भारत में चुनावी बहसें अधिकतर निरर्थक होती हैं, किन्तु हमेशा नहीं. पिछले दिनों मंडी से भाजपा प्रत्याशी ने एक समाचार चैनल से बात करते हुए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को भारत का प्रथम प्रधानमंत्री कह दिया. यह इतिहास की एक ऐसी परिकल्पना है जो बहुधा आम भारतीयों को रोमांचित कर देती है. किन्तु समस्या यह है कि इतिहास की विवेचना परिकल्पनाओं के आधार पर नहीं हो सकती. शास्त्रीय नियमों के अनुसार इसे धृष्टता माना जायेगा. हालांकि ऐतिहासिक परिकल्पनाओं को पूर्ण आधारहीन भी नहीं माना जा सकता. इसके सन्दर्भ इतिहास के वे निर्णायक मोड़ होते हैं जिन्होंने किसी राष्ट्र या समाज की दशा-दिशा बदली हो. ज़ब कोई राष्ट्र-समाज अपने इतिहास के उन पीड़ादायक क्षणों को याद करता है ज़ब वो अपने एक साहसिक फैसले से अपने भविष्य की दिशा बदलने से चूक गया हो अथवा उस क्षण की कमजोरियों ने उसे लंबे यंत्रणा के मार्ग पर धकेल दिया हो, तब उस काल के ऐतिहासिक परीक्षण के दौरान उभरने वाला संत्रास सहज़ ही मानवीय मस्तिष्क को इस परिकल्पना की ओर धकेलता है कि, ‘यदि ऐसा होता तो’!
ऐसी परिकल्पनाओं को वरिष्ठ पत्रकार श्री रामबहादुर राय ‘इतिहास के अगर-मगर’ कहते हैं. उदाहरण स्वरूप यदि सिकंदर ने व्यास नहीं पार करके भारत की मुख्य भूमि पर नंद साम्राज्य के सामने आने का साहस किया होता तो क्या यूनानियों का मिथ्या युद्धाभिमान बना रहता? आठवीं-नौवीं सदी में पश्चिमोत्तर से भारत पर इस्लामिक आक्रमण शुरू हुए ज़ब तब शक्ति के शिखर पर रहे चोल-चालुक्य राजवंशों ने आपसी संघर्ष के बजाय यदि उत्तर क्षेत्र की राजनीति में प्रभावी हस्तक्षेप किया होता तो क्या देश इस्लामिक अत्याचार बच गया होता? यदि गजनवियों के विरुद्ध लगभग विजयी हो चुकी शाही राजवंश की सेना के हाथी आग लगने पर पीछे की तरफ नहीं भागते तो क्या महमूद गजनवी कभी उदभांडपुर की सीमा तोड़ भारत पर हमले का साहस करता? यदि जहाँगीर तथा औरंगजेब द्वारा क्रमशः गुरु अर्जुनदेव एवं गुरु तेगबहादुर की धर्मांधता पर आधारित क्रूरतापूर्ण हत्याएं नहीं कराई गई होती तो सनातन धर्म की वीर भुजा के रूप में सिख़ एक योद्धा संप्रदाय में तब्दील होते? यदि गाँधी ज़ी ने खिलाफत आंदोलन को अनावश्यक रूप से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर ना लादा होता तो क्या इस्लामिक कट्टरपंथ को राजनीतिक स्वीकार्यता मिलती?
अतीत की विकासात्मक व्याख्या एक लक्ष्य है जिसे इतिहासकार का दायित्व माना जा सकता है. अतः यदि परिकल्पनाओं के अनुकूल अतीत और वर्तमान के विश्लेषण पर आधारित भविष्य का एक खाका खींचा जा सके तो इसने क्या अनुचित है? जैसा कि प्रो.जे.बी.ब्यूरी का मत है, ‘ऐतिहासिक व्याख्या में अतीत और भविष्य की कल्पना का समन्वय होता है.’1 ऐसी ही परिकल्पना पर आधारित एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जो सिर्फ इतिहास-राजनीतिक में रुचि रखने वाले ही नहीं बल्कि हर जागरूक भारतीय के विचार पटल पर काबिज है कि यदि 1947 में भारत के नेतृत्वकर्ता सुभाष बाबू होते तो स्वतंत्र भारत का स्वरुप कैसा होता?
आज भारत की एकता-अखंडता और अस्तित्व के लिए सांप्रदायिकता एवं उसका आधार तुष्टिकरण, गाँधीवादी सिद्धांतों के विकृत स्वरुप से उत्पन्न हुई अहिंसावाद की धारा, अंग्रेजीयत के दुर्दमय रोग से पीड़ित शिक्षा व्यवस्था, युवा वर्ग के राष्ट्र के प्रति संवेदनहीनता, भ्रष्टाचार अकर्मण्यता आदि उपस्थित कई बड़े संकटों के कारण राष्ट्र के लिए यह कठिन समय है. कोई भी राष्ट्र अपने मुश्किल क्षणों में अपने ऐतिहासिक नायकों को याद करता है ताकि अपने समाज को प्रेरित कर सके. उस नायक के चरित्र के अनुकूल अपने लिए समाधान ढूंढ सकें. आधुनिक भारत के इतिहास में नेताजी सुभाषचंद्र बोस वही नायक हैं.
1947 से अपनी नई यात्रा के पश्चात् अतीत में निति-व्यवस्था की खामियों के परंपरागत जंजाल से जूझते राष्ट्र के मन में सहज़ उत्पन्न परिकल्पना है कि यदि सुभाष बाबू ने तब भारत की बागडोर संभाली होती तो एक राष्ट्र के रूप में उसकी पिछले सात दशकों की यात्रा कैसी होती है? राष्ट्रीय नेतृत्वकर्ता की भूमिका में उनका दृष्टिकोण क्या होता? इन विमर्श का औचित्य यह समझना है कि क्या अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के पश्चात् देश ने जो कठिनाईयां झेली और जो आज राष्ट्रीय समस्याएं है, क्या उनका अस्तित्व होता और होता तो स्वरुप क्या होता? लेकिन परिकल्पनायें यदि प्रमाणों के धरातल पर स्थापित ना हो तो कहानी या गल्प कहलाती हैं. अब प्रश्न इस परिकल्पना के प्रमाणों का है जिसके लिए सुभाष बाबू से सम्बंधित ऐतिहासिक विवरण एवं उनके स्वयं के व्यक्त विचारों का आश्रय लिया गया है.
1919 में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के गाँधीवादी युग का आगाज हुआ जो 1947 तक कमोबेश कायम रहा. अब चूंकि देश को ये विश्वास दिलाया गया कि असहयोग, सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का ह्रदय परिवर्तित कर उसे ‘वैष्णव जन’ में परिवर्तित कर दिया है. ऊपर से गाँधीवाद के राजनीतिक उत्तराधिकारी ‘चाचा नेहरू’, जो अपने जलते घर को छोड़ दुनिया भर में शांति के कबूतर उड़ाते फिरते रहे. इसलिए विरासत में मिली अहिंसावाद की घुट्टी से भारत को वैश्विक राम-राज्य के भ्रम में रखा. जिसका परिणाम ये हुआ कि भारत 1948, 1962, 1965 एवं 1971 तथा 1999 में पांच सीधे आक्रामक युद्धों के साथ आतंकवाद के हजारों घाव झेलने को अभिशप्त हुआ. बल्कि 1962 में पराजय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपमान का भागी बना.
1966 में इंदिरा गाँधी का यह कहना ठीक ही था कि, ‘कभी-कभी मैं सोचती हूं कि काश आजादी के वक्त हिंदुस्तान में भी फ़्रांस या रूस की तरह कोई वास्तविक क्रांति हुई होती.’ समझौते में मिली क्रांतिविहीन आजादी ने देश को राष्ट्रवाद के मूल्यों से वंचित रखा और विघटनवाद का प्राब्लय हो गया. ‘अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः’ की सीख देने वालों ने ‘धर्म हिंसा तथैव च:’ के ज्ञान से भटकाया ताकि सनातन समाज अपने शौर्य और पराक्रम को विस्मृत कर दे तथा अहिंसा की सिद्धि हेतु राष्ट्र को लावारिस छोड़ दें. लेकिन देश में ऐसे कुंठित विचारों का विरोधी यथार्थवादी वर्ग हमेशा से मौजूद रहा है. जैसा कि डॉ.लोहिया लिखते हैं, ‘राष्ट्र को प्राप्त हितों के दृष्टिकोणों से अहिंसा की जो बात करते हैं वे लोग दयनीय और अबोध हैं.’ इसी प्रकार मदुरई में (दिसम्बर,1940) में अपने भाषण में वीर सावरकर ने कहा था,’चाहे आप इसे प्रकृति का नियम या भगवान की इच्छा कहें, यह कटु सत्य है कि प्रकृति में सम्पूर्ण अहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है.’
ऐसा नहीं था कि अहिंसा की अतिशयता और उससे उपजी स्त्रैणता भारतीय समाज में आदिकाल से व्याप्त थी. इसे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान कृत्रिम रूप से पैदा किया गया था.20वीं सदी के पूर्वांर्ध में अंग्रेजों के सार्वजनिक स्थलों जैसे सड़क, ट्राम, रेलगाड़ी आदि में भेदभाव-दुर्व्यवहार से उत्पन्न अंतर्नस्लीय झगडों में अंग्रेजी सत्ता से क़ानूनी सहयोग नहीं मिलने पर भारतीयों ने पलटवार करना शुरू किया. जिसके परिणाम के विषय में नेताज़ी बोस लिखते हैं, “अब अंग्रेजों ने भारतीयों को हल्के में लेना बंद कर दिया था. इसका संदेश यह गया कि अंग्रेज कौम केवल और केवल ‘जूते’ की भाषा समझती है और ताकतवर का ही सम्मान करती है. यही समझ क्रांतिकारी आंदोलन का मनोवैज्ञानिक आधार बनी.”
यदि शक्ति के बूते अनाचार और अन्याय का प्रसार और प्रभाव स्थापित किया जा सकता है तो शक्ति के द्वारा ही उसका प्रतिकार भी किया जा सकता है. ऐसा नहीं था कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध हिंसात्मक प्रतिरोध का यथार्थ कांग्रेसी नेता नहीं समझते थे.लेकिन सुविधाजनक अहिंसा के आवरण में क्रूर-आताताई अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी असफलता पर अवसरानुकूल मौन बने रहे. हालांकि सुभाषचंद्र बोस के लोमहर्षक संघर्ष से उपजे राष्ट्रीय उत्साह ने उनके स्वप्निल अहिंसावाद के परे का यथार्थ दिखाया. आई.एन.ए. के संघर्ष के प्रभाव के विषय में हंसराज रहबर लिखते हैं, ‘उन्होंने(नेताजी) जो आजाद हिंद फौज संगठित की और बाद में आजाद हिंद फौजियों पर जो मुकदमा चला, उससे गांधीवाद का तिलिस्म टूटा और समूचा देश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने को उठ खड़ा हुआ. 1946 में क्रांति की जो जबरदस्त लहर आई, उसका बहुत कुछ श्रेय नेताजी सुभाषचंद्र बोस को जाता है.
तब कांग्रेसीजनों की मनःस्थिति क्या थी, इसे डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा वर्णित पं.नेहरू की मनोदशा से समझा जा सकता है, ‘1942 कुछ महीनों में श्री नेहरू की विक्षिप्त प्रतिक्रियाएँ, ज़ब उन्होंने सार्वजनिक घोषणा की कि उनकी इच्छा व क्षमता है कि जापानियों के मुकाबले के लिए लाखों गुरिल्ला तैयार किए जाएँ, कम से कम कुछ हद तक श्री सुभाषचंद्र बोस के प्रति ईर्ष्या भावना से प्रेरित थीं. श्री बोस धुरी राष्ट्रों की ओर चले गए थे. वे कम से कम यह दावा तो कर ही सकते थे कि वे भारत के लिए एक राष्ट्रीय पलटन खड़ी कर रहे थे, जबकि श्री नेहरू की कलाबाजियों का परिणाम होता ब्रितानी ताज की सेवा.’ ये वक्तव्य स्वतंत्रता आंदोलन में नेताजी के हिंसक संघर्ष और कांग्रेस के मिथ्या अहिंसावादी आंदोलन के मध्य का अंतर स्पष्ट करता है.
लेकिन स्वतंत्र भारत के पास इससे सम्बंधित और भी दिक़्क़तें रहीं हैं. 1962 में चीन से मिली अपमानजनक पराजय केवल सैन्य हार नहीं थी बल्कि तत्कालीन राष्ट्रीय नेतृत्व की विफलता के साथ ही प्रशासनिक तंत्र की निकृष्टता का भी प्रतिफल थी. लालकृष्ण आडवाणी, जो 25 दिसंबर,1962 को युद्ध समाप्ति के बाद सरकार द्वारा प्रायोजित लद्दाख दौरे पर गये, लिखते हैं, ‘गलत प्रबंधन के कारण भारत युद्ध के लिए तैयार नहीं था. मुझे यह देखकर गहरी निराशा हुईं कि हमारे जवानों के पास समुचित गरम कपड़े और जूते भी नहीं थे.’
कार्यपालिका का आधार भारतीय प्रशासनिक सेवा वर्तमान में विकास हेतु साधक से अधिक बाधक बन चुकी है. संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों की राय थी कि औपनिवेशिक व्यवस्था के इस दमनकारी प्रतीक को अब समाप्त कर दिया जाना चाहिए. लेकिन तब भी थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ इस संवर्ग को यथास्वरुप बनाये रखा गया.ब्रिटिश सत्ता से देश मुक्त हुआ लेकिन भारतीय नौकरशाही अपने आचार-विचार एवं सिद्धांतों में यथावत बनी.यह सामान्यतः यथास्थितिवादी, रूढ़, एवं पुरानी परंपराओं की हिमायती है. यह सामाजिक परिवर्तनों एवं समानतावादी वितरण के विरुद्ध है. आज भी नौकरशाही का सबसे निकृष्ट पक्ष आम आदमी के साथ उसका घटिया व्यवहार एवं विशिष्ट व्यक्तियों तथा समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग की तरफ झुकाव है.
जैसा कि डॉ. फाड़िया लिखते हैं कि, स्वतंत्रता के पश्चात् देश में विप्लवकारी स्थिति का प्राधान्य रहा. विभाजन, सांप्रदायिक दंगे, जनसंख्या स्थानांतरण, कश्मीर का युद्ध रियासतों के एकीकरण की समस्या आयी जिसके फलस्वरुप क़ानून का शासन खंडित हुआ तथा लोक सेवकों में भ्रष्टाचार के लिए नवीन मार्ग खुले. कल्याणकारी एवं समाजवादी राज्य के आदर्श को अपनाने के कारण राज्य के कार्यों में असाधारण वृद्धि हुईं जिससे नियम, नियंत्रण, लाइसेंस, परमिट युग प्रारम्भ हुआ और भ्रष्टाचार के के नवीन मार्ग खुले.’
‘1964 में के. संथानम की अध्यक्षता में गठित भ्रष्टाचार निवारण समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 1958 से 1962 के चार वर्षों में 2 करोड़ 38 लाख 24 हजार 142 रूपये के लाइसेंस कपटपूर्ण उपायों से प्राप्त किये गये थे. जुलाई 1982 में भारत सरकार के परामर्श पर नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी ने देश में काले धन की समस्या का अध्ययन किया. जिसकी रिपोर्ट के अनुसार काले धन की मुख्य जिम्मेदारी भ्रष्ट नेता और अधिकारियों की है. 1983 के बाद देश में काले धन का आकार जीडीपी के 50 फीसदी से भी अधिक हो चुका था.’ और यह सब ‘चाचा’ के प्रधानमंत्रित्व काल से शुरू होकर ‘मौनी बाबा’ के काल में चरम पर पहुंच गया.
यहाँ सुभाष बाबू की उपयोगिता स्पष्ट परिलक्षित होती है. ब्रिटिश कालीन भारत में वे एकमात्र ऐसे भारतीय थे. जिन्होंने आईसीएस में चयनित होने के बाद भी इसे त्यागने का निर्णय लिया. जिसके विषय में वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘मेरे सिद्धांत मुझे एक ऐसी व्यवस्था का हिस्सा बनने की अनुमति नहीं देते जिसकी उपयोगिता समाप्त हुए एक अर्सा बीत चुका है और जो इस समय केवल और केवल संकीर्ण सोच, निर्लज्ज व स्वार्थी शासन, ह्रदयहीनता तथा लालफीताशाही के प्रतीक के रूप में मौजूद है.’ सहज़ ही कल्पना कर सकते हैं कि 1947 में सरकार के अगुआ के रूप से सुभाष बाबू ने कार्यपालिका के प्रभावी अंग के रूप में निश्चय ही किसी बेहतर विकल्प की तलाश की होती.
स्वतंत्र भारत, जो धार्मिक एवं सैद्धांतिक दृष्टि से विश्व में एकाकी है और जिसे अपनी सीमाई ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक-धार्मिक सुरक्षा हेतु युवाओं को शौर्य-सामरिकता एवं राष्ट्रवाद से युक्त शिक्षा पद्धति की जरुरत थी, देने में असफल रहा. इस शिक्षण पद्धति का बेहतरीन उदाहरण इजराइल है. अपने परंपरागत शत्रु इस्लामिक देशों से घिरे इस छोटे से यहूदी राष्ट्र ने अपने नागरिकों की सामरिक भावना और प्रखर राष्ट्रवाद के बूते अरब देशों को दबा रखा है. जबकि हम सत्तर सालों से अपने अकेले धार्मिक उन्मादी पड़ोसी से त्रस्त हैं. तो क्या हमें नेताजी के जीवन से सीख लेने की जरुरत नहीं थी?
छात्र जीवन में ही नेताजी की रूचि सैन्य प्रशिक्षण में थी. अंग्रेजी सरकार ने जन भारत की अपनी स्वदेशी सेना-इंडिया डिफेंस फ़ोर्स- में एक विश्वविद्यालय यूनिट शुरू की. इसके ‘स्पान्सर’ में एक मात्र भारतीय कलकत्ता के प्रख्यात सर्जन डॉ. सुरेश चंद्र सर्वाधिकारी थे. जो बंगालियों को सैन्य प्रशिक्षण दिलाने के लिए जूनून की हद तक उद्यत थे. सुभाष बाबू भी उसमें भर्ती हुए. उन्होंने इसका विवरण अत्यंत उल्लासपूर्वक किया है.
शिक्षा के क्षेत्र में उपनिवेशवादी मानसिकता के षड़यंत्र की पृष्ठभूमि पुरानी है. असल में भारत में अंग्रेजी स्कूलों का जाल बिछा देने का विचार सर्वप्रथम चार्ल्स ग्रांट के मन में आया जिसे उसने अपनी पुस्तिका ‘ऑब्जर्वेशन ऑन द स्टेट ऑफ़ सोसायटी एमंग दि एशियाटिक सब्जेक्ट्स ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन’ में व्यक्त किया है. एक प्रकार से वह मैकाले का अग्रगामी था. प्राच्य-पाश्चात्य विवाद(1935) में अपनी निर्णायक विजय के बाद मैकाले ने अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्थानों द्वारा देशी अंग्रेज पैदा करने करने के कारखाने खोल दिये. इसके बाद वुड़ के घोषणा-पत्र(1854), हंटर आयोग(1882-83) आदि अंग्रेजियत का प्रसार करने के प्रेरक बनते रहे.
अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की समस्या से नेताजी अनभिज्ञ नहीं थे. वे लिखते हैं, ‘ब्रिटेन में पब्लिक स्कूलों की पढ़ाई और प्रशिक्षण को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं.लेकिन जहाँ तक भारतीय विद्यार्थियों के प्रश्न है, उनके लिए मै इन पब्लिक स्कूलों को सही नहीं मानता. कैम्बरिज में पढ़ने के दौरान मुझे इंग्लिश पब्लिक स्कूल्स के कुछ इंडियन ‘प्रोडक्ट्स’ से रूबरू होने का इत्तेफ़ाक़ हुआ था और मेरी नज़र में वे खासे निराशाजनक थे.मेरा मानना है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा का चरित्र तो पूरी तरह राष्ट्रीय या स्वदेशी ही होना चाहिए. यह शिक्षा ऐसी हो जिसकी जड़े हमारी अपनी जमीन में मजबूती से गढ़ी हों. हमारे बच्चों के विकसित होते मन-मस्तिष्कों को उनकी अपनी संस्कृति की ही खुराक मिलनी चाहिए.
लेकिन आजाद भारत में राधाकृष्णन आयोग(1948-49), राष्ट्रीय शिक्षा नीति(1968), नवीन शिक्षा नीति(1986) से लेकर यशपाल समिति (1992) भी शिक्षा को भारतीयता में ढालने में सक्षम नहीं हो पाई. क्योंकि तब नेतृत्व उस वर्ग ने संभाला जो अपनी जहनियत में अंग्रेज था. अतः अंग्रेजीयता प्रतिष्ठित बनी रही. आज भी देश की शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थियों में भारतीयता नहीं बल्कि यूरोपीय उन्मुक्तता भर रही है. मैकाले ने जिन भूरी-काली चमड़ी के अंग्रेजों की कल्पना की थी वह बहुत हद तक यथार्थ में तब्दील हो गई है. पिछले सात दशकों से भारतीय युवाओं को अंग्रेजियत में ढालकर ‘ग्लोबल’ बनाया गया. ‘वन्दे मातरम्….शस्य श्यामलाम् मातरम्’ का भाव कहीं पीछे छूट गया और पश्चिमी उपभोक्तावाद स्थापित रहा.कह सकते हैं कि मैकाले का भूत आज भी भारतीय शिक्षा पद्धति के मानस पटल पर मंडरा रहा है.किंतु स्वतंत्र भारत नेताजी के नेतृत्व में इस परंपरा को ध्वस्त करता, इसकी सहज़ कल्पना की जा सकती है. वर्तमान सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2019) तथा ‘अग्निवीर योजना’ नेताजी की इसी परंपरा से प्रेरित प्रतीत होती है जिनका मूल्यांकन भविष्य करेगा.
अपने राजनीतिक-सार्वजनिक जीवन में आने पूर्व ही सुभाष बाबू ने सांस्कृतिक चेतना के आधार पर राष्ट्रीय जागरण का कार्य शुरू कर दिया था.1947 के बाद सनातन समाज को कभी पुरातनपंथ और आधुनिकता के द्वन्द में उलझाकर तो कभी ब्राह्मणवाद-मनुवाद के नामपर सनातन धार्मिक संस्कारों को कोसने, सनातन मान्यताओं के विषय में भ्रम फैलाकर धार्मिक उत्सवों को समाप्त करने का षड़यंत्र चल रहा है, जिसमें लंबे समय तक सत्ताधारी राजनीतिक वर्ग और उनके सहयोगी कुंठित छद्म बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर ‘पेटा’ जैसी पश्चिमी संस्थाएँ शामिल हैं. कभी होली को उपद्रव और नशे का त्यौहार बताना तो कभी दीपावली पर प्रदूषण के प्रसार का ज्ञान तो कभी दुर्गापूजा एवं गरबा को अनैतिक बताने का प्रयास इसी कूटयुद्ध के मोर्चे हैं. स्थिति यह थी कि भारत के प्रधानमंत्री ‘चाचा’ ने राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू को सनातन सम्मान के प्रतीक सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में शिरकत करने से रोकने का पुरजोर प्रयास किया.
यही सोच उस तुष्टिकरण का आधार बनी जिसने देश को पुनः खंडित करने की ओर धकेलना शुरू कर दिया. चलिए मान लिया जाये कि पुजारी वर्ग धर्म के आड़ में समाज का शोषक है तो मंदिरों के पास फूल-माला, मिठाई, नारियल आदि बेचने वालों या खाने-पीने की दुकान या ठेला लगाने वालों को किस व्यवस्था का हिस्सा समझा जाये? क्या धर्म के सहारे अपनी जीविका चलाने और परिवार का भरण-पोषण करने वाले इन गरीबों को भी शोषण का प्रतीक मानकर नष्ट कर दिया जाना चाहिए?
लेकिन ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखें तो सुभाष बाबू का दृष्टिकोण अलग था. वे लिखते हैं, ‘अब मैंने एक नया प्रयोग शुरू किया-धार्मिक उत्सवों के माध्यम से युवाओं में सामुदायिकता की भावना जगाने का. बहुत पुराने समय से ही हमारे यहाँ महत्वपूर्ण धार्मिक कार्यक्रमों को ऐसे त्यौहारों के रूप में मनाने का चलन रहा है जिनमें कि समाज का हर व्यक्ति, हर तबका भागीदार हो सके.’ नेताजी धार्मिक उत्सवों के आर्थिक के साथ मनोवैज्ञानिक पक्ष की महत्ता भी बताते है, ‘इस दौरान गाँव की तमाम जातियों या व्यवसायों के लोगों की आवश्यकता पड़ती थी, सबको काम मिलता था.जैसे-जैसे देश की समृद्धि को घुन लगता गया तथा जैसे-जैसे लोगों ने गाँवों से शहरों की ओर पलायन करना शुरू कर दिया, वैसे-वैसे इस तरह के धार्मिक आयोजनों या त्यौहारों का प्रचलन भी कम होता चला गया, बल्कि कहीं-कहीं तो बंद ही हों गया. इसके परिणामस्वरुप गाँवों की अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है तथा सामाजिक स्तर पर देखें तो लोगों का जीवन नीरस एवं बोझिल हो चला है.’ ध्यातव्य है कि नेताजी बोस लोकमान्य तिलक की परंपरा के संवाहक हैं. गणेश पूजा और शिवाजी उत्सव के माध्यम से उन्होंने ही राष्ट्र-जागरण का कार्य प्रारम्भ किया था.
रहीं सनातन समाज को नष्ट करने की पंथनिरपेक्षता के सुनियोजित षड़यंत्र की तो सुभाष बाबू के नेतृत्व में देश इससे दिग्भ्रमित होने से बच जाता, ये तय है. मांडले जेल में कैदी रहते हुए नेताजी ने हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों के लिए अनशन किया ताकि बंदियों को दुर्गापूजा मनाने के लिए खर्च दिये जाये जिसके बाद अंग्रेजी सरकार, 30₹का न्यूनतम भत्ता ही सही, देने को बाध्य हुईं. हरिचरण बागची को जेल से लिखे गये पत्र में उन्होंने जेल में मृत हिन्दुओं के दाह-संस्कार की सम्मानजनक सुविधा ना होने पर दुःख जताया जबकि मुस्लिमों के लिए इसकी सांगठनिक व्यवस्था था. उन्होंने समिति से इसकी व्यवस्था करने को कहा. तो कहने का तात्पर्य है कि देश को ऐसा ही नेतृत्व चाहिए था लेकिन उसे दुर्घटना से पैदा हिंदू और दिल दिमाग़ से शामी पंथों का मुरीद ‘चाचा’ नेता के रूप में मिला जिसका खामियाजा देश आजतक भुगत रहा है.
यथार्थ में तिलक एवं अरविन्द घोष की परंपरा के वास्तविक उत्तराधिकारी सुभाषचंद्र बोस ही थे. यह देश की जिम्मेदारी थीं कि स्वतंत्रता के पश्चात् वह सुभाष बाबू का उत्तराधिकारी पैदा करता. चुकीं भारत इसमें असफल रहा, जिसके परिणामस्वरुप वह छद्म निरपेक्षता, कायरतापूर्ण अहिंसा जैसे वैचारिक रोग ही नहीं निरंतर कट्टरपंथी हमले झेलने को अभिशप्त रहा है.
क्रांतिकारी नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल लिखते हैं, ” समग्र इतिहास में यह बात पाई गई है कि सफलता प्राप्त करने के पूर्व प्रत्येक देश के क्रांतिकारियों को बुद्धिमान व्यक्तियों ने अदूरदर्शी, अव्यावहारिक, पथभ्रांत भावुक बताया है. संसार के अधिकांश तथाकथित बुद्धिमान व्यक्तियों ने क्रांतिकारी मार्ग को ग्रहण नहीं किया. इसलिए आजाद हिंद फ़ौज के असफल अभियान ने उसके आलोचकों को अपनी कुंठा व्यक्त करने, अहिंसावाद के नाम अपने स्त्रैण आंदोलन को राष्ट्रीय पटल पर प्रतिष्ठित करने एवं नेताजी को कोसने का अवसर मिल गया.
सुभाष बाबू की स्मृति को भुलाने, छोटा दिखाने, यहाँ तक की अपमानित करने में सबसे बड़ी सहभागिता कम्युनिस्ट वर्ग की रही है जिसे स्वतंत्रता के बाद अगले छः दशकों से अधिक समय तक सत्तारूढ़ दल का समर्थन प्राप्त रहा है. ‘नेम कालिंग’ की अपनी परिपाटी के अनुसार विशेषकर विश्वयुद्ध के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार ‘पीपुल्स वार’ में सुभाष बाबू को बारंबार कुत्ता, राक्षस आदि रूपों में चित्रित किया गया. उन्हें जापानी तानाशाह ‘तोजो’ का कुत्ता, गद्दार तथा आजाद हिंद फ़ौज को ‘लुटेरों, हत्यारों की सेना’ तक कहा. कम्युनिस्टों के सुभाष बाबू से घृणा करने की विशेष वजह उनका वामपंथ से प्रभावित होते हुए भी कॉमिन्टर्न मुक्त होना था. उनके चिंतन के केंद्र में सोवियत रूस और सर्वहारा की सत्ता नहीं बल्कि भारतीयता थी. उनकी प्राथमिकता ब्रिटिश हित का संरक्षण नहीं बल्कि साम्राज्यवाद की समाप्ति का संकल्प था.
कहते हैं इतिहास हमेशा विजेता लिखते हैं. यहाँ कोई विजेता तो नहीं था किंतु हस्तान्तरण द्वारा प्राप्त सत्ता के मालिकान ने अपनी श्रेष्ठता के लिए इतिहास के यथार्थ को विकृत किया. स्वतंत्रता संघर्ष का श्रेय लेने हेतु कष्टों से जूझने और आत्मोत्सर्ग करने वाले क्रांतिकारी आंदोलन को कमतर दिखाने का प्रयास किया. इसके लिए गाँधीवाद का प्रभाव एक बेहतर आधार बना. जैसा कि डॉ.लोहिया लिखते हैं, ‘मैंने हमेशा श्री बोस के मुकाबले श्री नेहरू को पसंद करने की गलती की है और शायद इस गलती का एक बड़ा कारण शायद महात्मा गाँधी ही रहे हों.’ गाँधीवाद के प्रभाव में ये गलती सिर्फ लोहिया ने ही नहीं बल्कि देश के एक बड़े वर्ग ने की और अब तक करता आ रहा है. यदि विश्लेषित करें तो गाँधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी ‘चाचा’ की आलोचनाओं से परे महानता को इस देश से जबरन स्वीकृत करवाया गया.
सुभाष बाबू के व्यक्तित्व का यथेष्ट मूल्यांकन डॉ.लोहिया इन शब्दों में करते हैं, ‘नेताजी सुभाषचंद्र हल्दीघाटी भावना के समाहार थे. हमारे राष्ट्रीय जीवन में आज ठीक इसी भावना की बहुत आवश्यकता है. उनका लक्ष्य स्पष्ट था, उन्होंने न हार, न कमजोरी में पलायन किया और सभी स्थितियों में वे काम करने की कोशिश करते रहे. हल्दीघाटी भावना दूरदृष्टि से काम लेती है और लगातार हार की परवाह नहीं करती. वह नहीं मानती कि वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ संसार का भी अंत हो जाएगा. वह नहीं मानती की शक्ति और कल्याण का चरम मेल संकल्प के अधीन है और वह कितना पवित्र और विज्ञ और नि:स्वार्थ एवं अविजेय है.’ भारत को सुभाषचंद्र बोस रूपी इसी हल्दीघाटी भावना से प्रेरित होने की जरुरत है. अब प्रश्न राष्ट्र के समक्ष है. क्या वह इस भावना को आत्मसात करने को तैयार है?
टिप्पणियाँ