गत 13 और 14 अप्रैल को नई दिल्ली में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान परंपरा, इतिहास-लेखन तथा इतिहास दर्शन’ विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित हुई। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना एवं माधव संस्कृति न्यास के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस संगोष्ठी में देशभर के युवा इतिहासकारों ने भाग लिया। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह श्री अरुण कुमार का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा कि भारत के इतिहास को भारतीय परिप्रेक्ष्य में लिखने की आवश्यकता है। उन्होंने भारतीय ज्ञान परंपरा के गौरवशाली इतिहास को सामने रखा और बताया कि कैसे द्वेषपूर्ण औपनिवेशिक योजना और इतिहास लेखन द्वारा इसका विकृतिकरण किया गया।
भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष डॉ. चमूकृष्ण शास्त्री ने इतिहास लेखन में प्राथमिक स्रोतों के महत्व पर प्रकाश डाला और स्थानीय इतिहास लेखन पर ध्यान केंद्रित करने का आग्रह किया। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने भारतीय ज्ञान परंपरा के अध्ययन के महत्व पर बल दिया। इस दिन के विशेष सत्र में ‘आर्गनाइजर’ के संपादक प्रफुल्ल केतकर, प्रो. उमेश कदम और प्रो. रजनीश शुक्ल का मार्गदर्शन मिला। संगोष्ठी के पहले दिन 4 सत्रों में 34 शोधपत्र प्रस्तुत किए गए।
संगोष्ठी के दूसरे दिन दो सत्र हुए और इनमें 24 शोध पत्र प्रस्तुत किए गए। इस दिन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि सभी सत्रों के दौरान राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले उपस्थित रहे। उन्होंने सभी वक्ताओं के विचारों को सुना। समापन सत्र में इतिहासकारों का मार्गदर्शन करते हुए दत्ता जी ने श्री धर्मपाल की पुस्तक ‘रमणीय वृक्ष’ की भांति भारतीय ज्ञान परंपरा पर गुणात्मक और वस्तुनिष्ठ इतिहास के लेखन पर जोर दिया। उन्होंने इतिहास लिखने में प्रौद्योगिकी की भूमिका के बारे में बात की।
उन्होंने भारतीय इतिहास के कई पहलुओं, जैसे सैन्य इतिहास, भारत के आर्थिक इतिहास की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि इन्हें इतिहास लेखन में उचित स्थान और महत्व प्राप्त नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि विकृत इतिहास लिखने वालों ने भारत, सत्य और मानवता के साथ अन्याय किया है। इसलिए अपने देश के इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता है। ‘पाञ्चजन्य’ के संपादक हितेश शंकर ने कहा कि सत्ता को सहारा देने के लिए कुछ लोग भ्रामक इतिहास लिखते हैं। इतिहास सत्य की टेक लेता है, सत्ता की नहीं। सत्य की टेक होगी तो उसमें धर्म आएगा ही। उन्होंने इतिहास के राजनीतिक आयाम, इतिहास लेखन की सामाजिक आवश्यकता और इतिहास लेखन की गुणवत्ता पर भी चर्चा की।
प्रो. रवींद्र कान्हड़े ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रमुख बिंदुओं के बारे में बात की। उन्होंने भारतीय ज्ञान परंपरा को बढ़ावा देने के लिए संरचनात्मक परिवर्तन के साथ-साथ पाठ्यक्रम में भी बदलाव पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि 1830 से 2020 तक एक ‘कथा’ चलती रही कि भारत के पास जो कुछ भी है, वह बाहरी दुनिया से आया है। उन्होंने इस झूठी धारणा को खंडित करने और हमारी अपनी ज्ञान परंपरा को उजागर करने और विश्व में इसके प्रचार-प्रसार की अपील की।
अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय संगठन सचिव डॉ. बालमुकुंद पांडे ने कहा कि भारत के इतिहास में भारत ही नहीं है। उन्होंने कहा कि जिस इतिहास में हमारे पूर्वज, हमारे संघर्ष, हमारा शौर्य, हमारी संस्कृति, हमारा दर्शन न हो, उसे हम क्यों पढ़ें? उन्होंने कहा कि जब इतिहास में भारतीय दृष्टि होगी, तब हमें भगत सिंह जैसे योद्धा ‘आतंकवादी‘ नहीं लगेंगे। इसलिए इतिहास संकलन योजना भारतीय दृटिकोण से इतिहास का संकलन कर रही है।
इस अवसर पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. नागेश्वर राव, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मुरली मनोहर पाठक, भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद के सदस्य सचिव प्रो. सच्चिदानंद मिश्र जैसे वि द्वानों के अलावा बड़ी संख्या में युवा इतिहासकारउपस्थित थे।
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