पूरे छत्तीसगढ़ में जब भी कोई परिचर्चा होती है, तो इसके केंद्र में बस्तर आ जाता है। कारण, एक विशेष विचारधारा ने बस्तर को अंधों का एक ऐसा हाथी बना दिया, जिसे वह जैसा दिखाना चाहती है, वैसा ही दिखाया जा रहा है। बस्तर के साथ अन्याय हुआ है। लेकिन उसके उलट दिखाया गया है। अबूझमाड़ को ही लें। अबूझमाड़ में आज भी लोग मिलकर फसल उगाते हैं और बाद में बराबर बांट लेते हैं। ऐसी परिस्थिति में नक्सलियों को बंदूक लेकर वहां घुसने की क्या जरूरत थी?
बस्तर की सीमाएं महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना और झारखंड से लगती हैं। इस कारण देश-विरोधी तत्वों को वहां वारदात करने में सुविधा मिलती हैै। वारदात के बाद ये तत्व सीमावर्ती राज्यों में शरण लेते हैं। ऐसे तत्वों को एक विशेष विचारधारा का संरक्षण मिलता है।
हम नक्सलवाद की बात करते हैं, तो हमें यह सोचने पर मजबूर किया जाता है कि अवश्य ही नक्सली घटनाएं होने वाले स्थानों पर कोई समस्या होगी। उसे सुलझा दिया जाए तो नक्सलवाद की समस्या का भी समाधान हो जाएगा। पर बस्तर में ऐसी कोई समस्या ही नहीं है। इसे एक घटना से समझा जा सकता है। वहां का जनजाति समाज स्थानीय देवताओं की पूजा करता ही है, परंतु यदि देवता सेवा के बाद भी उनकी कोई इच्छा पूर्ण नहीं करते, तो वह उनको भी दंड दिलवाने के लिए भी पहुंच जाते हैं।
बस्तर में एक जगह है भंगाराम, वहां की भंगाराम देवी को सर्वोच्च माना जाता है। वहां पर स्थानीय लोग अर्जी लगाते हैं और देवता की शिकायत करते हैं। बाकायदा यहां देवता ओझा के माध्यम से, पुजारी के माध्यम से अपनी बातें बोलते हैं। भंगाराम देवी कहती हैं यदि देवता सुन नहीं रहा तो तुमने अनादर किया होगा या उनकी कोई बात नहीं मानी होगी। इसलिए देवता सुन नहीं रहा। इस पर देवी शिकायत लेकर पहुंचे व्यक्ति से उस देवता को कुछ और समय देने की बात कहती हैं। यदि इस समय सीमा के पार होने के बाद भी वही व्यक्ति देवता की शिकायत लेकर पहुंचता है तो उस देवता को सजा हो सकती है। देवी, देवता को कैद करने का आदेश भी दे सकती हैं, अन्य और कोई सख्त सजा भी सुना सकती हैं। क्या वास्तव में ऐसे बस्तर में नक्सलवाद की जरूरत पड़ सकती है ?
हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि बस्तर में नक्सलवाद किसी सामाजिक या आर्थिक समस्या के कारण नहीं है, बल्कि वहां सामाजिक और आर्थिक दिक्कतें नक्सलवाद के ही कारण हैं। शहरी नक्सलियों द्वारा परोसी जा रही विचारधारा के कारण बस्तर का प्रयोग नक्सलवाद और छुपने के लिए हुआ है, क्योंकि सचाई तो यह है कि न तो बस्तर में नक्सलवाद की जगह है, न वहां के लोग ही उनको चाहते हैं।
यह सोचने वाली बात है कि ‘आमचो बस्तर’ जैसी पुस्तक दोबारा आज तक क्यों नहीं लिखी गई? क्यों हम नक्सलियों के मरने की ही खबर चलाते हैं, पर उन्होंने कितनों को मारा, इसकी नहीं? आज आवश्यकता है कि हम मिलकर उस विशेष विचारधारा के विरुद्ध लड़ें, जो बस्तर जैसे समृद्ध विरासत वाले स्थान को केवल नक्सलवाद का केंद्र बनाने पर उतारू है।
प्रस्तुति : साक्षी सारस्वत
टिप्पणियाँ