गुरु पूर्णिमा का दिन सभी गुरुओं के प्रति कृतज्ञता और सम्मान व्यक्त करने के लिए सनातन हिन्दू परंपरा का एक पर्व है, सभी सनातनी हिंदू इसे संसार भर में मनाते हैं। यह हिंदू पंचांग के आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है, जो अंग्रेजी वर्ष के जून से जुलाई माह में पड़ता है। इस दिन को उस अवसर के प्रतीक रूप में मनाया जाता है जब शिव जी ने अपने आदिगुरु स्वरूप में सप्त ऋषियों को योग विद्या का ज्ञान देना आरंभ किया था। इसे ‘व्यास पूर्णिमा’ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह ‘महाभारत’ के रचयिता और ‘वेदों’ का संकलन करने वाले ऋषि वेद व्यास का जन्मदिन भी है।
गुरु पूर्णिमा और स्वयंसेवक संघ
• ‘गुरु पूर्णिमा’ स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी और हिन्दू पुनर्जागरण के पुरोधा डॉ केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 ई में संस्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के उन छह प्रमुख त्योहारों (वर्ष प्रतिपदा, विजयादशमी, मकर संक्रांति, हिंदू साम्राज्य दिवस, गुरु पूर्णिमा और रक्षा बंधन) में से एक है, जिन्हें संघ अपनी विभिन्न शाखाओं के माध्यम से आधिकारिक रूप से मनाता है।
• इस दिन, प्रत्येक आर.एस.एस. शाखा ‘गुरु दक्षिणा (गुरु को भेंट करना)’ का आयोजन करती है। इस कार्यक्रम के आयोजन के मुख्य रूप से दो कारण हैं। पहला, भारत की ‘गुरु-शिष्य-परंपरा’ की सदियों पुरानी श्रद्धेय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत को आगे बढ़ाना और दूसरा, संगठन के कामकाज के लिए वित्त की व्यवस्था करना। आर.एस.एस. के शुरुआती वर्षों में यह तय किया गया था कि संगठनात्मक कार्य के लिए, आर.एस.एस. केवल स्वयंसेवकों से योगदान लेगा। इस प्रकार एक संगठनात्मक गतिविधि के रूप में ‘गुरु दक्षिणा’ को इस तरह से तैयार किया गया था कि स्वयंसेवक, वैचारिक रूप से प्रशिक्षित होने के साथ-साथ वित्तीय योगदान भी करते हैं, जिसका उपयोग संगठनात्मक कार्यों के लिए किया जाता है।
गुरु दक्षिणा
• श्री गुरूजी के अनुसार –“गुरुदक्षिणा, याने निश्चित धनराशि देने का आग्रह अथवा नियमित रूप से इकठ्ठा किया जाने वाला चंदा नहीं है। यह कार्य केवल स्वेच्छा का है। जीवन कष्टमय हो गया है, कुटुंब का भरणपोषण ठीक से नहीं हो पाता अथवा मैंने कम धन दिया तो लोग क्या कहेंगे, इस कारण यह पूजन टालना नहीं चाहिए। यहाँ आकर अंतः करण की ओत-प्रोत श्रद्धा से ध्वज को प्रणाम कर केवल एक पुष्प अर्पण किया तो भी काफी है। इस प्रकार के भाव से दिया हुआ एक पैसा भी धनी व्यक्ति द्वारा अर्पित किए गए सहस्रों रुपयों से अधिक मूल्य का है।“
• संघ की प्रत्येक शाखा गुरु पूर्णिमा से गुरूदक्षिणा के कार्यक्रमों का आयोजन आरंभ करती है। लगभग एक माह तक ये आयोजन चलते हैं। इसके दो मुख्य उद्देश्य हैं–
पहला, प्राचीन भारत की उस गुरु-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाना, जिसमें शिक्षा पूरी करने वाले सभी शिष्य आदर और कृतज्ञता के भाव से अपने गुरु को यथाशक्ति दक्षिणा अर्पित करते थे। इसमें धन की राशि नहीं, कृतज्ञता की भावना महत्त्व रखती है। गुरुपूजा का कार्यक्रम बड़ी सादगी के साथ संपन्न किया जाता है। स्वयंसेवक इस कार्यक्रम में गणवेश में नहीं, बल्कि पारंपरिक भारतीय परिधान (धोती-कुर्ता या पाजामा-कुर्ता) में उपस्थित होते हैं।
• गुरुपूजा कार्यक्रम का प्रारंभ भी शाखा लगने की तरह किसी कमरे या सभागार में भगवा ध्वज फहराने के साथ होता है; लेकिन उस दिन सिर्फ ध्वज-पूजन और बौद्धिक का कार्यक्रम होता है। पूजन के ध्वजदंड के निकट धूप-दीप जलाकर वहाँ संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार और उनके परवर्ती सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर (जिन्हें स्वयंसेवक आदर के साथ ‘गुरुजी’ कहते हैं) के बड़े आकार के चित्र रखे जाते हैं। पास में ही पुष्प रखे होते हैं, जिनसे ध्वज की पूजा की जा सके।
• कार्यक्रम की सूचना सबको दी जाती है और प्रयास होता है कि एक बार भी शाखा में आए स्वयंसेवक को गुरुपूजा में अवश्य सम्मिलित किया जाए। नए स्वयंसेवकों को संगठन से जोड़े रखने के लिए यह प्रयास महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
• गुरु दक्षिणा कार्यक्रम सादगी भरा होता है। लेकिन उसमें गुरु के प्रति श्रद्धा-कृतज्ञता का जैसा आध्यात्मिक वातावरण बनता है, नए स्वयंसेवकों पर उसका विशेष प्रभाव पड़ता है। स्वयंसेवक इस अवसर पर देशभक्ति के गीत का समूह गान करते हैं।
• कार्यक्रम में विशेष रूप से आमंत्रित किसी गणमान्य व्यक्ति या संघ के किसी वरिष्ठ अधिकारी का बौद्धिक संबोधन होता है। संघ अपेक्षा करता है कि शाखा अपने क्षेत्र में रहनेवाले किसी सम्मानित डॉक्टर, वकील, प्राध्यापक, सेना के अवकाश-प्राप्त अधिकारी या सुविख्यात व्यक्ति को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित करने के लिए गुरु दक्षिणा कार्यक्रम के अवसर का उपयोग करें। इससे संगठन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से इतर सदस्यों को शामिल करने में मदद मिलती है। अब तक का अनुभव यही है कि जो भी विशिष्ट व्यक्ति संघ के गुरु दक्षिणा कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में पहली बार आता है, वह इतना प्रभावित होता है कि स्वयंसेवक न होते हुए भी संघ का आजीवन प्रशंसक और मित्र बन जाता है।
• दैनिक शाखा की तरह कार्यक्रम का समापन संघ की ध्वज प्रार्थना से होता है।
• गुरु दक्षिणा कार्यक्रम की अवधारणा संघ के प्रारंभिक दिनों में की गई थी। इसके दो उद्देश्य थे : पहला, संगठन के विस्तार के लिए संगठन के भीतर से ही धन की व्यवस्था करना और दूसरा, यह स्थापित करना कि संघ में भगवा ध्वज ही सर्वोच्च गुरु है।
• कालांतर में गुरु दक्षिणा कार्यक्रम ऐसे स्वयंसेवकों को भी कम-से-कम वर्ष में एक बार जोड़ने का सशक्त माध्यम बन गया, जो नियमित शाखा नहीं आ पाते वे भी कम-से-कम वर्ष में एक बार सभी से परस्पर मिल सकें।
• समय के साथ जब अनेक स्वयंसेवक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संघ के प्रमुख संगठनों में काम करते हुए देश भर में फैल गए, तब ऐसे स्वयंसेवकों के लिए संघ कार्यालय या किसी सभागार में अलग से गुरु दक्षिणा कार्यक्रम किए जाने लगे। इसमें भी अधिकतर ऐसे स्वयंसेवक सम्मिलित होते हैं, जो नियमित शाखा नहीं जाते। प्रशासन, पत्रकारिता, चिकित्सा आदि पेशे से जुड़े स्वयंसेवकों की गुरु दक्षिणा के लिए भी सुविधानुसार अलग कार्यक्रम किए जाते हैं।
• वर्ष में एक बार ‘गुरु दक्षिणा’ दी जाती है। सामान्यत: किसी महीने में एक बार या दो बार गुरु दक्षिणा के लिए तिथि/तिथियाँ तय की जाती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शाखा और अन्य संबद्ध संगठनों को इन तय तिथियों पर यह कार्यक्रम आयोजित करना होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में इस परंपरा को कभी भी नहीं तोड़ा गया। यह सर्वाधिक आदरणीय और पुनीत कार्यक्रम माना जाता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भगवा ध्वज
• राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक किसी व्यक्ति या ग्रंथ की जगह भगवा ध्वज को अपना मार्गदर्शक और गुरु मानते हैं। जब डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रवर्तन किया, तब अनेक स्वयंसेवक चाहते थे कि संस्थापक के नाते वे ही इस संगठन के गुरु बनें; क्योंकि उन सबके लिए डॉ. हेडगेवार का व्यक्तित्व अत्यंत आदरणीय और प्रेरणादायी था। इस आग्रहपूर्ण दबाव के बावजूद डॉ.हेडगेवार ने हिंदू संस्कृति, ज्ञान, त्याग और संन्यास के प्रतीक भगवा ध्वज (केसरिया झंडा) को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय किया। हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष व्यास पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) के दिन संघ-स्थान पर एकत्र होकर सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज का विधिवत् पूजन करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर साल जिन छह उत्सवों का आयोजन करता है, उनमें गुरुपूजा कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
• अपनी स्थापना के तीन साल बाद संघ ने सन् 1928 में पहली बार गुरुपूजा का आयोजन किया था। तब से यह परंपरा अबाध रूप से जारी है और भगवा ध्वज का स्थान संघ में सर्वोच्च बना हुआ है। ध्वज की प्रतिष्ठा सरसंघचालक (संघ प्रमुख) से भी ऊपर है।
• केसरिया झंडे को ही संघ ने सर्वोच्च स्थान क्यों दिया? यह प्रश्न बहुतों के लिए पहेली बना हुआ है। भारत और कई दूसरे देशों में ऐसे अनेक धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन हैं, जिनके संस्थापकों को गुरु मानकर उनका पूजन करने की परंपरा है। भक्ति आंदोलन की समृद्ध परंपरा के दौरान और आज भी किसी व्यक्ति को गुरु मानने में कोई कठिनाई नहीं है। इस प्रचलित परिपाटी से हटकर संघ में डॉ. हेडगेवार की जगह भगवा ध्वज को गुरु मानने का विचार विश्व के समकालीन इतिहास की अनूठी पहल है। जो संगठन दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है, उसका सर्वोच्च पद अगर एक ध्वज को प्राप्त है तो निश्चय ही यह गंभीरता से विचार करने का विषय है। संघ के अनेक वरिष्ठ स्वयंसेवकों ने इस रोचक पक्ष पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
• राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक एच.वी. शेषाद्रि के अनुसार, “ भगवा ध्वज सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपरा का श्रद्धेय प्रतीक रहा है। जब डॉ. हेडगेवार ने संघ का शुभारंभ किया, तभी से उन्होंने इस ध्वज को स्वयंसेवकों के सामने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया और बाद में व्यास पूर्णिमा के दिन गुरु के रूप में भगवा ध्वज के पूजन की परंपरा आरंभ की।”
• संघ के महाराष्ट्र प्रांत कार्यवाह एन.एच. पालकर ने भगवा ध्वज पर एक रोचक पुस्तक लिखी है। मूलत: मराठी में लिखी यह पुस्तक सन् 1958 में प्रकाशित हुई थी। बाद में इसका हिंदी संस्करण प्रकाशित हुआ। 76 पृष्ठों की इस पुस्तक के अनुसार, सनातन धर्म में वैदिक काल से ही भगवा ध्वज फहराने की परंपरा मिलती हैं।
• पालकर के अनुसार, “वैदिक साहित्य में ‘अरुणकेतु’ के रूप में वर्णित इस भगवा ध्वज को हिंदू जीवन-शैली में सदैव प्रतिष्ठा प्राप्त रही है । यह ध्वज हिंदुओं को हर काल में विदेशी आक्रमणों से लड़ने और विजयी होने की प्रेरणा देता रहा है। इसका सुविचारित उपयोग हिंदुओं में राष्ट्ररक्षा के लिए संघर्ष का भाव जाग्रत् करने के लिए होता रहा है।”
पालकर ने भगवा ध्वज के राष्ट्रीय चरित्र को सिद्ध करने के लिए कई ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया है। कुछ घटनाएँ इस प्रकार हैं :
• सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह ने जब हिंदू धर्म की रक्षा के लिए हजारों सिख योद्धाओं की फौज का नेतृत्व किया, तब उन्होंने केसरिया झंडे का उपयोग किया। यह ध्वज हिंदुत्व के पुनर्जागरण का प्रतीक है। इस झंडे से प्रेरणा लेते हुए महाराजा रणजीत सिंह के शासन काल में सिख सैनिकों ने अफगानिस्तान के काबुल-कंधार तक को जीत लिया था। उस समय सेनापति हरि सिंह नलवा ने सैनिकों का नेतृत्व किया था।
• पालकर ने लिखा है कि जब राजस्थान पर मुगलों का हमला हुआ, तब राणासाँगा और महाराणा प्रताप के सेनापतित्व में राजपूत योद्धाओं ने भी भगवा ध्वज से वीरता की प्रेरणा लेकर आक्रमणकारियों को रोकने के लिए ऐतिहासिक युद्ध किए। छत्रपति शिवाजी और उनके साथियों ने मुगल शासन से मुक्ति और हिंदू राज्य की स्थापना के लिए भगवा ध्वज की छत्रछाया में ही निर्णायक लड़ाइयाँ लड़ीं।
• पालकर मुगलों के आक्रमण को विफल करने के लिए दक्षिण भारतीय राज्य विजयनगरम् के राजाओं की सेना का भी उल्लेख करते हैं, जिसमें भगवा ध्वज को शौर्य और बलिदान की प्रेरणा देनेवाले झंडे के रूप में फहराया जाता था। मध्यकाल के प्रसिद्ध भक्ति आंदोलन और हिंदू धर्म में युगानुरूप सुधार के साथ इसके पुनर्जागरण में भी भगवा या संन्यासी रंग की प्रेरक भूमिका थी।
• भारत के अनेक मठ-मंदिरों पर भगवा झंडा फहराया जाता है, क्योंकि इस रंग को शौर्य और त्याग जैसे गुणों का प्रतीक माना जाता है।
• अंग्रेजी राज के विरुद्ध सन् 1857 में भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम के दौरान केसरिया झंडे के तले सारे क्रांतिकारी एकजुट हुए थे।” उन्होंने पुस्तक के अंत में निष्कर्ष के तौर पर लिखा है कि भगवा ध्वज के संपूर्ण इतिहास का अध्ययन करने से स्पष्ट है कि इसे हिंदू समाज से अलग करना संभव नहीं है। यह ध्वज हिंदू समाज और हिंदू राष्ट्र का सहज स्वाभाविक प्रतीक है।
संघ की शाखा या प्रशिक्षण शिविर में जब भगवा ध्वज के महत्त्व पर बौद्धिक विमर्श होता है, तब मुख्यत: वही बातें स्वयंसेवकों को बताई जाती हैं, जिनका उल्लेख पालकर की पुस्तक में किया गया है।
लेखक ने संक्षेप में हिंदू राष्ट्र, हिंदू समाज, हिंदू संस्कृति, हिंदू जीवन-शैली और दर्शन–सबको भगवा ध्वज से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा है। वे मानते हैं कि यह ध्वज हिंदुओं को त्याग, बलिदान, शौर्य, देशभक्ति आदि की प्रेरणा देने में सदैव सक्षम रहा है।
ध्वज महिमा
• श्री गुरूजी के अनुसार –“संघ में न तो व्यक्तिगत अभिमान के लिए स्थान है और न संस्था के अभिमान के लिए अवसर है। संघ तो केवल अपने अखिल भारतवर्ष का अभिमानी है। फिर अपनी इस दिव्या ध्वाजा को छोड़कर अन्य किसी प्रतीक के प्रति किस प्रकार श्रद्धा रख सकता है? हम दुसरे किसी ध्वज का अनादर नहीं करना चाहते, पर हमारी श्रद्धाएँ प्राचीन भारत के इतिहास और परंपरागत भगवे ध्वज को ही समर्पित हैं।“
• यह ध्वज हिंदू समाज के सतत संघर्षों और विजयश्री का साक्षी रहा है। हिंदू संस्कृति और हिंदू राष्ट्र ‘भगवा ध्वज’ के बिना हम हिंदू धर्म की कल्पना नहीं कर सकते। (‘धर्म’ शब्द का प्रयोग हिंदुत्व के विद्वानों के अनुसार किया गया है, अर्थात् धर्म जीवन जीने का मार्ग है तथा इसे कुछ रीति-रिवाजों, कर्म-कांडों तक सीमित ‘धर्म’ की रूढ़िवादिता के समतुल्य नहीं माना जा सकता) संस्कृति किसी भी देश की जीवन रेखा होती है। हिंदू संस्कृति हमारे देश की जीवन-रेखा है तथा ‘भगवा ध्वज’ हिंदू संस्कृति का प्रतीक है।
• पालकर का यह वक्तव्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि भगवा ध्वज के अस्तित्व पर इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता है कि इसे कोई शासकीय मान्यता दी गई या नहीं। यही कारण है कि आज भी अनेक सामाजिक – राजनीतिक संगठनों, जातियों और उपजातियों के लिए भगवा ध्वज आदरणीय है।
• यह हिंदू समाज की आकांक्षाओं का प्रतीक है और इसमें वह ऊर्जा भी है, जो उन आकांक्षाओं को साकार करने के लिए समाज को प्रेरित कर सकती है। यह ऊर्जा भले ही प्रकट न हो, लेकिन इसे हम संगठित हिंदू समाज के रूप में अवश्य देख सकते हैं।
• भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने के पीछे संघ का दर्शन यह है कि किसी व्यक्ति को गुरु बनाने पर उसमें पहले से कुछ कमजोरियाँ हो सकती हैं या कालांतर में उसके सद्गुणों का क्षय भी हो सकता है; लेकिन ध्वज स्थायी रूप से श्रेष्ठ गुणों की प्रेरणा देता रह सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मुख्यत: तीन कारणों से
भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार किया :-
- एक, ध्वज के साथ ऐतिहासिकता जुड़ी है और यह किसी संगठन को एकजुट रखते हुए उसके विकास में सहायक होता है
- दो, भगवा ध्वज में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वह विचारधारा सर्वाधिक प्रखर रूप में प्रतिबिंबित होती है, जो संघ की स्थापना का प्रबल आधार है।
- तीन, किसी व्यक्ति की जगह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतीक भगवा ध्वज को सर्वोच्च स्थान देकर संघ यह सुनिश्चित करने में सफल रहा कि वह व्यक्ति-केंद्रित संगठन नहीं बनेगा। यह सोच बहुत सफल रही। फलस्वरूप पिछले 98 वर्षों के दौरान जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संगठन का आधार व्यापक हुआ और संघ में सर्वोच्च पद को लेकर कभी कोई विवाद नहीं हुआ। इस तरह के संगठन में शीर्ष नेतृत्व के उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष न होना आश्चर्यजनक है और बहुत सीमा तक इसका श्रेय भगवा ध्वज को गुरु मानने के डॉ. हेडगेवार के निर्णय को दिया जा सकता है।
संघ के सर्वोच्च पदाधिकारी (सरसंघचालक) सहित सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज को सादर नमन करते हैं। संघ की अनेक शाखाओं में वर्ष-पर्यंत प्रतिदिन फहराया जानेवाला भगवा ध्वज कई दशकों से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रेरणा देता रहा है। यही कारण है कि संघ के स्वयंसेवक अपनी विचारधारा के साथ बड़ी गहराई से जुड़े रहते हैं।
संदर्भ-ग्रन्थ
1. एच. वी. शेषाद्रि, आरएसएस ए विजन इन एक्शन, साउथ एशिया बुक्स, नई दिल्ली, 1998
2. नारायण हरि पालकर, भगवा ध्वज, सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020
3. श्री गुरूजी समग्र, खंड 5
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