कोई अवतार नहीं आएगा अब शटर डाउन हो गया है और ईश्वर ने सारे छापेखाने बंद कर दिए हैं। अब कोई किताब नहीं आई तो भारत से बना हुआ नहीं, यह पूरी ऐसी लाइब्रेरी है जिसमें पुस्तक भी बढ़ती जा रही है, अलमारियां भी बढ़ती जा रही हैं और उसके तल भी बढ़ते चले जा रहे हैं, कोई अंत नहीं दिखता है। मेरे पूर्वजों ने भारत के परिचय को गढ़ने के लिए अपने सारे दरवाजे, सारी खिड़कियां और सारे रोशनदान खोलकर रखे, 24 घंटे। ऐसा समाज है जो नैतिक मूल्यों पर आधारित है।
300 वर्ष पहले के अखंड भारत के विस्तार में क्या तो महेश्वर और क्या तो इंदौर का नक्शा, कहां बिंदु बराबर और एक आदरणीय श्रद्धेय देवी की स्मृति एक शासक के रूप में अगर रह गई है तो वह कुछ नैतिक मूल्यों पर आधारित कोई एक सत्ता चल रही थी, क्योंकि उनके समय में उनसे भी बड़े साम्राज्य थे जो हमारी स्मृतियों से गायब हैं। वह क्यों हमारी स्मृतियों में चमक रहीं क्योंकि नैतिक मूल्य भारत की देश यात्रा ने इस समाज में प्रतिस्थापित किए, जिनके आधार पर जो जहां है वह कल उससे बेहतर हो। जो जहां है अपने आसपास को उससे बेहतर करें। जो जैसा किया उसने वैसा पाया है। देवी अहिल्याबाई ने ऐसा किया, इसलिए हमारी आंखें आज भी भर आती हैं।
सवाल – इस भारत में आप जनजातीय समाज का परिचय किस तरह से देखते हैं और कहां देखते हैं?
जवाब – भारत का जो समाज है और उसमें जनजातियों का जो अस्तित्व है, वह एक तीन स्तर का है, भारत के समाज ने अपनी यात्रा इसमें तय की है। इसमें अरण्य का समाज जो वनों में रहने वाले लोग हैं जिन्हें हम जनजातीय कहते हैं और पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जो तरह-तरह के नरेटिव कॉलोनियल रूल के दौरान हमारे दिमाग में डाले गए और वह चश्मा हमें पहनाए गए और उसे देखने की जो प्रवृत्ति हमने विकसित की, उससे यह सारी भ्रांतियां पैदा हुई हैं तो पहले तल उसका था अरण्य का।
भारत के विशाल विस्तार में केवल इसमें भारत की जो जनजातीय है उसकी बात नहीं कर रहा हूं। अफगानिस्तान की सरहद को छूने वाले पाकिस्तान के चित्राल जिले में रहने वाले उन 5000 लोगों का स्मरण करना चाहूंगा। जो कलश कम्युनिटी के लोग हैं कलश समाज के लोग हैं, वो ऐसी जनजाति है, जो इस्लाम के कितने अंधड़ों के बाद भी कि हमारा वह सप्त सिंधु का पूरा इलाका जा चुका है। वह नक़्शे पर भी अलग हो चुका है और चरित्र से भी गिर चुका है। सप्त सिंधु का जहां वेदों ने जन्म लिया उस जगह पर भी वह जनजातीय समाज कलश समाज के लोग, आज भी आपको लगेगा उनकी तस्वीर देखकर कि आप अरुणाचल के मणिपुर के या मेघालय की किसी जनजाति की रंग-बिरंगी छवि देख रहे हैं। केवल 5000 ही बचे हैं, लेकिन अपनी मूल संस्कृति के साथ।
जो पहला तल है भारतीय समाज की तीन स्तरीय व्यवस्थाओं का अनादिकाल से उसमें एक अरण्य रहने वाले लोग हैं, जिन्हें हम जनजातीय कहते हैं। दूसरा तल है ग्राम समाज का। जो गांव में गए उन्होंने पशुपालन और कृषि पर आधारित अपने जीवन की व्यवस्थाएं विकसित की, सदियों तक। तीसरा है नागर समाज का, शहरी व्यवस्था का।
मैं इतिहास का एक अध्येता हूं, मुझे ऐसा कोई विवरण इतिहास की किताबों में नहीं मिला है कि नागर समाज का ग्रामीण समाज के साथ किसी प्रकार का संघर्ष रहा हो। ग्राम में समाज का जनजातीय समाज के साथ कोई टकराव रहा हो, इन तीनों का आपस में कोई विवाद रहा हो। एक-दूसरे की मर्यादाओं के उल्लंघन में, एक-दूसरे के अधिकारों को झपटने की कोई प्रवृत्ति रही हो। आपस में एक-दूसरे के पूरे बनकर एक साहचर्य भाव से, हजारों वर्ष की यात्रा के बाद यह जनजातियां साथ रहीं। इनकी कोई अलग पहचान नहीं है, लेकिन उनकी कुछ विशिष्ट पहचान जरूर है, जो हमें पता होनी चाहिए। हजारों वर्ष तक भारत में जो झेला, उसमें वह समाज एक ऐसे सॉफ्टवेयर की तरह रहा है जिसे मैं देखता हूं कि जो इस्लामी आक्रांत भारत आए वह भारत के हार्डवेयर को मिटाते रहे। भारत के मंदिरों को मिटाते रहे, महलों को मिटाते रहे, शहरों पर कब्जे करते रहे, राज्यों पर झपटे, लूटते रहे, नरसंहार करते रहे, तो सतह पर भारत के हार्डवेयर की यह तोड़फोड़ चलती रही लेकिन भारत के सॉफ्टवेयर में वह जनजातीय बैठी हुई थी, जिन्होंने हमारे पुरखों की पूरी परंपरा को वाचिक परंपरा में सदियों तक अपने सॉफ्टवेयर में भारत के पूरे अतीत की, विरासत को हमारे पुरखों की गौरवशाली परंपराओं को, हमारे अनुष्ठानों को, हमारे पर्वों को यहां सुरक्षित रखा। यहां भील समाज को सवा लाख साबर मंत्र कंठस्थ हैं, यह कहीं रिकॉर्ड पर नहीं है। लेकिन हुआ क्या, जब ब्रिटिश कॉलोनी भारत में बनी तो जिम कॉर्बेट एक शिकारी हुआ है और वह भारत में पैदा हुआ। उसके पिता उत्तराखंड में नैनीताल के पास पोस्टमास्टर थे। उसका लिखा हुआ हम भारतीय को पढ़ना चाहिए- माय इंडिया। उसे सभी को पढ़ना चाहिए, लेकिन उनकी दृष्टि क्या है। उन्होंने बहुत भाव से लिखा है लेकिन लिखने की दृष्टि क्या है – भारत के नक्शे पर आप ऊपर से नीचे तक लंबवत कुछ लकीरें खींच दीजिए और दाएं से बाएं कुछ लकीरें खींच दीजिए तो भारत इस तरह से कुछ धर्मों में और कुछ नस्लों में बांटा हुआ साफ दिखाई पड़ेगा और जो लंबवत खींची गई लकीरें हैं जो उसके धर्म के विभाजन को जाहिर करती हैं। वह इतनी गहरी हैं कि दो देशों की सरहद भी फीकी है। इस ढंग से वह भारत के परिचय में आपको ले जा रहा है, लेकिन यह उसकी दृष्टि है, खांचों में बांटना।
प्रश्न – एक समय भारत को संपेरों का देश कहा जाता था, आज भी कुछ जगह जब विदेश में जाते हैं तो कहीं छवि देखने को मिलती है। मीडिया इनकी छद्म पहचान को क्यों गढ़ रहा है?
जवाब – शिकागो में स्वामी विवेकानंद का डिस्कोर्स जब दुनिया ने सुना तो उसके बाद से ही वे कुछ दिनों तक सन्निपात में रहे होंगे क्योंकि वे जिस भारत को अपनी प्रचलित मान्यताओं में जानते थे जैसे कि जादू टोनों का और इस तरह के मादारियों का कोई देश है तो बड़ा झटका स्वामी विवेकानंद से उन्हें लगा। आक्सफोर्ड में 7 व्याख्यान फ्रेडरिक मैक्समूलर के हुए हैं। उनके व्याख्यान से आर्य और अनार्य की थ्योरी हवा में खड़े हुए महल की तरह कब की ध्वस्त हो चुकी है। यह थ्योरी कई वैज्ञानिक शोधों से ध्वस्त हो चुकी है। अंग्रेजों ने हमारे दिमाग में आर्य और अनार्य की थ्योरी डाली थी। अभी जो राखीगढ़ी में एक कंकाल स्त्री का निकला है वह चार हजार वर्ष पुराना है। इसने अंतिम रूप से आर्य-अनार्य थ्योरी पर आखिरी कील ठोंक दी है। अब भाषा के आधार पर पलटवार हुआ है कि हमारे लोग बाहर गए हैं, वे भारत से बाहर गए हैं, चाहे व्यापार हो या फिर अन्य कारण।
प्रश्न – धर्म को लेकर जनजातीय समाज में विभेद पैदा किया जा रहा है?
जवाब – यह दुर्भाग्य से दूषित दृष्टि काम कर रही है। जो खांचों में बांटकर देखती है। भारत में कहीं कोई टकराव नहीं था। यहां अलग-अलग बगीचे नहीं हैं। जनजातियों के अनुष्ठान में जाएंगे तो देवताओं का पूजन साफ दिखेगा। भील में साबर मंत्र दिखेंगे। उनकी नृत्य शैलियां कलश से लेकर अरुणाचल की मिश्मी तक , सब मंडलाकार है। एकल नहीं है, पूरा समाज एकजुट है। उन्होंने गीत रचे। नृत्य देखने पर आध्यात्मिक अनुभूति में चले जाएंगे। उनके पर्वों में जाएंगे, देवताओं के पूजन में जाएंगे तो आपको बिल्कुल नहीं लगेगा कि उनका अलग धर्म है। आपको लगेगा कि भारत कहीं धड़क रहा है अपने 24 कैरेट में तो यहीं है।
प्रश्न – क्या जनजातीय समाज की पहचान पर कोई संकट देखते हैं?
सबसे बड़ा संकट कन्वर्जन का है। इसमें झारखंड जैसे राज्यों मे कुछ लक्षण देखने को मिले हैं जैसे कि जमीन पर कब्जा करने के लिए उनकी बेटियों से शादी करो। मध्य प्रदेश धर्मांतरण जैसा कानून लेकर आया, यह अच्छी बात है। कानून के स्तर पर परंपराओं की रक्षा करने की कोशिश की गई है।
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