प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जीवन-मंत्र है—‘कुछ भी असंभव नहीं।’ यदि आप अपने जीवन की राह पर सदैव कार्यरत और सकारात्मक इरादों के साथ सामने आने वाली बाधाओं का सामना करते हैं तो विजय निश्चित है।
भारतीय जनता पार्टी के लिए दक्षिण भारत के राज्य वास्तव में एक कठिन चुनौती रहे हैं। लेकिन, इस बार लगता है मोदी ने दक्षिण भारत में चुनावी स्थितियों को अपनी दिशा में मोड़ने का निश्चय कर लिया है। यही नहीं, 2024 का लोकसभा चुनाव भाजपा के संबंध में दक्षिण की धारणा को परिवर्तित करने में भी अहम भूमिका निभा सकता है।
विशेषकर तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में इस बदलाव की संभावना अधिक है, जो हमेशा से मोदी के ‘जादू’ से अप्रभावित दिखे हैं। कहते हैं कि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं, फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि क्षेत्रीय दलों की भूमिका प्रमुख होती है। दक्षिण में कुल मिलाकर 130 लोकसभा सीटें हैं। इसमें तमिलनाडु (39), कर्नाटक (28), आंध्र प्रदेश (25), तेलंगाना (17), केरल (20) और पुढुचेरी (1) शामिल हैं।
पिछले लोकसभा चुनावों में, कांग्रेस ने दक्षिण से 28 लोकसभा सीटें जीतीं थीं- केरल में 15, तमिलनाडु में 8, तेलंगाना में 3, कर्नाटक में 1 और पुदुचेरी में 1, जबकि भाजपा ने कर्नाटक में 25 और तेलंगाना में 4 सीटें जीती थीं। लेकिन मोदी चुनौतियों से विचलित नहीं दिखते। उन्होंने यह सुनिश्चित किया है कि भाजपा तमिलनाडु में द्रमुक और अपेक्षाकृत कमजोर अन्नाद्रमुक जैसे स्थापित दलों से मुकाबला करेगी। इसलिए, भाजपा ने कर्नाटक में जनता दल (सेक्युलर) के साथ एक व्यावहारिक गठबंधन बनाया है, ताकि वोक्कालिंगा और लिंगायत जैसे प्रमुख समुदायों के वोटों के विभाजन से कांग्रेस को कर्नाटक विधानसभा चुनावों में जीत से ज्यादा फायदा न हो। भाजपा तेलंगाना में पिछले विधानसभा चुनाव में अपने बढ़े हुए वोट प्रतिशत का फायदा उठाने में जुटी है। वाईएसआरसीपी प्रमुख जगन मोहन रेड्डी के साथ मोदी के अच्छे समीकरण के बावजूद भाजपा ने आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और पवन कल्याण की जन सेना पार्टी के साथ गठबंधन करने का एक कठिन निर्णय लिया। मोदी के नेतृत्व ने कार्यकर्ताओं को केरल में सत्तारूढ़ वाम मोर्चे के साथ-साथ कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ के खिलाफ कड़ी टक्कर के लिए तैयार किया।
यह है राज्यवार स्थिति
कर्नाटक: दक्षिणी राज्यों में 2023 के विधानसभा चुनाव में कर्नाटक में मिले झटके के बावजूद भाजपा ज्यादा से ज्यादा सीट हासिल करने की प्रबल संभावना के लिए जमीन तैयार कर रही है। कर्नाटक में 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 28 में से 25 सीटें हासिल कीं, वहीं कांग्रेस को बस एक सीट मिली। सभी की निगाहें अब कांग्रेस पर हैं कि पार्टी अपनी विधानसभा जीत (135 सीटें और 42.88% वोट) को लोकसभा चुनावों में अपनी सीटें बढ़ाने के लिए किस सीमा तक उपयोग कर पाएगी और क्या उसके मुकाबले भाजपा अपने विधानसभा प्रदर्शन (66 सीटें और 36% वोट) से बेहतर परिणाम निकाल पाएगी? विधानसभा चुनाव में हार (19 सीटें और 13.29% वोट) के बाद देवेगौड़ा के नेतृत्व वाले जनता दल (सेक्युलर) की भूमिका ने चुनावी दंगल को रोमांचक बना दिया है। देवेगौड़ा के साथ बने गठबंधन से अब पारंपरिक त्रिकोणीय मुकाबला कांग्रेस बनाम भाजपा-जेडीएस की सीधी लड़ाई में बदल गया है, जिसमें भाजपा को दो मतदाता आधारों-वोक्काल्ािंगा और लिंगायत को एक साथ लाने की उम्मीद है।
भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य पार्टी का नेतृत्व येदियुरप्पा खेमे को वापस सौंपकर अपनी पुरानी गलती सुधारी है। माना जा सकता है कि मोदी का चेहरा लोकसभा चुनावों में भाजपा को शीर्ष पायदान पर पहुंचने में मदद कर सकता है क्योंकि विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद प्रधानमंत्री राज्य के मतदाताओं के बीच लोकप्रिय बने हुए हैं। कांग्रेस के लिए सिद्धारमैया-डीके शिवकुमार गठबंधन को यह सुनिश्चित करना होगा कि पार्टी मतदाताओं के आपसी समीकरण में सद्भाव बरकरार रखे। कांग्रेस के कई मंत्रियों ने लोकसभा चुनाव में उतरने से इंकार करते हुए अपने परिवार के सदस्यों के लिए टिकट सुनिश्चित किए थे।
तमिलनाडु: भाजपा के तमिलनाडु प्रमुख के. अन्नामलाई की सफल पदयात्रा और उसके बाद मोदी की यात्राओं ने स्थानीय लोगों के बीच प्रधानमंत्री और भाजपा के प्रति दिलचस्पी जगाई है। तमिलनाडु के चुनाव से यह स्पष्ट हो जाएगा कि क्या द्रमुक और कांग्रेस सहित उसके सहयोगी पिछले लोकसभा चुनाव (39 में से 38 सीटें और 53.53% वोट) और 2021 के विधानसभा चुनाव (234 में से 159 सीटें और 45.38% वोट) के अपने व्यापक प्रदर्शन को दोहरा सकेंगे?
इस बार, एमके स्टालिन सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी गंभीर मुद्दे और भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के आरोप उभर रहे हैं। सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के साथ तस्करों के एक अंतरराष्ट्रीय ड्रग नेटवर्क की भी कथित संलिप्तता की खबर सुर्खियों में रही है। द्रमुक के शीर्ष मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों को छुपाने के लिए सनातन धर्म पर हमला करने की उदयनिधि स्टालिन की कोशिशों ने पार्टी की छवि को संवारने के बजाय और बिगाड़ दिया है।
अन्नाद्रमुक जिसे मुख्य विपक्षी दल माना जाता है, का ध्यान भाजपा प्रदेशाध्यक्ष अन्नामलाई को हराने पर अधिक है। ऐसी चर्चा है कि द्रमुक अन्नाद्रमुक की मदद करने की कोशिश कर रही है, जिसने अल्पसंख्यक वोट पाने की उम्मीद में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को छोड़ दिया था। अन्नामलाई अपनी पदयात्रा के जरिए कई जिलों में मतदाताओं तक पहुंचने की मोदी की योजना को अंजाम देने में कामयाब रहे हैं। अन्नामलाई के नेतृत्व में भाजपा को सत्तारूढ़ द्रमुक से मुकाबला करने के लिए नई ऊर्जा मिल गई है। उधर मोदी ने ‘काशी तमिल संगमम’ सहित भाजपा-हिंदुत्व और तमिल परंपरा के बीच एक भावनात्मक और सांस्कृतिक संबंध जोड़ने का प्रयास
किया है।
तेलंगाना: मोदी पर कांग्रेस की अपनी विधानसभा जीत (119 में से 64 सीटें और 39.4% वोट) के आधार पर अपनी रणनीतिक बढ़त बनाने और उससे उपजे आत्मविश्वास का कोई तनाव नहीं है। भाजपा दावा कर रही है कि तेलंगाना में ज्यादा बदलाव नहीं दिखेगा क्योंकि कांग्रेस बीआरएस से अलग नहीं है, जो अभी भी अपनी हार से उबरने में सक्षम नहीं है।
भाजपा के लिए सकारात्मक बात यह है कि वह विधानसभा चुनावों में तीसरे स्थान पर रही। हालांकि, इसने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन (8 सीटें और 13.9% वोट) किया। भाजपा ने 2019 में 17 में 4 लोकसभा सीट जीत कर शानदार प्रदर्शन किया था, जिससे तेलंगाना एक संभावनापूर्ण क्षेत्र बन गया। तेलंगाना की सामाजिक बनावट भाजपा को अपनी बात कहने के लिए एक सशक्त मंच थमा रही है। इसकी मुस्लिम आबादी लगभग 15% है, जो निजामाबाद जैसे जिलों में केंद्रित है, जहां भाजपा ने 2019 में पूर्व मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव की बेटी के.कविता को हराया था।
मुसलमानों का प्रतिनिधित्व अब तक असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व में एक मुस्लिम पार्टी ने किया है। उनके भाई अकबरुद्दीन ओवैसी हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ आपत्तिजनक बयान देते रहे हैं। सामाजिक तौर पर तेलंगाना के मुसलमान एकजुट नहीं हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि मोदी के नेतृत्व में विकास की प्रशंसा करने और उत्तर-दक्षिण बंटवारे की कार्यनीति का विरोध करने के बाद तेलंगाना के सीएम रेवंत रेड्डी पर अब कांग्रेस के शीर्ष नेता विश्वास नहीं करते। हाल ही में मोदी की तेलंगाना यात्रा के दौरान रेवंत रेड्डी का मोदी को ‘बड़े भाई’ के रूप में संबोधित करना राहुल गांधी को पसंद नहीं आया। भाजपा ने ओवैसी को पछाड़ने के लिए माधवी लता को उनके खिलाफ मैदान में उतार कर एक अच्छा रणनीतिक कदम उठाया है। माधवी लता हैदराबाद में, खासकर मुस्लिम समुदाय समेत महिला मतदाताओं में तेजी से लोकप्रिय हो रही हैं।
आंध्र प्रदेश: भाजपा के टीडीपी और अभिनेता पवन कल्याण के नेतृत्व वाली जन सेना पार्टी के बीच औपचारिक रूप से गठबंधन में शामिल होने से लोकसभा चुनाव दो क्षेत्रीय दलों, जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआरसीपी और टीडीपी के बीच का दंगल बन गया है, जिसमें कांग्रेस तेलंगाना और कर्नाटक की सफलता के आधार पर समर्थन की उम्मीद लगाए बैठी है। कांग्रेस ने वाईएसआरसीपी को तोड़ने की उम्मीद में जगन की बहन वाईएस शर्मिला को शामिल किया है। आंध्र प्रदेश में 25 लोकसभा और 175 विधानसभा सीटें हैं, जिसमें भाजपा को अपना खाता खुलने की उम्मीद है। जगन की पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि शर्मिला अपने भाई जगन पर हमला कर रही हैं, लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी को नुकसान से बचाने के लिए जवाबी हमले से परहेज किया है। जो भी दल आंध्र प्रदेश जीतेगा वह मोदी और भाजपा के साथ अच्छे संबंध रखना चाहेगा। इस विषय का यही सार है।
केरल: दरअसल, कांग्रेस का पारंपरिक आधार 44% मुस्लिम-ईसाई क्षेत्रों पर टिका है। 2021 के विधानसभा चुनावों में सीएम पिनरई विजयन को दूसरा कार्यकाल मिलने के बावजूद यह स्थिति बरकरार है। इसलिए राज्य कांग्रेस ने एआईसीसी नेतृत्व को वामपंथियों की तर्ज पर अयोध्या राम मंदिर उद्घाटन कार्यक्रम में शामिल होने से मना किया था। पिनरई विजयन शासन के दूसरे कार्यकाल में उभरे कई विवादों ने मार्क्सवादियों को मजबूर कर दिया है कि वे मुसलमानों को लुभाने में जुट जाएं। मोदी के निर्देश पर भाजपा भी वहां पांथिक समीकरण का ध्यान रख रही है। उत्तरी केरल के वायनाड लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र पर पूरे देश की नजर टिकी हैं। क्या राहुल गांधी इस सीट से फिर चुनाव लड़कर विजय पाएंगे? राहुल के अमेठी से स्मृति ईरानी के खिलाफ चुनाव लड़ने का सवाल (जहां वह 2019 में हार गए थे) वायनाड में फिर से एक दिलचस्प चर्चा बना गया है। भाजपा की नजर 18 % ईसाई वोटों पर है और वह अपनी चुनावी संभावनाओं को सफल परिणाम देने के लिए विभिन्न चर्च प्रमुखों के साथ संबंध बनाने की कवायद में है। एक बात स्पष्ट है कि कथित ‘उत्तर-दक्षिण राजनीतिक विभाजन’ समाप्त हो रहा है। पहले, इसका कारण 2023 के विधानसभा चुनाव में कर्नाटक और तेलंगाना में भाजपा के खराब प्रदर्शन और कांग्रेस की बड़ी सफलता बताया जाता था। तब यही तर्क प्रचारित होता रहा कि मोदी की विकास योजना और भाजपा की हिंदुत्व राजनीति दक्षिण में सफल नहीं हो सकती। तर्क यह दिया गया कि दक्षिण की 130 लोकसभा सीटों को भाजपा आसानी से हासिल नहीं कर सकती, चाहे मोदी 2024 के लोकसभा चुनावों में कितनी भी कोशिश कर लें।
यह सच है कि ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस को दक्षिण में तब शरण मिली, जब 1977 में आपातकाल की ज्यादतियों के कारण उत्तर में उसे हार का सामना करना पड़ा, जो इंदिरा गांधी की पराजय का कारण बना। यहां तक कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में जब कांग्रेस अपनी सबसे खराब स्थिति में थी, तब भी दक्षिण गांधी परिवार के साथ खड़ा रहा। हमने यह भी देखा कि 2004 और 2009 के आम चुनावों में भी दक्षिणी मतदाताओं ने कांग्रेस पार्टी को भरपूर समर्थन दिया। लेकिन आज दक्षिण की जमीनी हकीकत बदल चुकी है। इसमें कोई शक नहीं कि 2023 में कर्नाटक और तेलंगाना की जीत ने कांग्रेस को बेहद जरूरी बल प्रदान किया है। भाजपा का कर्नाटक में सबसे पहले कमल खिला था, लेकिन इस बार विधान सभा चुनाव हार गई; क्योंकि वह अनुभवी बीएस येदियुरप्पा का मुकाबला करने के लिए उपयुक्त भाजपा प्रतिनिधि प्रस्तुत करने में विफल रही। इस बार येदियुरप्पा पार्टी का मार्गदर्शन कर रहे हैं। भाजपा ने भी मतदाताओं तक पहुंचने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भाजपा मानती है कि उत्तरी और पश्चिमी भारत में उसे चुनावी बढ़त हासिल हो चुकी है, मामला अब दक्षिण का है जिसे अपने पाले में लाने के लिए प्रधानमंत्री दृढ़ता से प्रयास कर रहे हैं। संदेह नहीं कि इस बार के चुनाव में दक्षिण क्षेत्र निश्चित ही शुभ समाचार देने वाला है।
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