एक दिन अचानक चैनलों की एक ब्रेकिंग समाचार ध्यान खींच लिया। समाचार सीधा सपाट था पर निहितार्थ बहुत महत्वपूर्ण था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहनराव भागवत का कथन – ”
‘‘आरएसएस का शताब्दी वर्ष मनाने की कोई जरूरत नहीं है। संघ इसे संगठन का अहंकार बढ़ाने के लिए नहीं कर रहा है। संघ किसी संगठन के 100 साल पूरे होने का जश्न मनाने और कुछ उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने नहीं आया है।” इस भाषण की चर्चा और इस विषय पर विमर्श शायद लोकसभा चुनाव की चकल्लस में नहीं हो पाया। अभी नहीं तो फिर कभी यह निर्णय या विचार राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनेगा।
दुनिया में कुछ सामाजिक संगठन और राजनीतिक दल के 100 साल पूरे होने के अवसर पर अलग अलग प्रकार उत्सव और गतिविधियों के उल्लेख आते हैं। दुनिया के सबसे बड़े सामाजिक संगठन के 100 साल पूरे होने पर कोई उत्सव नहीं ! जिस संगठन के स्वयंसेवक दुनियाभर के श्रेष्ठ वैज्ञानिक,कलाकार,राजनेता, साहित्यकार, पत्रकार, न्यायाधीश, प्रशासनिक अधिकारी जैसे अलग अलग भूमिका में कार्यरत सम्मानित नागरिकों के साथ ही विद्यार्थी, किसान, मजदूर भी उसी प्रतिबद्धता के साथ स्वयंसेवक होने का गौरव करते हैं। ऐसा संगठन जब अपनी जन्मशताब्दी में पहुंचता है तो कोई उत्सव नहीं ! कोई दुन्दुवी नहीं ! कोई जुलूस और जलसा नहीं !
किसी व्यक्ति या संगठन के जन्म के 100 वर्ष पूरे होना निश्चित ही आनंद और उत्सव का कारण बनते हैं। वहीं दूसरी ओर यदि यह काल गौरवपूर्ण कर्तव्यनिष्ठा से भरा हुआ हो तो स्वाभाविक ही यह गौरव की अनुभूति अहंकार में परिवर्तित होते देर नहीं लगती। व्यक्ति और संगठन की सोच में यहां बड़ा बारीक अंतर आ जाता है। यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विलक्षण हो जाता है। दुनिया के कुछ लेखकों और रिसर्च स्कालरो ने संघ के बारे अध्ययन कर दुनिया में अलग और अद्वितीय कार्यपद्धति वाला संगठन संघ को पाया, लिखा है।
संगठन किसी व्यक्ति मात्र का नहीं बल्कि व्यक्तियों के सामूहिक चिंतन की उद्देश्यपूर्ण अभिव्यक्ति और गतिविधियों से बनता है। संघ, संघ के लिए नहीं बना। संघ “स्वयसेवकों” के लिए भी नहीं बना है। यही कारण है कि संघ शाखा को अपना कार्य का आधार मानता है और शाखा को स्वयंसेवक के व्यक्तित्व के निर्माण का उपकरण। संघ स्वयंसेवक के आर्थिक नियोजन का जरिया नहीं है। संघ स्वयंसेवक के संपूर्ण व्यक्तित्व को समाज उपयोगी बनाते रहने की प्रक्रिया है। संघ समाज के सशक्तिकरण के लिए बना है।
संघ की विचारधारा भी कोई अलग किसी पुस्तक या किसी व्यक्ति के विचार से उपजी नहीं है। संघ की विचारधारा भारतीय समाज की ही जीवन शैली ही है। एक संगठन के नाते संघ की एक विशिष्ठ कार्यपद्धति जरूर है। इस कार्यपद्धति में भी भारतीय विचार के ही अनुभूति होती है। संघ किसी “वाद” का भी अनुसरण नहीं करता। संघ ठहराव भी नहीं है। संघ कोई पंथ भी नहीं है। संघ कोई पीठ और मठ भी नहीं है।
संघ समाज में एकरस होकर समाज को सशक्त करने में जुटा है। समाज जीवन के विविध आयामों पर कार्यों की एक लंबी श्रंखला है फिर भी वह इसके गुणगान में नहीं बल्कि ऐसा करते रहने में भरोसा कर रहा है।
सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा, ‘‘इस समाज की जीत अन्य समाज को सशक्त बनाएगी और (अंतत:) जगत को लाभ पहुंचाएगी. आरएसएस ऐसे लोगों को तैयार करना चाहता है, जो इस तरह से समाज में सुधार लाने की कोशिश करें. उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने की जरूरत नहीं है.”
वे अपने विषय पर दृढ़ता से आगे बढ़ते हुए कहते हैं कि ‘‘..संगठन के लिए अब स्थिति अनुकूल है. हालात कैसे भी हों आरएसएस स्वयंसेवकों को अपना काम करते रहना चाहिए.”
जाने माने विचारक और चिंतक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने संघ के पचास साल पूरे होने के संदर्भ एक संबोधन कहा था कि “….संघ की सीमाएं और समाज की सीमाएं सम व्याप्त हो जाएं। संघ और समाज सम व्याप्त हो जाएं। संघ समाज में विलीन हो जाए। समाज संघ में। संघ और समाज यह द्वैत भी समाप्त हो जाए…।”
ठेंगड़ी जी थोड़ा और स्पष्ट करते हैं कि “… जब भी कोई जख्म भर जाता है तो उसके ऊपर झिल्ली स्वयं ही निकल जाती है राष्ट्रीय स्वयंसेवक नाम की जो झिल्ली है स्वयं ही निकल जाए। संघ समाज एकात्म हो जाए यह एक आदर्श कल्पना शुरुआत से रही है।”
मुझे एक वरिष्ठ प्रचारक का कथन आज भी स्मृति पटल पर है उन्होंने कहा था कि “संघ, संघ के लिए नहीं बना। समाज के सशक्तिकरण और अपने उद्देश्य को पूरा करते जाना और करते-करते स्वयं को पीछे रखना और एक समय ऐसा लाना कि संघ की आवश्यकता ही समाज को ना हो।” समाज की निर्भरता संघ पर हो या समाज संघ केंद्रित हो जाए, ऐसा स्वयं संघ भी नहीं चाहता।
श्री मोहन भागवत जी का कथन एक प्रकार गीता के भावार्थ को प्रगट करने वाला है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जो संदेश अर्जुन को निमित्त मान सृष्टि को दिया था। उसी का अनुपालन ही तो है।
जन्म शताब्दी के वर्ष पर कोई समारोह या उत्सव नहीं करना, यह मात्र कोई अनामिकता नहीं है बल्कि संघ का अपने होने के अहंकार से भी मुक्त रहना है। यह विनम्रता के अहंकार को तजने का आहवान है। अधूरे कार्य को पूर्ण करने का दिग्दर्शन है। अपने लक्ष्य और उद्देश्य की विनम्र अभिव्यक्ति भी और पुनरावलोकन भी।
(लेखक मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश मंत्री हैं)
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