जनजातीय समाज मूल सनातन संस्कृति का ध्वजवाहक है। हालांकि यह बात भी सही है कि सभ्यताओं के विकास व आक्रमणकारियों द्वारा सभ्यताओं को नष्ट करने के क्रम में जनजातीय समाज में भी परंपराओं, संस्कृतियों, विवाह, पूजा-पद्धतियों, भाषा-बोली, रीति-रिवाजों एवं जीवनशैली में कुछ अंतर अवश्य दिखाई देते हैं, किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि हम गहराई से विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि हिंदू समाज के जनजातीय अथवा गैर-जनजातीय दोनों समाजों के मूल में सनातन संस्कृति विद्यमान है।
वेदों में वर्णित जीवन-पद्धति के आधार पर अनादि काल से जीवन जी रहे जनजातीय बंधु भारत के सनातन समाज की रीढ़ हैं। भारतीय संस्कृति का आविर्भाव गिरि-कंदराओं से हुआ, ऐसा माना जाता है। इसलिए इसे अरण्य संस्कृति भी कहा जाता है।
अथर्ववेद की ऋचा ‘माता भूमि पुत्रोहमपृथिव्या’ में जो भावना है इसको जीवन में उतारने वाला जनजातीय समाज है। प्रकृति में परमेश्वर को देखने वाला यह समाज प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर अपना दैनंदिन जीवन व्यतीत करता है।
भारतीय समाज में सूर्य, चंद्र, नवग्रह, वृक्ष, नाग, नदियां, धरती आदि में देव तत्व का दर्शन कर श्रद्धा और भक्ति के साथ समर्पित भाव की परंपरा प्राचीन काल से ही विद्यमान है। सनातन संस्कृति सदैव ही आक्रमणकारियों के निशाने पर रही है। विभिन्न विदेशी शक्तियों यथा- तुर्कों, मंगोलों, अरबों, मुगलों व अंग्रेजों ने तलवार व बंदूक की नोंक एवं आपसी फूट डालकर तथा सभ्य समाज की उदारवादी, क्षमादान जैसी प्रवृत्तियों का फायदा उठाकर समय-समय पर आक्रमण कर यहां की सत्ता एवं संसाधनों पर ही कब्जा नहीं जमाया, अपितु यहां की संस्कृति को विखंडित करने के लिए क्रूरतम अत्याचारों से राष्ट्र को अपूरणीय क्षति पहुंचाई।
ईसाइयों ने किया शोषण
ईसाई मिशनरियों ने जनजातियों का शोषण किया, भोले-भाले जनजातीय समाज को प्रलोभनों में फंसाकर उनका कर्न्वजन करवाया, जिसका सिलसिला आज तक नहीं थमा है। अपने उन्हीं कुत्सित प्रयासों को मूर्तरूप देने के लिए ईसाई मिशनरी, भारत के अंदर छिपे वामपंथी, शहरी नक्सलियों द्वारा जनजातीय समाज को सनातन हिंदू समाज से अलग बताने एवं उसे उसकी जड़ों से काटने के षड्यंत्र लगातार चलाए जा रहे हैं। जनजातीय समाज को कभी ‘मूल निवासी’ कहरकर तो कभी उन्हें उनके अधिकारों के हनन की झूठी कहानियों से बरगलाने के लिए आर्थिक प्रलोभनों द्वारा लुभाकर अलगाववाद के प्रयास किए जा रहे हैं, जबकि भारतीय संविधान में जनजातीय समाज के उत्थान एवं उनके अधिकारों के पर्याप्त उपबंध किए गए हैं। इस षड्यंत्र में कई वैश्विक शक्तियां पर्दे के पीछे से काम कर रही हैं।
जनजातीय समाज के लोग व्यावहारिक रूप से अत्यंत ही सहनशील, उदार व धार्मिक प्रवृत्ति वाले होते हैं। वे मूर्तिपूजक हैं, प्रकृतिपूजक हैं, सार्वात्मवादी हैं तथा अपने पूर्वजों की पूजा करने वाली उनकी धार्मिक संस्कृति उन सभी प्रक्रियाओं का मिश्रण है जो सिर्फ और सिर्फ सनातन हिंदू परंपरा में ही देखने को मिलती है।
शिवभक्त समाज
जनजातीय समाज के लोग विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से भगवान शिव की सदियों से पूजा करते आ रहे हैं। ये लोग पशुपतिनाथ के रूप में या टांगीनाथ जैसे प्राचीन शिवलिंगों के पूजन के माध्यम से शैव भक्त ही रहे हैं। जैसे झारखंड में संथाल समाज के लोग मरांगबुरु के रूप में पहाड़ की जिस ऊंची चोटी को आकाश, बारिश, बिजली, सूर्य और तेज हवा के देवता के रूप में पूजा करते हैं, वह भगवान शिव का ही प्रतीक है। इस समाज के दो प्रमुख क्रियाकलाप हैं-एक, पशुपालन तथा दूसरा वनोत्पाद, जिनसे वे अपनी आजीविका भी चलाते हैं। ऐसे में जनजातीय समाज के लोग यह मानते हैं कि पशुपति के रूप में भगवान शिव ही उनकी रक्षा करते हैं। इनके अपने अलग लोक देवता, ग्राम देवता और कुल देवता हैं। जैसे- नागवंशी जनजाति और उनकी उप-जनजातियां नाग की पूजा करते हैं। गैर-जनजातीय हिंदू समाज में भी ग्राम देवता, ग्राम देवी व नगर देवता इत्यादि की परंपरा का मूल भी इसी आदि संस्कृति से जुड़ा हुआ है। हिंदू समाज पितृ पक्ष के दौरान दिवंगत आत्माओं का आह्वान कर उन्हें प्रार्थना व भोजन आदि अर्पित करता है, क्योंकि हिंदू लोग मानते हैं कि ब्रह्मांड में आत्मा का अस्तित्व है।
भारत की कई जनजातियों द्वारा उपरोक्त अवधारणाओं का अक्षरश: पालन किया जाता है, लेकिन उन्होंने भी स्थिति के अनुसार उन सभी प्रक्रियाओं को संशोधित किया है, जैसे नागालैंड में, विशेष रूप से नागा लोग पूर्वजों की आत्मा को आमंत्रित करते हैं और उनसे आशीर्वाद लेते हैं, क्योंकि उन्हें धान की फसल बोने के लिए बारिश की आवश्यकता होती है। पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा में प्रत्येक वर्ष जनजाति समाज विशेष अनुष्ठानों का पालन करके अपने पूर्वजों को याद करता है और कुछ ब्राह्मणों को दोपहर के भोजन के लिए भी आमंत्रित करता है। केरल में जनजातीय समाज प्रत्येक वर्ष मृत व्यक्ति की मूर्ति की पूजा करता है। भारत में, लगभग सभी जनजातियां प्रतिवर्ष अलग-अलग अनुष्ठान करके पूर्वजों की आत्मा का आह्वान करती हैं तथा विधिपूर्वक पूजन करती हैं।
पुनर्जन्म पर विश्वास
इसी तरह पुनर्जन्म में आस्था भी सनातन हिंदू परंपरा का अंग है। विभिन्न जनजातियों में भी पुनर्जन्म के प्रति आस्था की परंपरा है। गोंड जनजाति के लोग पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। गोंड परंपरा में किसी व्यक्ति का पुनर्जन्म उसके पिछले जन्म के कार्यों और गुणों के अनुसार होगा। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना और ओडिशा की जनजातियां पुनर्जन्म के बारे में मानती हैं कि व्यक्ति का पुनर्जन्म उसके कर्मों पर निर्भर करता है, यदि उसके कर्म खराब रहे हैं तो ईश्वर उसे दंड देकर पुन: भेजेगा और यदि कर्म अच्छे रहे हैं तो ईश्वर उन्हें अपने पास संरक्षित कर लेगा। गोंड की तरह ही आंध्र प्रदेश की कई जनजातियों में मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति अपने परिवार में ही पुनर्जन्म लेता है।
सनातन हिंदू परम्परा में तंत्र विद्या का एक वर्ग है। ऐसे ही लगभग सभी जनजातियां खुद को टोनों-टोटकों के प्रभावों से बचाने के लिए कई तरह के अनुष्ठान करती हैं। इसी प्रकार ‘शुभंकर’ सनातन हिंदू परंपरा का एक मानक बिंदु है। समान रूप से ही जनजातीय समाज में शुभंकर की मान्यता है, जिसका प्रत्येक जनजातीय परिवार से विशेष संबंध होता है। जनजातीय शुभंकर अधिकतर पशु के रूप में होते हैं, जैसे शेर,बाघ, चीता, गाय, बकरी, गोरिल्ला, जिराफ, गैंडा, भेड़िया, बंदर, कुत्ता, भैंसा, बैल, ऊंट, खरगोश, बिल्ली, शेर, चूहा, घोड़ा इत्यादि।
कई जनजातियों ने अपने शुभंकर हेतु प्रकृति के विभिन्न अंगों को चुना है जैसे नदी, पेड़, झरना, बादल इत्यादि। मोंडा जनजातियां नियमित रूप से सूर्यदेव की पूजा करती हैं। इसी प्रकार असम की गारो जनजाति भगवान सूर्य तथा चंद्रमा दोनों को ही पूजती है। जनजातीय समाज में अपने शुभंकर को लेकर कई निषेध भी हैं। जैसे वे उस जानवर को मार नहीं सकते और खा नहीं सकते; वे किसी भी स्थिति में अपने शुभंकरों का अपमान नहीं कर सकते। इसके अलावा वे समान शुभंकर वाले परिवार के सदस्य से शादी नहीं कर सकते।
मरांगबुरु यानी शिव
इसी तरह जनजातीय समाज के पर्व प्रत्यक्ष रूप से उनका संबंध सनातन हिंदू परंपरा से जोड़ते हैं। जैसे ‘सोहराय पर्व।’ इस पर्व का जनजातीय समाज में बेहद महत्व है। जनजातीय समाज इस पर्व को उत्सव की तरह मनाता है। सोहराय पर्व की कथा सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ी हुई है। प्रचलित कथा के अनुसार, जब मंचपुरी अर्थात् मृत्यु लोक में मानवों की उत्पत्ति होने लगी, तो बच्चों के लिए दूध की जरूरत महसूस होने लगी। उस कालखंड में पशुओं का सृजन स्वर्गलोक में होता था। मानव जाति की इस मांग पर मरांगबुरु (जनजातियों के सबसे प्रभावशाली देवता जो कि शिव का ही स्वरूप हैं) स्वर्ग पहुंचे और वे अयनी, बयनी, सुगी, सावली, करी, कपिला आदि गाएं एवं वरदा बैल से मृत्युलोक में चलने का आग्रह करते हैं। मरांगबुरु के कहने पर भी ये दिव्य जानवर मंचपुरी आने से मना कर देते हैं, तब मरांगबुरु उन्हें कहते हैं कि मंचपुरी में मानव युगों-युगों तक तुम्हारी पूजा करेगा, तब वे दिव्य, स्वर्ग वाले जानवर मंचपुरी आने के लिए राजी होकर धरती पर आते हैं और उनके आगमन से ही इस त्योहार का प्रचलन प्रारंभ होता है।
ज्ञातव्य है कि उसी गाय-बैल की पूजा के साथ सोहराय पर्व की शुरुआत हुई है। पर्व में गाय-बैल की पूजा समस्त जनजातीय समाज काफी उत्साह से करते हैं। मुख्य रूप से यह पर्व छह दिन तक मनाया जाता है। इसी तरह सनातन हिंदू परंपरा के कई ग्रंथ वैदिक काल से लेकर भारत के ऐतिहासिक मूल्यों को परिभाषित करने वाले दो सबसे महान ग्रंथ रामायण और महाभारत तक में वनवासी समुदाय के ऐतिहासिक पात्र अपनी भूमिका, प्रभाव और व्यक्तित्व के कारण विशिष्ट रूप में उभरते हैं। रामायण में महर्षि वाल्मीकि वनवासियों की मौजूदगी का उल्लेख करते हैं यथा गुह्य, निषाद राजा थे, जिन्होंने राम, लक्ष्मण और सीता को गंगा पार कराने के लिए नावों और मल्लाहों की व्यवस्था की थी।
रामायण की लोकप्रिय वनवासी पात्र मां शबरी हैं। मुनि मतंगा की देखभाल करने वाली मां शबरी अरण्यकांड में सामने आती हैं। इनका वर्णन महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण महाकाव्य के तीसरे खंड में है। 12वीं शताब्दी में महर्षि काम्ब कंब द्वारा लिखित तमिल रामायण ‘रामावतारम’ में भी मां शबरी के द्वारा राम-लक्ष्मण के स्वागत का उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण तो वनवासी-खंड के गौरव का महाकाव्य ही है।
श्रीराम और वनवासियों का परस्पर प्रेम और आत्मीयता तथा श्रीराम का सहायक बनने का उनका उत्साह इस रामायण में सुंदर ढंग से चित्रित हुआ है। राम ने उन्हीं से अपनी सेना बनाई और सुग्रीव को सेनापति बनाया। भगवान राम ने अपने वनवास की अधिकांश अवधि वनवासी समुदायों के साथ बिताई जहां वे श्रीराम का स्नेह पाते रहे। उत्तर और दक्षिण को जोड़ने में भगवान राम के प्रयास का बड़ा योगदान रहा। हमारे महाकाव्यों में वनवासियों का जो वर्णन आता है, वह उनकी महत्ता व महिमा का द्योतक है।
प्रभु श्रीराम से नाता
जनजातीय समाज का बहुत ही गहरा संबंध प्रभु श्रीराम से जुड़ता है। गोंड समाज में ‘रामनामी समुदाय’ काफी चर्चा में रहता है। इस बारे में प्रो. रामदास लैंब ने अपनी किताब ‘रैप्ट इन द नेम : रामनामीज, रामनाम’ में लिखा है, ‘‘गोण्डों में अपनी बांह पर हनुमान जी की छवि गुदवाने की एक परंपरा है, उनका मानना है कि इससे उन्हें अद्वितीय शक्ति का अनुभव होता है।’’
रामायण में वर्णित वन्य जातियों के बारे में कई विद्वानों के अनुसार वानर का अर्थ बंदर नहीं है। यह शब्द बंदर का सूचक न होकर वनवासी का प्रतीक है। मुख्यत: दक्षिण भारत में निवास करने वाली यह मानव जाति बुद्धिसंपन्न और मानव भाषा बोलने वाली थी, जिसने माता सीता की खोज और रावण के सामने युद्ध में सर्वाधिक योगदान किया। एक समय था जब विभिन्न जातियों के झंडों पर पशु-पक्षियों आदि के चिन्ह अंकित रहते थे। जिस जाति के झंडे पर बंदर अंकित था, वह वानर जाति कहलाती थी। यह जनजाति वानर की पूजा करती थी। कई जनजातीय लोग गिद्ध और रीछ आदि की पूजा करते थे। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की जनजातियों में उन्हीं नामों के गोत्र आज भी प्रचलित हैं।
महाबली हनुमान जी का भी जनजातीय समाज से संबंध कई अर्थों में आता है। फादर कामिल बुल्के ने परमवीर हनुमान की माता अंजनी की कथा के कई रूपों का उल्लेख किया है। एक व्यापक प्रचलित कथा के अनुसार मां अंजनी ने एक गुफा में हनुमान को जन्म दिया। यह गुफा कहां थी, इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं में भी अंतर है। गुमला (झारखंड) जिले में एक बहुत पुराना गांव है-अंजना। माना जाता है कि यहां हनुमान जी का जन्म हुआ, उनकी माता अंजनी का भी जन्म इसी गांव में हुआ था। झारखंड का यह पश्चिमी-दक्षिणी भाग तथा छत्तीसगढ़ का पूर्वी भाग मिलकर रामायण में वर्णित दंडकारण्य क्षेत्र था। रांची डिस्ट्रिक्ट गजेटियर (1970) में भी इस बात का उल्लेख किया गया है कि इस स्थल को हनुमान जी का जन्मस्थल माना गया है।
बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह आंजन गांव आए थे और यहां हनुमान यज्ञ में उन्होंने सहभागिता भी की थी। प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र में हनुमान जी की विशेष आराधना होती आ रही है।
गोविंद गुरु की महिमा
इसी प्रकार महाभारत में जनजातीय पात्र का एक उदाहरण ‘एकलव्य’ का भी है तथा इसी में सबर और साओरा, जो मुख्य रूप से ओडिशा के क्षेत्र से संबंधित जनजातियां हैं, का भी उल्लेख मिलता है। हमारे कई मठ-मंदिरों की कहानियों में जनजातीय समाज के आख्यान हैं। जैसे विश्व प्रसिद्ध ओडिशा का जगन्नाथपुरी मंदिर का इतिहास इस बात का साक्षी है कि भगवान जगन्नाथ की मूर्ति जनजातीय समाज के महान राजा विश्वासु भील को ही प्राप्त हुई थी, जहां नीलगिरि की पहाड़ियों में भगवान जगन्नाथ की स्थापना की थी। जनजातीय समाज के कई सजग लोगों का कहना है कि जनजातीय समाज में यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हम हिंदू नहीं हैं। पिछले कुछ समय से ऐसे सुनियोजित अभियान चलाए जा रहे हैं कि जनजातियों को जनगणना में ‘हिंदू’ न लिखा जाए। झारखंड के क्रांतिनायक बिरसा मुंडा के नेतृत्व में ब्रिटिश शासनकाल में जो जनआंदोलन चला था, उसमें कर्न्वजन कराने वाले विदेशी ईसाई मिशनरियों का सक्रिय विरोध भी शामिल था।
हाल ही में मानगढ़ धाम में हाल ही में एक रैली आयोजित की गई। इसमें कुछ मतिभ्रष्ट लोगों ने विधर्मियों के सहयोग से जनजातीय समाज को हिंदू धर्म से अलग करने का प्रस्ताव दिया। उन्हें यह भी नहीं पता कि मानगढ़ धाम की जिस पवित्र भूमि पर वे खड़े होकर यह षड्यंत्र कर रहे थे वह स्वयं में सिद्ध ‘जनजातीय हिंदू आस्था’ का केंद्र है, जिसका संबंध गोविंद गुरु से है, वे बिना स्नान किए और बिना भगवान की आराधना किए भोजन नहीं करते थे। जिस घर में शराब, मांस और मादक वस्तुओं का प्रयोग होता था, उनके घर में वे कभी अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे और वे अपने गले में रुद्राक्ष की माला पहनते थे। इसी कारण से लोग उन्हें भगतजी और भगत गोविंद गुरु के नाम से संबोधित करते थे।
गोविंद गुरु ने शैव मत की मान्यता के अनुसार हर जनजातीय बंधु से घर के बाहर एक धूणी (अग्नि कुंड) बनाने और एक ध्वज फहराने की अपील की। उन्होंने जनजातीय समाज के लोगों से बुरी आदतें छोड़ने, अपराधों से दूर रहने और अंधविश्वासों से मुक्ति पाने के लिए सदैव आग्रह किया। गोविंद गुरु के प्रयत्नों से स्थानीय जनजातीय समाज पूरी तरह से संगठित हो गया था। उनमें जागरण की नई लहर आ गई थी। वे दमन, शोषण और अत्याचार का मुकाबला करने के लिए हर तरह से तैयार हो रहे थे।
जनजातीय समाज में उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। फलस्वरूप राजाओं के प्रति नाराजगी भी। कई स्थानों पर जनजतियों ने स्थानीय राजाओं की सेना से टकराव शुरू कर दिया। लगातार प्रताड़ित किए जाने से क्रुद्ध हजारों जनजातीय लोगों ने बांसवाड़ा और डूंगरपुर की सीमा पर स्थित मानगढ़ पहाड़ी पर गोविंद गुरु के नेतृत्व में डेरा जमा लिया। स्थिति बिगड़ते देख राजाओं की शिकायत पर अंग्रेज अधिकारियों ने खेरवाड़ा स्थित छावनी के सैनिक अधिकारियों को यह आदेश दिया कि वे गोविंद गुरु को फिर से गिरफ्तार करें और एकत्रित एवं संगठित भीलों को तितर-बितर कर दें। अंग्रेजों की सेना और स्थानीय राजाओं की सेना की सहायता के लिए अन्य स्थानों से मशीनगन और फौज मंगाई गई।
17 नवंबर, 1913 को अकस्मात् इन फौजी पलटनों ने मानगढ़ की पहाड़ी पर पहुंच कर अंधाधुंध गोलियों की बौछार शुरू कर दी, जहां गोविंद गुरु की गिरफ्तारी के विरोध में डेढ़ लाख से अधिक लोग एकत्रित हुए थे। छावनी के सैनिकों ने मानगढ़ की पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया और अंधाधुंध गोलियां बरसाने लगे। वैसे तो किसी भी हत्याकांड की तुलना दूसरे हत्याकांड से नहीं हो सकती, किंतु तथ्य है कि मानगढ़ पहाड़ी पर हुआ जनजातीय समाज का नरसंहार जलियांवाला बाग से कई गुना बड़ा नरसंहार था, यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर इस इतिहास से लोग अभी तक अनभिज्ञ हैं।
यदि मानगढ़ का इतिहास हमारी स्मृतियों में न होता हम सभी कैसे जान पाते कि कैसे तत्कालीन हिंदुओं के सबसे बड़े नेता स्वामी दयानंद सरस्वती ने, बंजारा समुदाय के गोविंद गुरु को अपना शिष्य बनाया और कैसे एक बंजारे को जनजतीय समाज ने अपना गुरु, अपना भगवान मान लिया। जनजाति समुदायों के लोग अनादि काल से सनातन हिंदू मान्यताओं और संस्कृति के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करते आए हैं। वेद-पुराणों में अरण्यवासियों के आख्यान भरे पड़े हैं। इसलिए इन्हें सनातन धर्मावलंबी ‘हिंदू’ कहना ही उचित है।
आज पूरे देश में जब सारा विश्व सनातन से प्रेरणा लेकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना को साथ लेकर आगे बढ़ रहा है ऐसे समय में भी कुछ विपरीतदर्शी लोग नकारात्मकता की अंतरधारा प्रवाहित करने का लगातार प्रयास कर रहे हैं, जिसमें उन्हें कोई सफलता नहीं मिलने वाली चूंकि ‘धर्मो रक्षति रक्षत:।’
(लेखक हिंदी साहित्य के विद्यार्थी हैं)
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