भारत के इतिहास लेखन पर वामपंथी इतिहासकारों का कब्जा रहा है और यह अभी तक जारी है। हालांकि अब कुछ लोगों ने तथ्यों के आधार पर उन झूठों को काटना आरंभ किया है, जो झूठ वामपंथी इतिहासकारों ने अभी तक फैलाया है। फिर भी तथ्यों के साथ छेड़छाड़ लगातार जारी है। हालिया झूठ था “नालंदा विश्वविद्यालय को ब्राह्मणों ने जलाया था!”
जो दिन भारत के लिए सबसे अधिक हर्ष का दिन होना चाहिए था, क्योंकि उसे दिन हजारों वर्ष पूर्व नष्ट हुए नालंदा विश्वविद्यालय को पुन: जीवन प्राप्त हुआ था, वह दिन कुछ वामपंथी एवं नवबौद्ध लोगों के कारण विवाद में फंस गया। यह तथ्य सर्वविदित है कि ज्ञान के इस केंद्र को क्रूर बख्तियार खिलजी ने जलाया था, फिर भी एक और विवाद आरंभ किया गया कि नालंदा को ब्राह्मणों ने जलाया था।
कथा का सार यह है कि दो ब्राह्मणों ने बारह वर्ष तक तपस्या की और फिर यज्ञ किया और उसके कारण नालंदा जैसा विश्वविद्यालय धूँ-धूँ करके जल उठा। यह बहुत ही हास्यापाद है कि जिस विश्वविद्यालय में साहित्य, खगोलशास्त्र, मनोविज्ञान, कानून, विज्ञान, दर्शनशास्त्र, गणित, अर्थशास्त्र, चिकित्सा विज्ञान, आयुर्वेद, योग जैसे विषयों की लाखों पुस्तकें थी एवं जहां पर हजारों की संख्या में विद्यार्थी विद्या अर्जित करने के लिए आते थे, उस विशाल परिसर को दो ब्राह्मणों का कथित यज्ञ जला सकता था? एक ओर कथित नवबौद्ध स्वयं के पूर्णतया वैज्ञानिक होने का दम भरते है और अंबेडकर जी के विचारों पर चलने वाला स्वयं को बताते हैं, वे इस तर्क पर विश्वास भी कैसे कर सकते हैं कि तंत्र मंत्र से इतना विशाल परिसर जल सकता है?
जहां पर नौ मंजिला पुस्तकालय था और यह भी माना जाता है कि लगभग नब्बे लाख पुस्तकें यहाँ पर उपस्थित थी। यहाँ पर प्रवेश भी बहुत कठिन माना जाता था, क्योंकि यहाँ पर प्रवेश करने वालों को नालंदा के शीर्ष आचार्यों के साथ मौखिक साक्षात्कार करना होता था और अपने ज्ञान का प्रमाण देना होता था। अब ऐसे में क्या यह संभव है कि दो ब्राह्मण प्रवेश करें, यज्ञ करें और आग लगा दें?
जबकि स्वयं बाबा साहेब अंबेडकर इस तथ्य को लिख चुके हैं कि नालंदा को और किसी ने नहीं बल्कि बख्तियार खिलजी ने जलाया था। डॉ. बाबा साहब अंबेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस के तीसरे संस्करण में बाबा साहब नालंदा ध्वंस के विषय में लिखते हैं। वे लिखते हैं कि
“मुसलमान आक्रमणकारियों ने नालंदा, विक्रमशिला, जगद्दल, ओदंतपुरी जैसे बौद्ध विश्वविद्यालयों को लूटा। उन्होंने देश में मौजूद बौद्ध मठों को तहस-नहस कर दिया। हजारों की संख्या में भिक्षु नेपाल, तिब्बत और भारत से बाहर अन्य स्थानों पर भाग गए। उनमें से बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम सेनापतियों ने उन्हें मार डाला। मुस्लिम आक्रमणकारियों की तलवार से बौद्ध पुरोहितों का किस तरह नाश हुआ, इसका विवरण मुस्लिम इतिहासकारों ने खुद ही दर्ज किया है।“
उन्होनें विसेन्ट स्मिथ के हवाले से वर्ष 1197 में नालंदा ध्वंस के विषय में लिखा है कि
““मुसलमान सेनापति, जिसने बिहार में बार-बार लूटपाट करके अपना नाम का आतंक स्थापित कर दिया था, एक बहुत ही दुस्साहसी कदम उठाते हुए हमला करते हुए राजधानी पर कब्ज़ा कर लिया। उस समय के लगभग समकालीन इतिहासकार ने 1243 ई. में हमलावर दल के बचे हुए लोगों में से एक से मुलाकात की और उससे जाना कि बिहार के किले पर केवल दो सौ घुड़सवारों के दल ने कब्ज़ा किया था, जिन्होंने साहसपूर्वक पीछे के दरवाज़े पर धावा बोला और उस जगह पर कब्ज़ा कर लिया। बड़ी मात्रा में लूटपाट की गई और ‘मुंडे सिर वाले ब्राह्मणों’ यानी बौद्ध भिक्षुओं का वध इस प्रकार पूर्ण किया गया कि जब हमलावरों ने मठों के पुस्तकालयों में पुस्तकों की सामग्री को समझाने में सक्षम किसी व्यक्ति की तलाश की, तो एक भी जीवित व्यक्ति नहीं मिला जो उन्हें पढ़ सके। हमें बताया गया है कि ‘यह पता चला कि वह पूरा किला और शहर एक कॉलेज था, और हिंदी भाषा में वे कॉलेज को बिहार कहते हैं।”
यह भी कहा जाता है कि एक बार बख्तियार खिलजी बीमार पड़ा था और जब वह ठीक नहीं हो सका तो उसे नालंदा विश्वविद्यालय के ही एक वैद्य ने ठीक किया था। इस कारण इस जलन के कारण कि उसके हकीम आदि भी ठीक नहीं कर पाए, और एक गैर-मजहबी ने ठीक कर दिया तो आतमहीनता के कारण उसने नालंदा मे आग लगा दी थी।
कथाएं कई हो सकती हैं, परंतु तथ्य एक ही रहता है और वह तथ्य यह है कि नालंदा विश्वविद्यालय जिसके ज्ञान के किस्से हजारों किलोमीटर तक फैले थे, जहां पर विदेशों से शिक्षा ग्रहण करने के लिए लोग आते थे और जहां के कारण भारत की ज्ञान परंपरा का डंका चारों ओर बजता था, उसे और किसी ने नहीं बल्कि उस बख्तियार खिलजी ने जलाया था, जिसके सिर पर इस्लाम का शासन पूरे भारत पर स्थापित करने की सनक थी और जिस सनक का खामियाजा भारत आज तक भुगत रहा है। यह कल्पना ही तथ्यों से परे है एवं हास्यास्पद है कि तंत्र-मंत्र की सहायता से ब्राह्मणों ने इतने विशाल परिसर को जला दिया।
दरअसल वामपंथ जब हावी होता है, वह सबसे पहले विवेक को और तर्क को हर लेता है, वह केवल वही लिखने और स्थापित करने का कार्य करता है, जो उसका एजेंडा चाहता है। उसके लिए तथ्यों का कोई स्थान नहीं है। उसके लिए तर्कों का कोई स्थान नहीं है। उसे बस यह पता है कि उसे समाज मे विखंडन के लिए एवं कट्टरपंथी इस्लाम को न्यूट्रल साबित करने के लिए क्या झूठ परोसना है, तो वह उसे कृत्य को कर रहा है। यह सत्य है कि तथ्यों के आलोक मे उसे पराजित होना ही पड़ता है, परंतु यह भी सत्य है कि तब तक कुछ लोग तो उससे प्रभावित हो ही जाते हैं।
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