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लोकतंत्र को ललकारती ‘उम्मत’

यह समझना होगा कि मजहबी लामबंदी के सामने लोकतंत्र को तुष्टिकरण की तलवार से झुकाने का खेल अब ‘अपवाद’ या क्षेत्रीय समस्या नहीं, बल्कि ‘उदाहरण’ और वैश्विक चुनौती का रूप ले रहा है।

by हितेश शंकर
Jul 15, 2024, 07:13 am IST
in सम्पादकीय
फ्रांस में चुनाव परिणाम आने के बाद आगजनी करते वामपंथी और जिहादी

फ्रांस में चुनाव परिणाम आने के बाद आगजनी करते वामपंथी और जिहादी

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वर्तमान सभ्य समाज लोकतांत्रिक व्यवस्था को उपलब्ध शासन व्यवस्था में सर्वोत्तम मानता है। परंतु क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही कुछ ऐसे सुराख हैं, जहां से सेंधमारी करके लोकतंत्र के पूरे किले को ध्वस्त किया जा सकता है? लगता तो ऐसा ही है।

फ्रांस में चुनाव के बाद एग्जिट पोल में वामपंथ के पुनरोदय के संकेत मिलते ही ‘डरे हुए लोगों’ ने ‘जश्न’ मनाया, फिलिस्तीनी झंडे लहराए, यह सब भारत सहित पूरे विश्व ने देखा। परिणाम आने के बाद नया गठबंधन भी बन गया। विशेष बात यह है कि फ्रांस में ही इस गठबंधन को बहुत से लोग बहुमत को झुठलाने लाने वाला, मुस्लिम हितों का पोषक और लोकतंत्र की मान्यताओं के विपरीत राजनीतिक सुविधा का गठबंधन बता रहे हैं।

वामपंथी नेतृत्व वाला गठबंधन न्यू पॉपुलर फ्रंट (एनएफपी) अब यहां सबसे बड़ा पक्ष है। इसमें चार दल एलएफआई, सोशलिस्ट, ग्रीन्स और कम्युनिस्ट शामिल हैं। इनमें सोशलिस्ट पार्टी का गठबंधन एलएफआई के साथ है, जो मजहबी प्रतीकों और हिजाब का खुला समर्थन करता है। यह फ्रांस के संविधान में वर्णित पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत के भी विपरीत है। फ्रांसीसी समाज में सोशलिस्ट पार्टी की इसलिए भी आलोचना होती रही है कि इसने विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत और पारिवारिक मामलों में शरिया कानून लागू करने का समर्थन किया, जो संविधान की भावना के विपरीत है। इसके लागू होने का अर्थ ही है, समान बताए जाने वाले नागरिकों के लिए दोहरे मापदंड।
इसी तरह, ग्रीन्स पार्टी की मस्जिदों और इस्लामी केंद्रों को अधिक आर्थिक मदद देने की पैरोकारी को लोग पांथिक संस्थानों के प्रति पक्षपात भरा कदम मानते हैं। वहीं, ला रिपब्लिक एन मार्श (एलआरईएम) ने कुछ ऐसी नीतियों का समर्थन किया है, जो मुस्लिम समुदाय के विशेषाधिकार को बढ़ावा देते हैं। उदाहरण के लिए, पार्टी ने कुछ विशेष क्षेत्रों में मुस्लिम समुदाय को सामाजिक और आर्थिक सहायता दी है, जिससे अन्य समुदायों में असंतोष पैदा हो सकता है

राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने तुष्टीकरण के लिए सुरक्षा नीतियों में ढिलाई की है। वे इस्लामी कट्टरपंथ से सख्त कानून से निपटने की बजाए मुस्लिम नेताओं के साथ संवाद पर जोर देते दिखने लगे हैं। आलोचक मानते हैं कि इसका असर राष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़ सकता है, खासतौर से तब, जब पिछले वर्ष भड़के दंगों और पश्चिम एशिया में इस्राएल-हमास संघर्ष के चलते कट्टरपंथी विचारधारा और आतंकवाद के परस्पर गठजोड़ से आतंकी हमलों का खतरा बढ़ा हुआ है।

दक्षिणपंथी दलों का आरोप है कि गठबंधन तुष्टीकरण के लिए आर्थिक नीतियों में भी पक्षपात कर रहा है। मुस्लिम समुदाय को विशेष आर्थिक सहायता और सब्सिडी देने से अन्य समुदायों में असंतोष और आर्थिक असंतुलन बढ़ा है।
यह समझना होगा कि मजहबी लामबंदी के सामने लोकतंत्र को तुष्टीकरण की तलवार से झुकाने का खेल अब ‘अपवाद’ या क्षेत्रीय समस्या नहीं, बल्कि ‘उदाहरण’ और वैश्विक चुनौती का रूप ले रहा है। अलग-अलग देशों में समान राष्ट्रीय कानून की बजाय इस्लामी शरिया की मांग करते कट्टरपंथी हुजूम, सड़कों पर भारी-भरकम जमावड़े और नागरिक समाज को आंखें दिखाते हुड़दंगियों के सामने झुकने वाले पिलपिले राजनेता सहज दिखने लगे हैं।

जिस तरह भारत में भाजपानीत राजग को सत्ता से बेदखल करने के लिए इंडी गठबंधन ने चुनाव लड़ा, फ्रांस में भी कुछ ऐसा ही तो हुआ! दक्षिणपंथी दलों को रोकने के लिए सारी पार्टियां इकट्ठी हो गर्इं। नए गठबंधन ने मुस्लिम हितों को प्राथमिकता देकर अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए लोकतांत्रिक मान्यताओं के विपरीत कदम उठाए हैं। इससे न सिर्फ फ्रांस की पंथनिरपेक्षता और कानूनी व्यवस्था प्रभावित होगी, बल्कि समाज में विभेद पैदा होगा और असंतोष-अराजकता बढ़ेगी।

सुविधा की राजनीति की आड़ में लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेंधमारी के इन प्रयासों को मुस्लिम भाईचारे (Muslim brotherhood) या कहिए ‘उम्मत’ के नजरिए से भी देखना चाहिए, जो मुसलमान के लिए किसी एक देश की सीमाओं, संविधान अथवा प्रभुसत्ता के बंधन को नहीं मानता, बल्कि इन सबसे ऊपर नस्लीय आधार पर उन्हें एकजुट होकर चलने और शेष को झुकाने, दबाने और अपनी बात मनवाने का अराजक और शेष से नफरत करने वाला हिंसक विचार देता है।

फ्रांस के नए राजनीतिक समीकरण इसी ‘उम्मत’ के विचार को बढ़ावा देने वाले हैं, जो लोकतंत्र के लिए चुनौती, जनसंख्या असंतुलन, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, भ्रष्टाचार, संसाधनों व बुनियादी ढांचे पर दबाव जैसी मुश्किलें खड़ी कर सकता है।

वास्तव में, उम्मत का विचार इस्लामी शासन और शरीयत पर आधारित है। इसमें लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है, बल्कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को ललकारते हुए कमजोर करता है। यह सिर्फ मुस्लिम एकता और भाईचारे को प्राथमिकता देता है और अल्पसंख्यकों से भेदभाव करता है और उनकी सुरक्षा और स्वतंत्रता को खतरे में डालता है। उदाहरण के लिए, किसी भी मुस्लिम देश में गैर-मुस्लिमों के अधिकारों में अंतर को देखिए। ईरान में इस्लामी गणराज्य की स्थापना के बाद शरीयत कानून लागू किए गए और गैर-मुस्लिम समुदाय के अधिकारों और स्वतंत्रता में कटौती की गई। पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय को गैर-मुस्लिम घोषित कर उनके सब आस्था-अधिकार छीन लिए गए। अफगानिस्तान की तो बात ही क्या है!

अब बात राष्ट्रीय परिदृश्य की। भारत की लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था सभी को समान अवसर और अधिकार देती है। किंतु यहां भी कुछ राजनीतिक दल मुस्लिम समुदाय को विशुद्ध वोट बैंक के रूप में देखते हैं और उनका समर्थन पाने के लिए तुष्टीकरण की तिकड़मों का सहारा लेते हैं। इन्हीं राजनीतिक कलाबाजियों के कारण कई राज्यों में संवैधानिक रूप से वैध वंचितों को पीछे धकेलकर मुस्लिम आरक्षण दिया जाने लगा है और कई जगह इसकी मांग उठाई जा रही है।

1985 के शाहबानो प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटना, नागरिकता संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ प्रदर्शन इसी ‘उम्मत’ के दबाव को उजागर करने वाले चंद उदाहरण हैं।
देशहित के ऐसे गंभीर मुद्दों पर मुस्लिम समुदाय का एकजुट विरोध प्रदर्शन यह दर्शाता है कि उम्मत का विचार राजनीतिक मुद्दों पर भविष्य में एक संगठित प्रतिक्रिया के रूप में उभर सकता है। इसे दुनिया के हर लोकतंत्र के लिए संभावित खतरे के तौर पर देखा जाना चाहिए। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर निश्चित ही यह चुनौती और हमारी भूमिका पूरे विश्व को दिखेगी। सतर्कता, संवेदनशीलता, सहमति और दृढ़ता के साथ लोकतंत्र में सेंधमारी के इस खेल का पटाक्षेप भारत को ही करना है।

@hiteshshankar

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