20 जून, 712 को दाहिर अपने दो पुत्रों जयसिंह और घरसिया तथा अनेक इष्टजनों के साथ युद्ध करने आए। युद्ध के अंतिम समय में नफथा (आग का गोला फेंकने वाला अस्त्र) की चोट से दाहिर घायल हो गए। इसी अवस्था में भी वे लड़ते रहे और वीरगति को प्राप्त हुए।
-तेजभान शर्मा
मैं 43 वर्ष से पाकिस्तानी हूं तथा 900 वर्ष से मुसलमान, लेकिन सिंधी तो मैं 5,000 वर्ष से हूं। दाहिर मेरे पूर्वज थे और मुहम्मद बिन कासिम लुटेरा था।
-जी.एम. सैयद, सिंध के स्वतंत्रता सेनानी (1990 में दिए गए भाषण से)
महाराजा (दाहिर) मैं आपका ऋणी हूं, आपकी मेरे ऊपर बहुत मेहरबानियां रही हैं, किंतु हम मुसलमान हैं, हमारी तलवार मुसलमान सेना के विरुद्ध नहीं उठेगी। अगर मैं मुसलमानों द्वारा मारा गया तो मेरी मौत एक अपवित्र नीच आदमी की होगी। अगर मैं उनकी मौत का कारण बनता हूं तो दोजख की आग मेरी सजा होगी।
-मोहम्मद बिन अलाफी
(राजा दाहिर से शरण मांगने वाला )
सिंध की आजादी के लिए 32 वर्ष तक जेल में रहे जी.एम. सैयद ने राजा दाहिर को सिंध का ‘हीरो’ कहा है। 1990 में उन्होंने कहा था, ‘‘मैं 43 वर्ष से पाकिस्तानी हूं तथा 900 वर्ष से मुसलमान, लेकिन सिंधी तो मैं 5,000 वर्ष से हूं। दाहिर मेरे पूर्वज थे और मुहम्मद बिन कासिम लुटेरा था।’’ इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु (622 ई.) के बाद उनके उत्तराधिकारी खलीफाओं ने इस्लाम के नाम पर मध्य एशिया के ईरान, इराक, उत्तरी अफ्रीका आदि देशों को रौंद डाला और उनका पूरी तरह से इस्लामीकरण कर दिया। 636 ई. से 710 ई. के दौरान अरबों ने सिंध या उसके अधीन प्रदेशों पर 12 बार छोटे-बड़े आक्रमण किए, जिनका सिंध के वीरों ने मुंहतोड़ जवाब दिया। इस संघर्ष में अरबों के कई सिपहसालार, सरदार और सैनिक भारतीय तलवारों की भेंट चढ़ गए। उस समय सिंध पर चच राय नाम के ब्राह्मण राजा शासन कर रहे थे, जो बहुत वीर, साहसी और कुशल प्रशासक थे। उसके राज्य की सीमाएं पूर्व में कश्मीर, पश्चिम में मकरान (बलूचिस्तान), उत्तर में कुरदान और कीकान पर्वत तथा दक्षिण में कच्छ व समुद्र तक फैली हुई थी।
दाहिर का राज्याभिषेक
दाहिर उसी वीर चच राय के पुत्र थे। 672 ई. में चच राय का देहांत हो गया। इसके बाद उनके छोटे भाई चचन्दर सिंध के शासक बने। आठ वर्ष बाद उनकी भी मृत्यु होने के बाद दाहिर राजा बने। दाहिर ने अपने पिता के राज्य को अच्छी तरह संभाला। उनके राज्य में प्रजा खुशहाल थी। प्रदेश धन-धान्य से समृद्ध था। दाहिर के राज्य की राजधानी ‘अलोर’ (अरोड़) थी। यह बहुत सुंदर और समृद्ध शहर था। इसी अलोर या अरोड़ के निवासी कालांतर में सिंध, पंजाब व राजस्थान में फैल गए और ‘अरोड़ा’ कहलाए।
मुहम्मद बिन कासिम का प्रतिरोध
छठे खलीफा वलीद (705-715) के समय में इराक का गवर्नर हज्जाज नाम का एक क्रूर व्यक्ति था। उसने दाहिर के राज्य पर चार बार आक्रमण किए। चारों बार उसे मुंह की खानी पड़ी। उसके सेनापति सैद, मन्जाह, उबैदुल्ला तथा बुंदेल (बुजेल) आदि इन हमलों के दौरान मारे गए। हज्जाज ने पांचवीं बार सिंध पर आक्रमण की अनुमति वलीद खलीफा से मांगी। अरबों की लगातार हुई हार और धन-जन की हानि के कारण वलीद और आक्रमण नहीं चाहता था, परंतु हज्जाज के बहुत आग्रह करने पर उसे इस शर्त पर अनुमति दे दी कि वह युद्ध में होने वाले खर्च की दुगुनी राशि राजकोष में जमा कराएगा।
75 वर्ष तक अरब के खलीफाओं ने 14 बार सिंध पर असफल आक्रमण किए। इन आक्रमणों में उनको जन-धन की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। 15वीं बार हज्जाज ने अपने भतीजे और दामाद 17 वर्ष के मुहम्मद बिन कासिम को आक्रमण हेतु तैयार किया। कासिम के नेतृत्व में एक बड़ी सेना शीराज से रवाना हुई। उस सेना में 6,000 घुड़सवार, इतने ही ऊंट सवार तथा 7,000 सीरियाई लड़ाकू सैनिक थे। मार्ग में मकरान, कन्नाजबुर तथा अरमाइल (अरमाबेल) पर विजय प्राप्त करता हुआ कासिम 27 अक्तूबर, 711 को सिंध के सुप्रसिद्ध बंदरगाह नगर देवल (वर्तमान कराची) पर आ धमका। सात दिन तक उसने नगर का घेरा डाले रखा, पर उसे सफलता नहीं मिली। देवल परकोटे में एक विशाल मंदिर था, उसके गुंबद पर एक केसरिया पताका (ध्वज) लहरा रही थी। यह पताका देवल के सैनिकों और नागरिकों की प्रेरक शक्ति थी। दुर्भाग्यवश मंदिर के ही एक पुजारी ने यह रहस्य कासिम को जाकर बताया कि जब तक यह पताका नहीं गिरेगी तब तक देवल की पराजय असंभव है।
कासिम के पास बड़े-बड़े पत्थर फेंकने वाले ‘मंजनीक’ नाम के अस्त्र थे। पत्थरों की मार से पताका गिरा दी गई। अपशगुन की आशंका से जनता और सेना का मनोबल गिर गया। देवल का शासक ‘जाहीन’ भाग कर नेरुन दुर्ग (वर्तमान में हैदराबाद सिंध) चला गया। लालच में कुछ देशद्रोहियों ने कोट के दरवाजे खोल दिए। कासिम के सैनिकों ने वहां तीन दिन तक मारकाट व लूटपाट की। सैकड़ों लोगों को गुलाम बनाया गया और उन्हें मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया। महिलाओं का मान-मर्दन किया गया, मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गर्इं।
महाराजा दाहिर के पुत्र जयसिंह बहुत ही वीर योद्धा थे। कुछ समय पूर्व ही उन्होंने हज्जाज द्वारा भेजे गए सेनापति उबैदुला और बुदैल को इसी देवल की भूमि पर उनके हजारों सैनिकों के साथ धराशायी किया था। इस बार महाराजा दाहिर ने शरणागत अरब सेनापति मुहम्मद अलाफी की गलत सलाह पर जयसिंह को देवल में कासिम के प्रतिकार हेतु न भेजने का निर्णय किया। इस निर्णय ने इतिहास बदल दिया।
घर के भेदी
देवल विजय के बाद कासिम ने नेरुन का घेरा डाल दिया। वहां का शासक एक बौद्ध ‘भांडारकर सामानी’ था। उसने बिना युद्ध किए आत्मसमर्पण कर दिया। यहां तक कि उसने अरब सेना के लिए खाद्यान्न की आपूर्ति भी की। नेरुन विजय के बाद कासिम क्रमश: शीस्तान (शिव स्थान), बुधिया के सीसम दुर्ग, इश्मा का दुर्ग आदि को विजय करता हुआ रावर के दुर्ग की तरफ बढ़ा। यह दुर्ग सिंधु नदी के पार दूसरे किनारे पर था, जहां महाराजा दाहिर तथा उनके बड़े बेटे जयसिंह कासिम के साथ युद्ध के लिए सन्नद्ध थे।
कासिम बेतगढ़ के पास सिंधु नदी पार कर रावर जाना चाहता था। बेत के शासक ने नावों का प्रबंध कर कासिम की सेना को सिंधु नदी पार करने में मदद की। इन्हीं दिनों सिंध के एक प्रमुख ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि युद्ध में मुहम्मद बिन कासिम की जीत होगी और महाराजा दाहिर की पराजय। इस कारण धर्मभीरु जनता एवं सैनिकों पर मनोवैज्ञानिक असर हुआ। हार की आशंका से उनका मनोबल गिरा। देवल से रावर पहुंचने तक कासिम को 8 माह का समय लगा। विभिन्न दुर्गों पर अरब सेना की अपेक्षा बहुत कम सैनिक होने पर भी भारतीय सेना ने अरबों का जबरदस्त प्रतिरोध किया। लेकिन देशद्रोहियों और भेदियों के कासिम से मिल जाने के कारण भारतीय सैनिकों को हार का सामना करना पड़ा। कासिम की सेना ने जीतूर नामक स्थान पर अपना पड़ाव डाल दिया। महाराजा दाहिर ने भी रावर के किले से निकल कर कासिम के पड़ाव से एक कोस की दूरी पर अपना डेरा डाला।
अहसान फरामोश अलाफी
कुछ वर्ष पूर्व एक अरब सरदार मुहम्मद बिन अलाफी ने हज्जाज के अत्याचारों से परेशान होकर अपने कबीले के 500 साथियों के साथ महाराजा दाहिर के पास शरण ली। यह जानकर हज्जाज ने महाराजा को पत्र लिखकर मांग की कि अलाफी को उसके साथियों के साथ वापस उनके हवाले करे, लेकिन महाराजा दाहिर ने इनकार कर दिया। जब दाहिर को मालूम हुआ कि कासिम ने अपनी सेना के साथ सिंधु नदी पार कर ली है और वह रावर दुर्ग की ओर बढ़ रहा है तो उन्होंने अलाफी को बुलाकर कहा, ‘‘अलाफी! हमने तुम्हें संकट के समय संरक्षण दिया और सम्मानित पद पर रखा है। अरब सेना रावर दुर्ग की ओर बढ़ रही है, तुम अरब सेना के बारे में अच्छी तरह परिचित हो इसलिए तुम हमारी सेना के साथ आगे रहो।’’ इस पर अलाफी ने महाराज को उत्तर दिया, ‘‘महाराजा मैं आपका ऋणी हूं, आपकी मेरे ऊपर बहुत मेहरबानियां रही हैं, किंतु हम मुसलमान हैं, हमारी तलवार मुसलमान सेना के विरुद्ध नहीं उठेगी। अगर मैं मुसलमानों द्वारा मारा गया तो मेरी मौत एक अपवित्र नीच आदमी की होगी। अगर मैं उनकी मौत का कारण बनता हूं तो दोजख की आग मेरी सजा होगी। अगर मैंने आपको कोई उचित सलाह दी तो अरब सेना मुझे नहीं छोड़ेगी। इसलिए मुझे शांतिपूर्वक जाने दें।’’ महाराजा ने उदारता दिखाते हुए उसे जाने दिया। इतिहासकार बताते हैं कि बाद में उसने अलोर दुर्ग का दरवाजा अरब सेना के लिए खुलवाने का नीच कार्य किया था।
महाराजा दाहिर का बलिदान
16 जून, 712 ई. को युद्ध प्रारंभ हुआ और इतिहासकारों के अनुसार गुरुवार 20 जून, 712 ई. तक पांच दिन चला। पहले तीन दिन तक दोनों ओर के अग्रिम दस्तों में सुबह से शाम तक युद्ध चला। चौथे दिन महाराजा दाहिर 5,000 सैनिकों और हाथियों के साथ युद्ध स्थल पर आए और अरबों को पीछे धकेल दिया। पांचवें दिन अर्थात् 20 जून को दाहिर अपने दो पुत्रों जयसिंह और घरसिया तथा अनेक इष्टजनों के साथ युद्ध करने आए। युद्ध के अंतिम समय में नफथा (आग का गोला फेंकने वाला अस्त्र) की चोट से दाहिर घायल हो गए। इसी अवस्था में भी वे लड़ते रहे और वीरगति को प्राप्त हुए।
महारानी का संघर्ष और जौहर
महाराजा की मृत्यु के बाद जयसिंह, महारानी, मंत्री सियाकर तथा बचे हुए सैनिक रावर दुर्ग में इकट्ठे हुए। दाहिर के मंत्री की सलाह पर जयसिंह नई शक्ति बटोरने के लिए सुदृढ़ दुर्ग ब्राह्मणाबाद चले गए। रावर दुर्ग में महारानी के नेतृत्व में 15,000 सैनिकों ने अरब सेना का मुकाबला किया। किले को ध्वस्त होते देखकर महारानी ने अपना तथा सैकड़ों अन्य स्त्रियों का सतीत्व बचाने के लिए जौहर कर लिया। कासिम ने रावर पर कब्जा कर लिया। अब वह ब्राह्मणाबाद की ओर मुड़ा, जहां जयसिंह अपनी शक्ति बटोरने में लगे थे। छह माह तक ब्राह्मणाबाद का घेरा चलता रहा। आखिर में जयसिंह को ब्राह्मणाबाद छोड़कर रेगिस्तान की ओर (कुरिज की ओर) पलायन करना पड़ा।
कासिम ने अब सिंध की राजधानी अलोर को विजय करने के लिए प्रस्थान किया। वहां का शासक दाहिर का एक अन्य पुत्र कूफी था। उसे महाराजा दाहिर की मृत्यु का पता नहीं था। उसने कई दिनों तक अरबों से कड़ा मुकाबला किया। यहां जब महाराजा की मृत्यु का संदेश मिला तो अलोर की जनता हतोत्साहित हो गई। कूफी और उसकी सेना में भी निराशा छा गई। फिर भी वह अरब सेना के विरुद्ध संघर्ष करता रहा। इतिहासकार पी.एन. ओक के अनुसार एक दिन मुहम्मद अलाफी (जिसे दाहिर ने शरण दी थी) ने धोखे से दुर्ग का दरवाजा खुलवा दिया। अरब सेना दुर्ग में घुस गई। कूफी ने अलोर त्याग दिया और अलोर पर भी अरब सेना का अधिकार हो गया।
मुलतान में अंतिम संघर्ष
अरब सेना अब अंतिम महत्वपूर्ण नगर मुलतान की ओर बढ़ी। रास्ते में धोलकुंडा के दुर्ग पर 7 दिन तक युद्ध चला। यह दुर्ग फतह कर अरब सिक्काह पहुंचे, जहां का शासक दाहिर परिवार का योद्धा बझरा था। उसने अरब सेना का मुकाबला किया। 17 दिन चले संघर्ष में अरबों के 20 प्रसिद्ध सेनापति तथा 215 सीरियाई योद्धा मारे गए। हिंदू सेना दुर्ग से अरबों पर निरंतर तीर और पत्थर बरसाती रही। यहां भी एक देशद्रोही ने दुर्ग में पानी पहुंचाने के स्रोत का पता कासिम को बता दिया। पानी का मार्ग रोक दिया गया। फलस्वरूप प्यास के मारे दुर्ग रक्षकों को अंत में आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस प्रकार सिंध का अंतिम सुदृढ़ दुर्ग भी अरबों के हाथ लग गया। यहां 6,000 लोगों का वध किया गया। मुसलमानों को यहां से अपार संपत्ति मिली।
सिंध की लूट
कासिम को पूरा सिंध जीतने में लगभग 15 माह लगे। छोटे-बड़े 70 शासकों से उसको संघर्ष करना पड़ा। हर विजित स्थान पर हत्या, महिलाओं-बच्चों को गुलाम बनाना, उनका मत परिवर्तन, महिलाओं का शीलभंग, हिंदू व बौद्ध मंदिरों को ध्वस्त कर मस्जिदें खड़ी करना, यह कार्यक्रम समान रूप से चला। धन की लूट भी खूब हुई। इतना सब होने के बाद भी हिंदुओं ने 50-60 वर्ष के अंदर सिंध में अरब राज्य को लगभग समाप्त कर दिया। अरबों का सिंध में केवल नवनिर्मित शहर मंसूरा में अस्तित्व रह गया। हजारों मुसलमान बने लोगों को वापस हिंदू बनाया। इसके बाद आगामी 300 वर्ष तक सिंध पर इस्लाम का कोई बड़ा आक्रमण नहीं हुआ। (‘पाथेय कण’ से साभार)
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