भारत भगवान कृष्ण की भूमि है, गोपाल का देश है। यहां गाय को माता का दर्जा दिया जाता है और इसी देश में निर्दोष गोभक्तों पर कांग्रेस की सरकार ने गोलियां चलवाई थीं। कांग्रेस और सहयोगी इंडी गठबंधन सनातन को निशाना बनाते रहे हैं। देश की आजादी के बाद से ही कांग्रेस का यह रवैया दिखने लगा था। 58 साल पहले 1966 में असंवैधानिक आदेश जारी किया गया था। इसके तहत सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया गया था। मोदी सरकार ने यह आदेश वापस ले लिया है। अब बताते हैं कि पूरा मामला है क्या।
भारत के आजाद होने के बाद जब संविधान सभा में गौ-हत्या को कानूनन अपराध घोषित करने की मांग उठी तो नेहरू जी जैसे छद्म धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री के कारण यह कानून अस्तित्व में नहीं आ पाया। 1960 में जब पुनः गौ-हत्या निरोधक कानून संसद में लाया गया तो अधिकांश सांसदों के इसके पक्ष में होने के बावजूद नेहरू ने कहा कि यदि यह कानून पारित हुआ तो वे इस्तीफा दे देंगे। इस धमकी के कारण यह कानून संसद से पास नहीं हो सका। जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद 1965 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा, अखिल भारतीय रामराज्य परिषद, विश्व हिन्दू परिषद आदि हिन्दू संगठनों ने दिल्ली में बैठक कर “गौ रक्षा महाभियान समिति” का गठन किया। करपात्री जी समिति के अध्यक्ष चुने गये। इस बैठक में गौ-हत्या के विरुद्ध कानून बनाने की मांग के लिए देशव्यापी जनांदोलन की रणनीति बनी। अगले वर्ष 1966 में देश में आम चुनाव होने थे और देश के हिन्दू वर्ग खासकर संत समाज को नाराज कर इंदिरा गांधी का चुनाव जीतना खासा मुश्किल था। वे करपात्री जी की लोकप्रियता से बखूबी परिचित थीं। इसलिए उन्होंने देश में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध का वचन देकर करपात्री जी से आशीर्वाद मांगा।
चुनाव प्रचार में गौ संरक्षण का मुद्दा जोर-शोर से उठाया। यहां तक कि पार्टी का चुनाव चिन्ह भी गाय और बछड़ा था। इस पर करपात्री जी और अन्य सभी प्रमुख हिन्दू संगठनों ने चुनाव में इन्दिरा गांधी को समर्थन दे दिया। पर प्रधानमंत्री बनते ही इंदिरा वादे से मुकर गयीं। करपात्री जी द्वारा कई बार याद दिलाने पर भी उन्होंने गोहत्या प्रतिबंध पर कोई कदम नहीं उठाया। अंततः स्वामी जी को आंदोलन का मार्ग चुनना पड़ा। कहते हैं कि स्वामी जी के आह्वान पर सात नवम्बर 1966 को संसद भवन परिसर में देशभर के संत समाज का विशाल धरना-प्रदर्शन शुरू हुआ। हिन्दू पंचांग के अनुसार उस दिन विक्रमी संवत 2012 कार्तिक शुक्ल की अष्टमी थी। इस धरने में पुरी के जगद्गुरु स्वामी निरंजनदेव तीर्थ समेत चारों शंकराचार्य, जैन मुनि सुशील कुमार, सार्वदेशिक सभा के प्रधान लाला रामगोपाल, हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो. रामसिंह, ‘कल्याण’ के प्रथम सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्रीगुरुजी, भारत-साधु समाज के अध्यक्ष श्री गुरुचरणदास और संत प्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी जैसे विशिष्ट व्यक्तियों की उपस्थिति में आर्य समाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि विभिन्न धार्मिक समुदायों से जुड़े साधु–संतों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था। महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन की घोषणा ने इस आन्दोलन में नये प्राण फूंक दिये थे। किन्तु कांग्रेस सरकार ने हजारों की संख्या में जुटे उन गोभक्तों के आन्दोलन को विफल करने के लिए आंसू गैस के गोले बरसाये तथा माइक के तार कटवा दिये गये। फिर भी जब गोभक्तों का जोश न थमा तो बर्बरता की हदें पार करते हुए निर्मम लाठी चार्ज कर गोलियां चलवा दी गयीं। इस गोलीबारी में सैकड़ों निर्दोष साधु-संत मारे गये। इस जघन्य हत्याकांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने अपना त्याग पत्र दे दिया था।
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इस खबर को छापने की हिम्मत गोरखपुर से छपने वाली आध्यात्मिक पत्रिका ‘कल्याण’ के सिवा किसी अन्य पत्र-पत्रिका ने नहीं दिखायी। ‘कल्याण’ के गौ विशेषांक में इसे विस्तार से प्रकाशित किया गया। पत्रिका के अनुसार उक्त घटना से अत्यंत आहत करपात्री जी ने इंदिरा गांधी को श्राप देते हुए कहा था- तूने गौ हत्यारों को गायों की हत्या करने की छूट देकर जो घोर पाप किया है, वह क्षमा के योग्य नहीं है। मैं आज तुझे श्राप देता हूं कि ‘गोपाष्टमी’ के दिन तेरे वंश का नाश होगा। पत्रिका के अनुसार घटनास्थल पर जब करपात्री जी ने यह श्राप दिया था तो प्रभुदत्त ब्रह्मचारी भी वहां मौजूद थे।
(इनपुट आर्काइव)
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