मुस्लिम आक्रांताओं ने जब भारत भूमि पर हमले किए तो उनका मुख्य लक्ष्य था – भारत में इस्लाम का प्रभुत्व स्थापित करना और उस विशाल संपत्ति को लूटना जिसके लिए भारत विख्यात था। इस निमित्त उन्होंने युद्ध मैदान में निर्णायक जीत के बाद निरपराध एवं असहाय नागरिकों की हत्या करना, गांव और नगरों को लूटना, युद्ध के मैदान में जिन्हें नहीं मारा उन्हें बंदी बनाकर गुलाम के रूप में बेचना, स्त्रियों के सतीत्व और सम्मान को भ्रष्ट करना, मूर्तियों एवं धार्मिक स्थलों आदि को नष्ट और अपवित्र करना आदि अमानवीय कृत्यों को अंजाम दिया। क्योंकि यह सभी क्रूर कृत्य विधर्मियों के साथ इस्लाम के नाम पर किए जा रहे थे। अत: मुस्लिम आक्रन्ता अपराध बोध से मुक्त होकर शाश्वत मानवीय मूल्यों को रक्तरंजित करने में लगा रहा।
इसी मजहबी उन्माद में महमूद गजनवी ने 1025 ई. में सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया। महमूद गजनवी को मंदिर परिसर में भीषण प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। हिन्दू वीरों के बलिदान के बाद ही महमूद गजनवी मंदिर में प्रवेश कर सका। इसी मजहबी उन्मादी परम्परा में बाबर के सेनापति अमीर बाकी ने अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि पर बने भव्य मंदिर पर आक्रमण किया। श्री राम जन्मभूमि पर निर्मित भव्य राम मंदिर की रक्षार्थ हिंदुओं ने जान की बाजी लगा दी। 1,75000 हिंदू वीरों की लाशें गिरने के बात कनिंघम ने लखनऊ गजट में लिखी है, उसके बाद ही मीर बाकी राम मंदिर में प्रवेश कर सका।
इतिहास साक्षी है सोमनाथ और अयोध्या में, महादेव और मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए सनातन धर्मावलम्बी अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए आतुर होकर सतत संघर्ष करते रहे। अगर हिन्दू धर्मावलम्बी अपने सनातन प्रतीकों के लिए ऐसा नहीं करते तो अपने ‘स्व‘ की रक्षा नहीं कर पाते और जो मनुष्य अपने ‘स्व’ की रक्षा के लिए जीवन का बलिदान देने के लिए तैयार नहीं हो जाता तो उन्हें मनुष्य नहीं कहा जा सकता। ऐसी अवस्था में यदि सनातन धर्मावलंबियों में हिंदुत्व बाकी था तो लक्ष्य प्राप्ति तक अनथक संघर्ष स्वाभाविक और अनिवार्य था। फलत: संघर्ष चलता रहा, फिर भी स्वाधीनता के अभाव में सफलता प्राप्त नहीं हो सकी।
15 अगस्त 1947 को भारत स्वाधीन हुआ। जब जूनागढ़ रियासत का भारत संघ में विलय हुआ तब भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल प्रभास (जूनागढ़) गए, वहाँ सोमनाथ मंदिर के अवशेष देखकर संकल्प लिया कि भारत सरकार सोमनाथ के इस मंदिर का पुनर्निर्माण करेगी। लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल के संकल्प के कारण मंत्रिमंडल की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि सोमनाथ के ऐतिहासिक मंदिर का पुनर्निर्माण सरकारी व्यय से होगा। मंत्रिमंडल के निर्णय के बाद भी गांधी जी ने हस्तक्षेप कर अपना सुझाव दिया कि सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण सरकारी व्यय के स्थान पर लोगों से एकत्रित धन से होना चाहिए।
प्रधानमंत्री पद को समर्पित करने वाले सरदार पटेल ने गांधी जी के सुझाव को स्वीकार कर लिया। भारतीय विद्या भवन के संस्थापक, स्वतंत्रता सेनानी, ख्यातनाम साहित्यकार और शिक्षाविद के.एम.मुंशी के निर्देशन में सलाहकार समिति बनी। के. एम. मुंशी ने अपने हाथ से ट्रस्ट डीड तैयार की और पुनर्निर्माण कार्य को गति से आगे बढ़ाया। एन. वी. गाडगिल ने अपने संस्मरण में लिखा है कि मंत्रिमंडल की बैठक में मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा कि स्थल जैसा है, वैसा ही सुरक्षित रखा जाना चाहिए। मेरा मत था कि उसे (मंदिर) प्राचीन रूप दिया जाए जिससे हिंदू- मुसलमानों के मध्य अविश्वास की गांठ को काटा जा सके। इसी समय पाकिस्तानी समाचार पत्रों ने मंदिर के उद्धार कार्य के संबंध में हो- हल्ला मचाया और हमसे कहा गया कि एक और महमूद गजनवी पैदा किया जाएगा जो इस मंदिर को पुनः धवस्त करेगा।
एन. वी.गाडगिल की पुस्तक ‘गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड ‘ के अध्ययन से यह तथ्य उजागर होता है कि नेहरू जी सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के पक्ष में नहीं थे। इसकी पुष्टि के.एम.मुंशी द्वारा लिखित पुस्तक ‘पिलग्रीमेज टू फ्रीडम’ (1902 – 1950) से भी होती है। के. एम.मुंशी ने स्पष्ट लिखा है कि नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को लेकर एक से अधिक बार मेरी आलोचना की। अपनी इसी पुस्तक में आगे लिखते हैं एक कैबिनेट मीटिंग के अंत में जवाहरलाल नेहरू ने मुझे बुलाया और कहा कि – ‘आई डोंट लाइक योर ट्राइंग टू रिस्टोर सोमनाथ. इट इज हिन्दू रेविवेलिस्म’.( सोमनाथ पुनर्स्थापना का प्रयास मुझे पसंद नहीं है, यह हिंदूपुनरुत्थानवाद है। ) किंतु मैं अपने मस्तिष्क में स्पष्ट था कि सोमनाथ मंदिर सिर्फ एक प्राचीन स्मारक नहीं है यह संपूर्ण राष्ट्र के हृदय में जीवित है और इसका पुनर्निर्माण राष्ट्रीय संकल्प है। मेरी भावनाओं को बल मिलता था पटेल जी के इस व्यक्तव्य से जो उन्होंने पुरातत्व विभाग द्वारा आपत्ति करने पर प्रकट किया था।
उन्होंने कहा था इस मंदिर के संबंध में हिंदू भावना इतनी मजबूत और व्यापक है कि वर्तमान परिस्थितियों में यह संभावना नहीं है कि यह भावना केवल मंदिर के जीर्णोद्धार या उसके जीवन को बढ़ाने में संतुष्ट होगी। मूर्ति की पुनर्स्थापना ही हिंदू समाज के लिए सम्मान और भावना का विषय होगी। अतएव मंदिर के पुनर्निर्माण का कार्य चलता रहा। 1951 में मंदिर की पूरी बुनियाद और भीतरी वेदिका बनकर तैयार हो गई तब महादेव की प्राण प्रतिष्ठा का विषय आया। इस समय तक सरदार पटेल की, जिनके प्रयासों से पुनर्निर्माण कार्य चल रहा था, मृत्यु हो गई थी। अतः प्राण प्रतिष्ठा के लिए राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जी से निवेदन किया गया।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्राण प्रतिष्ठा का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। जवाहरलाल नेहरू ने प्राण प्रतिष्ठा में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जाने का विरोध किया। किंतु डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद निश्चयव्रती थे। उन्होंने अपना वचन निभाया। उन्होंने 11 मार्च 1951 को सोमनाथ मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के पुनीत अवसर पर जो उद्बोधन दिया अनुपम है। उसके कुछ निम्नलिखित अंश आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने कहा – यह पुनीत अवसर देखने का सौभाग्य इसलिए मिला है कि जिस प्रकार भगवान विष्णु के नाभि कमल में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी वास करते हैं उसी प्रकार मानव के हृदय में भी सर्जनात्मक शक्ति और श्रद्धा सर्वदा वास करती है और वह सब शस्त्राशस्त्रों से, सब सेनाओं से और सम्राटों से शक्तिशाली होती है
सोमनाथ का यह मंदिर आज फिर अपना मस्तक ऊंचा करके यह घोषित कर रहा है जिसे जनता प्यार करती है जिसके लिए जनता के हृदय में श्रद्धा और विश्वास है उसे संसार में कोई नहीं मिटा सकता। आज इस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा पुनः हो रही है और जब तक इसका आधार जनता के हृदय में बना रहेगा तब तक यह मंदिर अमर रहेगा। इस प्रकार सनातन श्रद्धा के प्रतीक ‘सोमनाथ मंदिर’ की पुण्य प्रतिष्ठा संपन्न हुई।
किंतु सोमनाथ मंदिर में महादेव की प्राण प्रतिष्ठा पर नेहरू की यह टिप्पणी-‘ सोमनाथ को पुनर्स्थापित करने का प्रयास मुझे पसंद नहीं है, यह हिंदूपुनरुत्थानवाद है’। दूसरे राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का प्राण प्रतिष्ठा में जाने का विरोध करना आदि भारतीय संस्कृति के प्रति, उनके (जवाहरलाल नेहरू) चिंतन को प्रतिबिंबित करती है। इसी सनातन विरोधी चिंतन प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए वामपंथियों और मिथ्या सेकुलरवादियों ने शिक्षा, साहित्य और कला से सम्बद्ध संस्थानों और जे.एन. यू सरीखे विश्वविद्यालयों द्वारा ऐसा पाठ्यक्रम और वातावरण देश को परोसा, जिससे देश में एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया जो अपने ही देश के धर्म और संस्कृति का विरोधी हो गया तथा मुस्लिम तुष्टिकरण करना और हिंदुत्व विरोध के साथ हिंदुओं का मान-मर्दन करना उनका प्रमुख लक्ष्य बन गया।
यही कारण रहा कि राम जन्मभूमि विवाद को समाधान होने में 72 वर्ष का समय लगा। कांग्रेस सरकार ने अपने मूल चरित्र को उजागर करते हुए न्यायालय में राम के अस्तित्व को नकारा और न्यायालय से यह याचना भी की कि राम जन्मभूमि पर फैसला न सुनाया जाए। बिहार में लालू प्रसाद यादव ने 1990 लालकृष्ण आडवाणी को सोमनाथ से अयोध्या तक की निकाली जा रही राम रथ यात्रा को बाधित किया और आडवाणी जी को गिरफ्तार कर लिया। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव सरकार ने 30 अक्टूबर 1990 तथा 2 नवंबर 1990 में रामभक्तों पर अमानवीय अत्याचार किये। इतिहास में निरपराध और निहत्थे रामभक्तों की हत्या की मिसाल मिलना मुश्किल है। भगवान बुद्ध, महावीर, अशोक और गांधी का देश इस नरसंहार का साक्षी बना।
वामपंथी इतिहासकारों ने समाज में भ्रम की स्थिति पैदा की। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सर्वप्रथम राम के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया। दूसरे पुरातात्विक और साहित्यिक स्रोतों को जानकारी को नकार कर समाज को गुमराह करने का प्रयास किया। इस संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिप्पणी प्रासंगिक है- जिन लोगों को स्वतंत्र गवाह बताकर अदालत में प्रस्तुत किया गया वे सब आपस में संबंध हैं एक ने दूसरे के मार्गदर्शन में पीएच.डी की है तो दूसरे ने तीसरे के साथ मिलकर किताब लिखी है। किंतु राम विरोधी शक्तियां इस शाश्वत सत्य को भूल गई कि राम नाम की शक्ति अपरम्पार है। राम इस राष्ट्र की एकता के प्रतीक हैं। राम भगवान के रूप में ही पूजनीय नहीं है बल्कि वह रूप है जिसके नाम पूरा देश एक सूत्र है। फलत: हिंदू समाज खड़ा हुआ 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचे का ध्वंस हुआ। राष्ट्रीयता, आत्मगौरव अपनी सांस्कृतिक मूल्यों की पुर्नस्थापना के लिए राम विरोधी सरकार बदली गई।
सर्वोच्च न्यायालय ने नियमित सुनवाई कर 9 नवंबर 2019 को ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। जिसका प्रत्येक भारतीय ने स्वागत किया। जिसके फलस्वरूप 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में भूमि पूजन कर भव्य राम मंदिर का शुभारंभ किया और 22 जनवरी 2024 को रामलला की प्राण- प्रतिष्ठा की। समूचा वातावरण ‘जय सियाराम’ के उद्घोष से गुंजायमन हो गया । यद्यपि यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि कांग्रेस और उसके प्रमुख सहयोगी दलों ने प्राण- प्रतिष्ठा समारोह में भाग लेने से इनकार कर दिया। कांग्रेस के इस निर्णय पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि जवाहरलाल नेहरू ने भी सोमनाथ में महादेव की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के जाने का विरोध किया था। इसका अर्थ यही है कि कांग्रेस भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान को पसंद नहीं करती है। ठीक भी है क्योंकि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता वामपंथियों के साथ रही है। 6 दिसंबर 1992 के बाद परिस्थितियां बदल चुकी हैं और हिंदू समाज जाग चुका है।
आज हिंदुओं में आत्मविश्वास और स्वाभिमान बढ़ा है। राष्ट्रीयता, आत्मगौरव और अपने सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए हिंदुओं में होड़ मची है। इसी कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघ संचालक माननीय मोहन भागवत जी ने प्राण प्रतिष्ठा के शुभ अवसर पर अपने उद्बोधन में कहा – ‘आज अयोध्या में रामलला के साथ भारत का स्व लौट कर आया है।’ इसमें कोई संशय नहीं है कि भारत का स्व गरिमा के साथ सांस्कृतिक पुनरुत्थान के संकल्प को अवश्यमेव सशक्त करेगा।
(लेखक का परिचय – क्षेत्रीय संगठन सह-सचिव,राजस्थान क्षेत्र, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, नई दिल्ली)
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