सनातन पौराणिक मान्यताओं पर आधारित दक्षिण भारतीय फिल्म ‘कल्कि 2898 एडी’ ने बॉक्स आफिस पर कमाई के नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। रिलीज होने के मात्र 12 दिन के भीतर इस फिल्म ने बॉक्स आफिस पर 500 करोड़ रुपये और वैश्विक स्तर पर 900 करोड़ रुपये की कमाई कर ली। फिल्म तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, तमिल और हिंदी में रिलीज हुई है।उम्मीद की जा रही है कि यह भारतीय सिने इतिहास की सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्मों की सूची में शामिल हो सकती है।
बीते एक दशक से भारतीयता और अन्य मौलिक विषयों पर दक्षिण की बाहुबली-2, रोबोट-2, आरआरआर, केजीएफ-2, कांतारा, सालार जैसी फिल्मों ने बॉक्स आफिस पर बड़ी सफलताएं अर्जित की हैं। उसके सामने बॉलीवुड की उपलब्धियां फीकी पड़ जाती हैं, क्योंकि वर्तमान हिंदी सिनेमा की पहचान ‘न्यून रचनाधार्मिता एवं रीमेक’ की बनकर रह गई है।
पुरस्कारों की झड़ी
2022 में 550 करोड़ की लागत से बनी तेलुगु फिल्म आरआरआर ने कमाई का नया कीर्तिमान स्थापित किया था। एसएस राजामौली की फिल्म ने 1,387.26 करोड़ रुपये की कमाई की। भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म की पटकथा मौलिक थी। इसमें अंग्रेजों द्वारा वनवासी समाज की एक बच्ची को उठाने के बाद उसे छुड़ाने के लिए अंग्रेज सरकार से संघर्ष को दिखाया गया है। 2023 में 95वें आस्कर में फिल्म के ‘नाटू नाटू’ गीत को पुरस्कार मिला था। अभिनेता राम चरण व जूनियर एनटीआर अभिनीत इस फिल्म ने 2023 में 6 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते। इनमें सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन, सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी, सर्वश्रेष्ठ एक्शन निर्देशन, सर्वश्रेष्ठ स्पेशल इफेक्ट्स, संपूर्ण मनोरंजन प्रदान करने वाली सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म और सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्वगायन पुरस्कार शामिल थे। इसके अलावा भी फिल्म ने कई पुरस्कार जीते हैं।
वैचारिक पतन
हिंदी सिनेमा के वैचारिक पतन की कहानी दशकों पुरानी है। मजदूर नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी के अनुसार, ‘‘जिस व्यक्ति का कर्म जीवन के परम लक्ष्य से मेल खाए, उसे सौंदर्यबोध से भी असंगत माना जाता है।’’ हिंदी सिनेमा की यही स्थिति है। धार्मिक, सांस्कृतिक अलंबन पर आधारित हिंदी सिनेमा की शुरुआत श्री पुण्डलिक, राजा हरिश्चंद्र, भस्मासुर मोहिनी जैसी फिल्मों से हुई, लेकिन शीघ्र ही यूरोप की आधुनिकता के वैचारिक नाले जर्मनी-फ्रांस से निकली वामपंथी विचारधारा ने भारतीय राजनीति के साथ सिनेमा को भी प्रभावित करना शुरू किया, जिसमें आगे चलकर इस्लामी, ईसाइयत और पश्चिम का भोगवादी घालमेल भी समाहित हो गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1940 के दशक के अंतिम वर्षों में यूरोप में फैली गरीबी, अभाव, निराशा को स्वर देने के लिए सिनेमा को अधिक वास्तविक रूप में ढाला गया। इसे ‘नव यथार्थवादी’ सिनेमा कहा गया, जिसका केंद्र इटली था। लगभग दो दशक बाद फ्रांस के साहित्यकारों ने फ्रेंच सिनेमा को रोमानियत से परे सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता से परिचित कराया।
यही कला सिनेमा का संभाग बना, जो सत्तर के दशक में एशिया से लेकर दक्षिण अमेरिका तक फैला। कला सिनेमा को भारत में समानांतर सिनेमा कहा गया। इस नई परंपरा का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में विभेद पैदा करना व विखंडवाद का वितंडा खड़ा करना था। लेकिन हिंदी सिनेमा में दलित, मेहनतकश, गरीबों के जीवन निष्कर्ष को प्रतिबिंबित करती प्रतिरोध की उभरी संस्कृति से भारतीय समाज में तनाव या आघातकारी रोष कभी नहीं उत्पन्न हुआ। कारण, 1930-40 के दशक से ही अछूत कन्या, धर्मात्मा, चंडीदास, अछूत, नीचा नगर, नया संसार जैसी फिल्में इस धारा का प्रतिनिधित्व कर रही थीं।
वामपंथी घालमेल
1950-60 के दशक में वामपंथी विचारधारा से प्रेरित राजकपूर आवारा, श्री 420, तीसरी कसम जैसी फिल्मों से किस्सागोई का एक नया संसार रच रहे थे। लेकिन वामपंथ के मूल चरित्र के अनुकूल जब उन पर भौतिकता एवं बाजारवाद हावी हुआ तो वे नारी देह के आवरण के पीछे पैसा बटोरने की मुहिम शुरू करने से भी नहीं हिचके। मेरा नाम जोकर, राम तेरी गंगा मैली, सत्यम् शिवम सुंदरम्, बॉबी जैसी फिल्में इसका प्रमाण हैं। हालांकि उस दौर में ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, जिया सरहदी, राजेंद्र बेदी जैसी ‘इप्टा’ की लीगी जमात भी सक्रिय हो चुकी थी। इस जमात ने एक बुनियाद रख दी थी, जो आगे चल कर भारतीय संस्कृति के विरुद्ध सामाजिक विघटनवाद के प्रतीक सिनेमा का आधार बनने वाली थी।
सत्यजीत रे ने भारत में फिल्म सोसाइटी आंदोलन का नेतृत्व किया ताकि दुनियाभर के फिल्म प्रशंसकों, सौंदर्यवादियों का भारतीय सिनेमा की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा सके। वे भारत की गरीबी व वंचना को सिनेमा के माध्यम से दुनियाभर में प्रसारित कर वाहवाही लूटने में गर्व महसूस करते थे। फिल्मों की प्रचार शक्ति और प्रभाव क्षमता को भांपते हुए भारतीय वामपंथियों के ‘गॉड फादर’ जवाहर लाल नेहरू ने सत्यजीत रे की फिल्मों में दिलचस्पी दिखाई। नेहरू चाहते थे कि विदेशों में राजकपूर की फिल्में दिखाई जाएं। उनकी बेटी और 20वीं सदी की पहली तानाशाह इंदिरा गांधी ने सत्यजीत रे के सिनेमाई आंदोलन को पूरी उदारता से सरकारी सहायता उपलब्ध कराई। उस दौर की फिल्मों में यह राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि अभिव्यक्त हो रही थी।
हालांकि 1960 से 80 के दशक में राष्ट्रवाद एवं भारतीय परंपरा वाली मुखर धारा थी, जो बड़े स्तर पर आम भारतीय दर्शकों की प्रशंसा पाकर सफलता के नए प्रतिमान स्थापित कर रही थी। इस धारा में गाइड, प्रेम पुजारी, उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी, कपड़ा और मकान, क्रांति, हकीकत जैसी फिल्में थीं। इन फिल्मों ने भारतीय बुद्धिवाद एवं राष्ट्रीय मूल्यों को महत्व दिया। वामपंथी सिनेमा की दृष्टि से 1970-80 का दशक नारीवादी विमर्श का उठान बिंदु था।
इस दौर की फिल्मों के विषय शोषण, जातिवाद एवं धार्मिक रूढ़िवाद पर आधारित थे, जिसके केंद्र में नारी व्यथा थी। वामपंथी नैरेटिव के हिसाब से अंकुर, निशांत, मृगया, मंथन, आक्रोश, चक्र, आरोहण, दामुल, पार, आघात, देव शिशु, महायात्रा जैसी फिल्में बनती रहीं। प्रथम दृष्टया ये फिल्में प्रगतिशीलता और सामाजिक कुरीतियों को उजागर करने का प्रयास प्रतीत होती हैं, पर वास्तव में ये दलित, शोषित वर्ग की शिकायतों का लाभ उठाकर समाज में संघर्ष पैदा करने का प्रयास थीं। यानी इस दशक में सिनेमा अपने मूल में ही सामाजिक विघटनवाद एवं वैचारिक वैमनस्य का प्रतीक था।
ढहता तिलिस्म
70 के दशक के पहले तक फिल्मों में नैतिकता बची हुई थी, इसलिए उनमें सामाजिक बुराइयों को सकारात्मक रूप में नहीं दिखाया जाता था। 90 के दशक के बाद तो ‘कुछ भी गलत नहीं’ की पश्चिमी विचाराधारा ने सामाजिक ताने-बाने को ही नष्ट करना शुरू कर दिया। सोवियत संघ के विघटन के साथ सिनेमा में वामपंथियों का तिलिस्म भी ढह गया, लेकिन तब तक हिंदी सिनेमा पाश्चात्य उपभोक्तावाद को आत्मसात कर चुका था। हिंदी फिल्मों में नग्नता, फूहड़ता, गाली-गलौज व भारतीय धर्म-संस्कृति का उपहास उसी दौर की देन है। अब वामपंथी जमात लज्जा, मातृभूमि, लाल सलाम, पीपली लाइव, चक्रव्यूह, अलीगढ़ जैसी फिल्में बनाकर खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की जुगत में है। 90 के दशक के बाद जिस तरह राजनीति में वामपंथी और इस्लामी कट्टरपंथी इकट्ठे हुए, उसी तरह सिनेमा में बाजारवादी भौतिकता में इन्होंने अपनी संभावना ढूंढ ली। वामपंथ की खूबी यह है कि वह समय के अनुसार अपना रंग बदलता है।
रोचक बात यह है कि प्रगतिशील सिनेमा या कला फिल्मों के निर्माण की परंपरा जिस भी देश में पहुंची, उस देश की मूल परंपरा और संस्कृति, जो पश्चिम के उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी शासन में शोषित-प्रताड़ित थे, उनके उन्नयन एवं संरक्षण को अपना प्राथमिक ध्येय बनाया। लेकिन भारत में यह बिल्कुल विपरीत रही। यहां की कला या समानांतार सिनेमा ने पूरी ऊर्जा भारत की मूल धर्म-संस्कृति को कलंकित व अपमानित करने में लगाई। संभवत: यूरोप से आयतित वामपंथ अपने साथ सनातन समाज के अक्षय धर्म-संस्कृति-ज्ञान परंपरा के विरुद्ध जन्मजात विध्वंस की कुंठा लेकर आया था।
2014 में देश में राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के बाद हिंदी सिनेमा में धीरे-धीरे बदलाव आना शुरू हुआ और वामपंथ-इस्लामी गठजोड़ का छद्म वैचारिक तिलिस्म भी ढहने लगा। वैसे भी, सिनेमा कला की बाजारवादी व्यवस्था का ही प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए फिल्म उद्योग का द्वंद्व भी वह खूब समझता है। देर से ही सही, हिंदी सिनेमा ने समाज की रुचि के अनुसार स्वयं को ढालना प्रारंभ कर दिया है। बाजार के लोभ में ही सही, पर भारतीय मूल्य-परंपराओं, पौराणिक-ऐतिहासिक आख्यानों पर आधारित फिल्में बनाने की होड़ है। रामायण, पृथ्वीराज, पद्मावत, केसरी, बाजीराव-मस्तानी जैसी फिल्में इसी बदलाव की द्योतक हैं।
बीते दो दशक से हिंदी सिनेमा में ‘खान तिकड़ी’ के नाम से बॉलीवुड में जमे शाहरुख खान, सलमान खान, आमिर खान की दुकानें अब फीकी पड़ने लगी हैं। लेकिन कुछ मीडिया घरानों व पीआर एजेंसियों की बदौलत तीनों ‘सुपरस्टार’ का अपना आभासी आभामंडल बनाए रखने में सफल रहे हैं। वे यही तरीका अपनी फिल्मों को चर्चा में बनाए रखने और हिट कराने के लिए अपना रहे हैं। सलमान खान की ‘राधे’ और इस्लामी मानसिकता व हिंदू विरोध की कुंठा पाले आमिर की ‘लाल सिंह चड्ढा’ की जो दुर्गति हुई, लोग उसे भूले नहीं हैं। भारत में रह कर भारत को कोसने वाले शाहरुख की बहुप्रचारित फिल्म ‘जवान’ की सफलता भी संदेह के घेरे में आ चुकी है। कुछ मीडिया रिपोर्ट की मानें तो शाहरुख ने अपनी फिल्म को हिट कराने के लिए एक पीआर एजेंसी का सहारा लिया। इसके जरिए देशभर के मल्टीप्लेक्स से टिकट खरीदे गए। बाहर हॉउसफुल का बोर्ड लगा रहा और अंदर सीटें खाली थीं। यह स्वयं को सफल दिखाने की कुंठा नहीं, तो क्या है!
दक्षिण का बढ़ता दबदबा
‘कल्कि’ की बड़ी सफलता अपवाद नहीं है। पिछले एक दशक में दक्षिण की फिल्मों ने विकास और सफलता की एक लंबी उड़ान भरी है। इसका कारण पटकथा में मौलिकता और संस्कृति से जुड़ाव है। दक्षिण की फिल्मों के कथानक में शोध, संवादों की मौलिकता व भद्रता स्पष्ट दिखती है। मलयाली फिल्में तो खासतौर से उम्दा कंटेंट के लिए जानी जाती हैं। तमिल, तेलुगु, कन्नड़ फिल्म उद्योग आज भी इसीलिए सशक्त है, क्योंकि उन्होंने स्थानीय मूल्यों को नहीं छोड़ा।
नितिन रेड्डी की फिल्म ‘श्रीनिवास कल्याणम्’ में विवाह परंपरा को जिस सम्मानजनक तरीके से प्रदर्शित किया गया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। ऋषभ शेट्टी की बहुचर्चित फिल्म ‘कांतारा’ में वनवासी धार्मिक मान्यताओं को बहुत रोचक रूप में दिखाया गया है। इसी तरह ‘आरआरआर’ में स्वतंत्रता संघर्ष की जीवटता का बेहतरीन चित्रण है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं। जैसे- रुद्रमादेवी, नई रिलीज फेमिली स्टार, जिसमें एक उच्च शिक्षित महत्वाकांक्षी युवक का संयुक्त परिवार के लिए समर्पण दिखता है। ‘कल्कि’ और ‘कांतारा’ जैसी फिल्मों की बड़ी सफलता इसका प्रमाण है कि हिंदू इतिहास-दर्शन एवं भारतीय ऐतिहासिक तथ्यों को यदि सम्मानित तरीके से प्रस्तुत किया जाए, तो सर्वराष्ट्रीय समाज उसे स्वीकारता ही नहीं, बल्कि सराहता भी है।
दूसरी ओर, हिंदी सिनेमा कथानक से लेकर गीत-संगीत की रीमेक में ही अपनी प्रासंगिकता ढूंढ रहा है। पिछली कुछ बड़ी हिट फिल्मों पर निगाह डालने पर हम पाते हैं कि सलमान की फिल्म ‘वांटेड’ ने उनके कॅरियर को नया जीवन दिया। ‘वांटेड’ महेश बाबू की ‘पोकिरी’ की रीमेक थी। ‘परफेक्शनिस्ट’ कहे जाने वाले आमिर की ‘गजनी’ भी इसी नाम से तमिल में मुरुगादास द्वारा निर्मित फिल्म का रीमेक थी। जॉन अब्राहम की ‘फोर्स’ भी दक्षिण के स्टार सूर्या की फिल्म ‘काखा-काखा’ की रीमेक थी। यहां तक कि रोहित शेट्टी, अजय देवगन की फिल्म ‘सिंघम’ भी सूर्या की ‘सिंघम’ की रीमेक थी। इसी तरह, अक्षय कुमार की ‘राउडी राठौर’ एसएस राजामौली और रवि तेजा की फिल्म ‘विक्रमारकुडु’ और शाहिद कपूर की ‘कबीर सिंह’ भी विजय देवरकोंडा की फिल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ की रीमेक थी। फिल्मों की नकल की लंबी सूची है, पर नकल में भी कई बार इन तथाकथित सुपरस्टार को निराशा ही हाथ लगी। तेलुगु स्टार नानी की दो सुपरहिट फिल्मों ‘एमसीए’ और ’जर्सी’ की हिंदी रीमेक को दर्शकों ने नकार दिया। अमेरिकी उपन्यासकार हरमन मेलविल लिखते हैं, ‘‘नकल में सफल होने की तुलना में मौलिकता में असफल होना बेहतर है।’’
रचनात्मकता का गिरता स्तर
हिंदी सिनेमा में मौलिकता के नाम पर पटकथा और संवाद ही नहीं, संगीत में भी बड़ी गिरावट आई है। रिपब्लिक में प्लेटो लिखते हैं, ‘‘संगीत की शैली का परिवर्तन संस्कृति में मूल परिवर्तन का आभास देता है।’’ कभी अपने कर्णप्रिय सुमधुर संगीत के कारण वैश्विक सिनेमा जगत में विशिष्ट माने जाने वाले हिंदी सिनेमा में अब भौंडे, फूहड़, अश्लील, द्विअर्थी गीत और कानफोड़ू संगीत को ही रचनात्मक माना जा रहा है। केएल सहगल, प्रदीप, रविशंकर, आरडी बर्मन, सचिनदेव बर्मन आदि ने जो परंपरा शुरू की थी, अब वह इतिहास में समा चुकी है। भाषा के औचित्य पर तो बात करना ही व्यर्थ है, क्योंकि हिंदी सिनेमा ने इसकी सारी मर्यादा ध्वस्त कर दी है।
वास्तव में, भाषा सांस्कृतिक तत्त्वों से प्रभावित होती है। संस्कृति की परिवर्तनशीलता की दिशा के अनुरूप भाषा में भी बदलाव आते हैं। जब संस्कृति इस्लामी-ईसाइयत और पश्चिमी जगत से प्रभावित होगी, तो भाषा में भारतीयता की शिष्ट अवधारणा कहां से कायम रहेगी। यही कारण है कि हिंदी सिनेमा, जिसे दुनिया में भारतीय संस्कृति का प्रसारक माना जाता था, आज उस स्थिति में नहीं है। इस पतन के दूसरे पहलू को देखने पर पाएंगे कि वामपंथी-इस्लामी कट्टरपंथ का गठजोड़ सिनेमा के कलात्मक स्वरूप को अपने वैचारिक षड्यंत्र से दूषित कर रहा है।
‘पीके’ जैसी सनातन विरोधी एवं ‘हैदर’ जैसी कश्मीरी आतंकवाद को भावुकता के आवरण में जायज ठहराने वाली फिल्मों के लिए समर्थन और उसकी प्रशंसा में कूदने वाले ये धर्मद्रोही सिनेमा में भी जिहाद और राष्ट्रवादी भावनाओं का घालमेल बनाए रखना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, 2007 में सच्ची घटना पर बनी फिल्म ‘चक दे इंडिया’ में नायक को मुस्लिम होने के कारण प्रताड़ित दिखाया गया है, जबकि वास्तविकता में जिस हॉकी खिलाड़ी मीर रंजन नेगी के जीवन पर यह फिल्म आधारित थी, वे हिंदू हैं। दूसरा उदाहरण, 2020 में प्रदर्शित ‘छपाक’ में एसिड फेंकने वाला पात्र राजेश, एक हिंदू था, जबकि यथार्थ में जिसने एसिड फेंका था, उस अपराधी का नाम नईम था, जो मुसलमान था। इन उदाहरणों से इस वैचारिक षड्यंत्र की त्वरा को आसानी से समझा जा सकता है।
इनकी सैद्धांतिक निकृष्टता इतनी निर्लज्ज है कि ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’, ‘सावरकर’, ‘रजाकर’, ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘केरला फाइल्स’ जैसी राजनीतिक-सामाजिक वैचारिकी का यथार्थ उकेरती फिल्मों को देखते ही सेकुलरिज्म के नाम पर छाती पीटकर रुदाली शुरू कर देते हैं। तब न इन्हें कला की स्वतंत्रता याद आती हैं और न अभिव्यक्ति की आजादी। लेकिन ये सारा ‘विस्मृत ज्ञान’ इन्हें हिंदू विरोधी सिनेमा को देखते ही याद आ जाता है। लक्ष्मी, आदिपुरुष, महाराज जैसी फिल्मों के बहुसंख्यक भावनाओं को आहत करती पटकथा, संवाद के विरोध एवं बॉयकाट पर इनकी धूर्ततापूर्ण तर्कशीलता देखिए।
फिल्म ‘महाराज’ में एक प्राचीन धार्मिक रिवाज को विकृत करके प्रदर्शित किया गया। ठीक है, हिंदू समाज में कुछ कुरीतियां थीं, जिन्हें समाज स्वीकार करने के साथ उनमें सुधार के प्रयास भी करता रहा है। बाबासाहेब आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘हिंदुओं में अनेक सामाजिक बुराइयां हैं, परंतु संतोषजनक बात यह है कि उनमें से अनेक इसकी विद्यमानता के प्रति सजग हैं और उनमें से कुछ उन बुराइयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आंदोलन भी चला रहे हैं।’’ हिंदू समाज ने जिन रूढ़ियों को पीछे छोड़ दिया, उन भूली-बिसरी कुरीतियों को उभारकर हिंदू द्रोही क्या प्रदर्शित करना चाहते हैं? इस्लाम और ईसाइयत में तो आज तक कुरीतियां चली आ रही हैं। हलाला, मजारों के हाकिमों के सेक्स स्कैंडल के सिनेमाई चित्रण में इनकी रुचि क्यों नहीं है?
‘कांतारा’ वामपंथी नैरेटिव का जवाब
छोटे बजट की कन्नड़ फिल्म ‘कांतारा’ 2022 की सबसे बड़ी हिट फिल्म थी। इसने 400 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की। यह फिल्म वनवासियों को गैर-हिंदू साबित करने व उन्हें भारतीयता के विरुद्ध भड़काने के वामपंथी षड्यंत्र का पदार्फाश करती है। इसमें स्थानीय स्थानीय देव की महत्ता और संस्कृति को दर्शाया गया है। वामपंथी हमेशा कहते हैं कि स्थानीय देवों को पूजने वाले, जंगल और प्रकृति की पूजा करने वाले हिंदू नहीं होते, ‘कांतारा’ ने इसे झुठलाया। वामपंथियों ने छद्म तरीके से पहले भोले-भाले वनवासी समाज के एक बड़े वर्ग के अंदर से हिंदू भाव को समाप्त किया, फिर उनके हाथों में हथियार थमा कर उन्हें नक्सलवाद और माओवाद की तरफ धकेल दिया। इस फिल्म ने न सिर्फ वामपंथी नैरेटिव को धवस्त किया, बल्कि हिंदू आस्था को जगाने का काम भी किया। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे स्थानीय देव पंजुरली वनवासियों की रक्षा करते हैं और उनकी जमीन कब्जाने वाले जमींदार को मारकर दंड भी देते हैं।
सशक्त अभिनय, दमदार आवाज
एक उम्र के बाद लोग आराम करते हैं, लेकिन 65 की उम्र के बाद अमिताभ बच्चन ने चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं निभाईं। भूत, जिन्न, बच्चा, गॉड बनने के बाद अब 81वें वर्ष में वे अश्वत्थामा की भूमिका में हैं। वे पहले से बेहतर अभिनय कर रहे हैं। ‘कल्कि’ में नामचीन अभिनेताओं के बावजूद अमिताभ को सराहा जा रहा है। उम्र के साथ उनकी आवाज व अभिनय दमदार हो गया है। उनमें अभिनय की विभिन्न विधाओं का प्रदर्शन एक ही दृश्य में करने की विलक्षण क्षमता है। कद-काठी ही नहीं, उनकी आवाज ने अश्वत्थामा के किरदार में जान डाल दी है। उनकी आंखें सचमुच यह अहसास दिलाती हैं कि अश्वत्थामा अपने भीतर 5000 वर्षों का इतिहास समेटे हुए है।
अमिताभ ने ‘मोहब्बतें’ से वापसी की थी। 10 अभिनेता-अभिनेत्रियों के बीच उन्होंने ऐसा अभिनय किया कि फिल्म को उनकी परंपरा, प्रतिष्ठा और अनुशासन के लिए याद किया जाने लगा। चाहे वेब सीरीज ‘सरकार’ हो या ‘गॉडफादर’, उन्होंने यह परवाह नहीं की कि फिल्म में उनकी भूमिका कितनी देर के लिए है या उसमें अभिनेता-अभिनेत्री कौन है। ‘पीकू’ को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। उन्हें बच्चों की फिल्म दीजिए या ‘ऊंचाइयां’ में बुजुर्गों के साथ रखिए, कोई फर्क नहीं पड़ता।
वैचारिक विभाजन
आज मुंबइया और दक्षिण के सिनेमा में भारत का वैचारिक विभाजन स्पष्ट दिखता है। एक ओर, दक्षिण की फिल्में जहां भारतीय संस्कृति, मान्यताओं-प्रथाओं-मर्यादाओं और सामाजिकता को सहेज रही हैं और प्रचारित कर रहीं हैं। दूसरी ओर, हिंदी सिनेमा बीते दो दशक में भारतीय समाज के ऐसे चित्रण में लगा है, मानों हर परिवार में आंतरिक आत्मीयता एवं रिश्तों की महत्ता खत्म हो गई है। परिवार एवं विवाह जैसी संस्थाओं को पिछड़ेपन के प्रतीक और प्रगति में बाधक के तौर पर दिखाया जा रहा है। चलती का नाम गाड़ी वाली साड़ी में सिमटी भारतीय कन्या अर्द्धनग्न ‘बुम्बाट’ लड़की बन चुकी है। विवाहेत्तर संबंध, तलाक आधुनिक मूल्य हैं वगैरह-वगैरह। असल में सिनेमा कला का प्रतिरूप है, यह दक्षिण की परंपरा से ही पता लगता है। कला के प्रतिरूपों में जितना पतन हिंदी सिनेमा का हुआ है, उतना किसी का नहीं हुआ। इसलिए वामपंथ, इस्लामी व ईसाइयत के गठजोड़ से प्रेरित सिनेमा जगत को अपना मूल्यांकन करने की जरूरत है ताकि अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सके, अन्यथा पतन और पराभव की सीमा अधिक दूर नहीं है।
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