25 जून 1990 याद है या…? : वह दिन जब आरी से गिरिजा टिक्कू को जिंदा ही काट डाला गया, आपकी आत्मा को झकझोर देगी ये घटना
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25 जून 1990 याद है या…? : वह दिन जब आरी से गिरिजा टिक्कू को जिंदा ही काट डाला गया, आपकी आत्मा को झकझोर देगी ये घटना

गिरिजा टिक्कू को उसकी धर्मिक धार्मिक पहचान के कारण जिंदा ही लकड़ी की तरह चीर दिया गया था.

by सोनाली मिश्रा
Jun 25, 2024, 07:15 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी, जिस पर हंगामा हुआ था और जिसे एकतरफा बताते हुए उस पीड़ा को नकारने का असफल प्रयास किया गया था, जो पीड़ा आज 25 जून को और भी तेजी से उभरकर आती है। यह पीड़ा यदि कोई समझ सकता है तो वह व्यक्ति जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक मजहब के नाम पर झेली जा रही हिंसा को समझता है। जिसे यह पता है कि कैसे मजहबी हिंसा ने महिलाओं को जीवित ही कभी जलने तो कभी कटने के लिए बाध्य किया। कश्मीर फाइल्स फिल्म, जिसमें दिखाया गया था कि कैसे एक कश्मीरी पंडित महिला को जिंदा ही आरे के हवाले कर दिया था और देखते ही देखते उसकी देह दो टुकड़ों में बंट गई थी। जीवित महिला, सांसें लेती महिला, धड़कता हृदय, सब कुछ एक ही क्षण में शांत हो गया था।

आज 25 जून, दिन है उस महिला को याद करने का, जिसे उसकी धार्मिक पहचान के कारण जिंदा ही इलेक्ट्रिक आरे के सामने धकेल दिया गया था और उसकी जिंदा देह को लकड़ी की तरह चीर कर रख दिया गया था। उसके पोस्टमार्टम से यह पता चला था कि जब उसे वह आरी चीर रही थी, तब उसकी साँसे चल रही थी। जो कहानियाँ इतिहास में हमने पढ़ी थीं कि कैसे इस्लाम न कुबूलने पर जिंदा ही आरी से चिरवा दिया जाता था, वह 25 जून 1990 को इस देश ने अपनी आँखों के सामने देखा था।

आखिर कौन थी गिरिजा टिक्कू और क्यों उन्हें जिंदा ही चीर डाला गया था? दरअसल वह दौर बेहद भयावह दौर था। एक ऐसा समय था जब कश्मीर में कश्मीरी पंडित अपनी धार्मिक पहचान के चलते दिनों दिन अत्याचार का शिकार हो रहे थे। उनके खिलाफ नारे लग रहे थे, उनके घर जलाए जा रहे थे और उन्हें उनकी ही भूमि से भगाया जा रहा था। यह वह दौर था, जिसे याद करके आज भी हर हिन्दू सिहर जाता है और कश्मीरी पंडित शून्य में ताकने लगते हैं, क्योंकि उस दौर में अंधेरा ही अंधेरा था।

कौन थी गिरिजा टिक्कू?

गिरिजा टिक्कू बारामूला (वराहमूल) जिले के गाँव अरिगाम की रहने वाली थी। वे एक स्कूल में लैब सहायिका के रूप में कार्यरत थी। स्कूल बांदीपोरा जिले में था और जब घाटी में हालात बिगड़े थे तब वे घाटी में नहीं थी। वे अपने परिवार के साथ सुरक्षित स्थान पर चली गईं थीं। मगर एक दिन उनके पास एक फोन आता है और उनसे कहा जाता है कि घाटी में सब सामान्य हो गया है और वे बिना किसी डर के अपने स्कूल आकर अपना वेतन ले सकती हैं।

उन्हें यह आश्वासन दिया गया कि वे सही सलामत घर चली जाएंगी और यह भी कि अब वह इलाका पूरी तरह से सुरक्षित है। किसी को कोई नुकसान नहीं होगा। मगर उन्हें यह नहीं पता था कि यह उनके लिए एक जाल था। और उनकी हर गतिविधि को बहुत ही नजदीकी से देखा जा रहा है। जब वह अपने स्कूल पहुंची और अपनी सैलेरी का चेक लिया तो वहाँ से लौटते समय अपनी एक मुस्लिम सहकर्मी के घर चली गईं और जहां से उनका अपहरण कर लिया गया और उन्हें अज्ञात स्थान पर ले जाया गया।

उनका अपहरण गाँव वालों के सामने हुआ था, मगर किसी ने भी विरोध नहीं किया। शायद “काफिर” के अपहरण में कोई बीच में नहीं जाना चाहता होगा।

उसके बाद जो भी गिरिजा के साथ हुआ, वह लिखते समय भी हाथ सिहर जाते हैं। गिरिजा कभी घर नहीं पहुंची। उनके परिवार के हाथ में आया उनका टुकड़ों में कटा हुआ शव। और जब पोस्टमार्टम में पता चला कि उन्हें जिंदा ही आरे के सामने फेंक दिया गया था, तो सारी हिम्मत ही जैसे जबाव दे जाती है।

साहित्य और विमर्श से गायब है गिरिजा टिक्कू

गिरिजा टिक्कू के साथ जो हुआ, वह इतिहास में दुर्लभ है। उनके साथ छल हुआ और फिर उन्हें जो मौत दी गई, वह भी साधारण नहीं थी। यह ख्याल कि उनकी जिंदा देह को आरी से काटा गया, देह में सिहरन भर देता है, फिर ऐसा क्या हुआ कि हिन्दी साहित्य में महिलाओं की पीड़ा पर सुदूर देशों की महिलाओं की पीड़ा लिखने वाली लेखिकाओं का ध्यान गिरिजा टिक्कू पर नहीं गया।

इस विषय में डॉ. दिलीप कौल ने अवश्य एक कविता लिखी है और वह कविता पढ़कर पता चलता है कि पीड़ा का स्तर क्या रहा होगा? जब जीवित देह के एकदम से दो टुकड़े हुए होंगे आधे आधे तो कितनी हड्डियाँ बिखरी होंगी या फिर दो कटे हुए हिस्से कैसे दिख रहे होंगे?

दिलीप कौल लिखते हैं कि गिरिजा को काटा ही इसीलिए गया था कि पीढ़ियों तक बहती रहे यह पीड़ा।

25 जून को यूं तो देश में आपातकाल थोपने के लिए स्मरण किया जाता है, परंतु 25 जून को गिरिजा टिक्कू को भी स्मरण किया जाना चाहिए, क्योंकि गिरिजा की मृत्यु साधारण नहीं थी। वह दुस्साहस की पराकाष्ठा थी, वह हिंसा की पराकाष्ठा थी और वह मजहब के नाम पर धर्म से की जा रही घृणा की पराकाष्ठा थी। वह पीड़ा की पराकाष्ठा थी। वह छल की पराकाष्ठा थी। और गिरिजा टिक्कू की मृत्यु का विमर्श में न आना संवेदनहीनता की भी पराकाष्ठा है।

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