एक तरफ अमेरिका, यूरोप जैसे देश, दूसरी तरफ चीन व रूस द्वारा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय लेन-देन में घरेलू मुद्रा को वरीयता देने से इन देशों के बीच भू-राजनीतिक संघर्ष उभरने लगा है। आज वक्त है कि अमेरिकी विदेश नीति और विश्व में डॉलर का वर्चस्व स्थापित करने में ब्लैक रॉक और वैनगार्ड जैसे अमेरिकी एएमसी (अलाइट मिलिट्री करेंसी) की भूमिका, चीन जैसे उसके प्रतिद्वंद्वियों, भारत-दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती शक्तियों की प्रतिक्रिया और अंत में, तीसरी दुनिया पर इसके व्यापक प्रभाव का विश्लेषण किया जाय।
एक आर्थिक प्रणाली के रूप में पूंजीवाद किसी देश में भूमि और सभी आर्थिक संस्थानों के निजी स्वामित्व के जरिए अधिकतम लाभ की अवधारणा पर काम करता है। दूसरे शब्दों में, यह ‘राजनीति के सर्वोत्तम मॉडल के निगम’ के सिद्धांत पर काम करता है, जिसके लिए वैश्विक और घरेलू बाजारों के उदारीकरण, निगम-अनुकूल कानून, कम कर, उच्च सब्सिडी आदि की आवश्यकता होती है। इसका लक्ष्य बिना सरकारी हस्तक्षेप के व्यापार और वाणिज्य को तेजी से बढ़ावा देना है। लेकिन यह प्रणाली तब पेचीदा हो जाती है, जब ये कंपनियां और उनके संबंधित देश अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिए मनमानी रणनीतियां तैयार करने लगते हैं, जिनमें न कोई सीमा और न ही कोई परिभाषा तय की जाती है, जैसे- ‘नरम-अलगाववाद’।
2009 में एक पूंजीपति पीटर थीएल ने विचार दिया कि विकासशील और अविकसित राष्ट्र राज्यों के भीतर सुनियोजित तरीके से छोटे क्षेत्रों या छोटे राष्ट्रों का निर्माण होना चाहिए। दुनिया भर में लगभग 5,400 ऐसे क्षेत्रों (एसईजेड) का निर्माण हुआ, जो नवीन आर्थिक पहल के चोगे में धन संग्रह व संचय के शानदार मॉडल बने। मेजबान देश के आर्थिक विभाजकों की वृद्धि में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही, जैसे-विशेष आर्थिक क्षेत्र, न्यू सांगडो (दक्षिण कोरिया) के शहरी मेगा प्रोजेक्ट और नियोम (सऊदी अरब), विशेष कर नेवादा (2021) के कंपनी शहर, जिन्होंने कंपनियों को ‘इनोवेशन जोन’ के रूप में अपने-अपने कानून बनाने की अनुमति दी। इसमें एएमसी की क्या भूमिका है? जब कुछ निजी संस्थाएं वैश्विक अर्थव्यवस्था की दिशा को परिभाषित करने का प्रयास करती हैं, तो यह पूंजीवादी मानसिकता कैसा परिदृश्य तैयार करती है? क्या ऐसी भौगोलिक और मौलिक रूप से भिन्न संस्थाओं के बीच वास्तविक संबंध है? आगे इन प्रश्नों का व्यवस्थित रूप से उत्तर दिया गया है।
व्यवसाय मॉडल और संचालन की प्रकृति
2008 की आर्थिक मंदी से पहले परिसंपत्ति प्रबंधन के लिए निवेशक निधि प्रबंधक नियुक्त करते थे, जो ऐसे स्टॉक पर निगाह रखते थे, जो उच्च मूल्य अनुपात दे। निवेश के ऐसे साधनों और तरीकों को ‘सक्रिय प्रबंधित निधि’ कहा जाता था। हालांकि, मंदी के बाद मंहगे सक्रिय प्रबंधित निधि के बजाय निष्क्रिय इंडेक्स फंड, जैसे- एक्सचेंज ट्रेडेड फंड (ईटीएफ) आदि की मांग में उल्लेखनीय बदलाव आया। 2008 और 2015 के बीच सक्रिय निधि में 800 बिलियन डॉलर का, जबकि निष्क्रिय इंडेक्स फंड में लगभग एक ट्रिलियन डॉलर का निवेश हुआ। यह बदलाव परिसंपत्तियों का स्वामित्व बनाम उन पर सक्रिय नियंत्रण और परिसंपत्तियों पर स्वामित्व रखने वाले निगमों (जैसे-सोने की खदानों का स्वामित्व रखने वाली कंपनियां आदि) के बीच के अंतर पर आधारित था। एएमसी, विशेष रूप से बिग थ्री (ब्लैक रॉक, स्टेट स्ट्रीट और वैनगार्ड) ने व्यावसायिक गतिविधियों का विविध क्षेत्रों में विस्तार करते हुए नियंत्रण के लक्ष्य को प्राप्त किया। इसमें स्वामित्व से लेकर बाजार के अवसरों का अनुकूल विश्लेषण, भविष्य की प्रौद्योगिकियों में निवेश, बिजनेस इनक्यूबेटर के रूप में कार्य करना आदि शामिल रहा। इस तरह, वे निवेश से लेकर आयकर बचाने तक के अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न क्षेत्रों व विषयों में पूंजी योजना तथा संचालन के सबसे बड़े खिलाड़ी बन गए।
कैसे ताकतवर बना अमेरिकी डॉलर ?
नियमनों, अनुपालनों और सामाजिक संरचनाओं के अलग-अलग न्याय क्षेत्रों में इन परिचालनों के प्रवाह को बनाए रखने के लिए ये कंपनियां अक्सर सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और भू-राजनीतिक रूप से बाजारों के मूल सिद्धांतों को प्रभावित करने के लिए खतरनाक उपायों को आजमाने से भी परहेज नहीं करती थीं। इसलिए अमेरिकी डॉलर दुनिया भर में आरक्षित मुद्रा बन गया है। पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन ओपेक प्लस के बीच हुए पेट्रो-डॉलर समझौते के परिणामस्वरूप अमेरिकी डॉलर दुनिया भर में आरक्षित मुद्रा बन गया है। इस समझौते में पेट्रोलियम उत्पादों की खरीदारी अमेरिकी डॉलर में करने की शर्त है। इस तरह, अमेरिकी डॉलर को वैश्विक मुद्रा के रूप में मान्यता मिली और यह विश्व का सबसे ताकतवर मुद्रा बन गया। इसके बावजूद अमेरिका अपने हितों के सामने अन्य देशों के हितों के प्रति उतना संवेदशील नहीं है।
उदाहरण के लिए, वित्तीय प्रणाली में डॉलर की वैश्विक मान्यता के परिणामस्वरूप अमेरिका को लगभग असीमित मात्रा में फिएट मुद्रा छापने, मनमाने तरीके से अपनाप कर्ज बढ़ाने और यहां तक कि दुनिया भर के देशों की मुद्राओं की विनिमय दर को नियंत्रित करने की छूट है, जिसके कारण अन्य देशों के लिए द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार संबंधों में नुकसान की स्थिति बन सकती है। दूसरे, यह शक्ति विभिन्न देशों को अपने केंद्रीय बैंकों में अमेरिकी डॉलर का विशाल भंडार बनाए रखने के लिए मजबूर भी करती है, जिसके इस्तेमाल पर अमेरिका कभी भी रोक लगा सकता है, जैसा उसने रूस और अफगानिस्तान के साथ किया था।
इसके अलावा, अमेरिका आवश्यकता से अधिक मुद्रा छापता है, क्योंकि इसकी मांग लोचदार नहीं होती है। इसलिए डॉलर आपूर्ति में वृद्धि या कमी का अमेरिकी संस्थानों और वित्तीय प्रणाली पर कभी नकारात्मक असर नहीं पड़ता है। लेकिन इससे दूसरे देशों की मुद्रा स्फीति दर प्रभावित होती है, उनके विकास अनुमान अस्थिर हो जाते हैं और वैश्विक स्तर पर कीमतें बढ़ने लगती हैं। अन्य देशों की घरेलू मुद्राओं के मूल्यों में अत्यधिक गिरावट के कारण डॉलर खरीदना महंगा हो जाता है और उनकी कंपनियों का लाभ भी प्रभावित होता है। इस प्रकार, अर्थव्यवस्था पर मंदी छाने लगती है। संक्षेप में, अमेरिकी डॉलर अत्यधिक हानिकारक वित्तीय साधन है, जिसका भरपूर लाभ कॉर्पोरेट संस्थाओं के गठजोड़ ने एएमसी के साथ मिलकर उठाया है।
एएमसी, अमेरिकी सरकार व निजी निगमों की साठगांठ
अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था के लिए ‘कॉर्पोरेटोक्रेसी’ का प्रयोग करना गलत नहीं होगा। यह अमेरिका की विदेश और मौद्रिक नीति को प्रभावित करने वाले विभिन्न प्रकार के निजी संस्थानों को संदर्भित करता है। इसमें शामिल हैं-
- अमेरिका में सैन्य औद्योगिक परिसर वास्तव में रक्षा ठेकेदारों, हथियार उत्पादकों, संबंधित नवाचार और अनुसंधान केंद्रों आदि का एक समूह है। यह विश्व भर में हर तरह के युद्धों और संघर्षों को भड़काने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल रहा है। इसने अरबों डॉलर के हथियार सौदों, रक्षा साझेदारी और अन्य देशों के विशेष आर्थिक क्षेत्रों, अंतरराष्ट्रीय जल, दूतावासों और वाणिज्य दूतावासों, विदेशी सैन्य अड्डों में सैन्य मौजूदगी के जरिए भरपूर लाभ उठाया है, जैसे- जिबूती पर और उससे भी अधिक उसके विरोधियों पर क्षेत्रीय प्रभाव थोपा और लाभ उठाया।
- फेडरल रिजर्व के सहयोग से गोल्डमैन सैक्स और जेपी मॉर्गन चेज जैसे निजी बैंक विश्व अर्थव्यवस्था में डॉलर के वितरण और प्रवाह को नियंत्रित करते हैं, जबकि फेडरल रिजर्व विनिमय दरों का प्रबंधन करता है, रेपो दर, बैंक दर तय करता है और खुले बाजार संचालन आदि को नियंत्रित करता है। ये बैंकिंग संस्थान वित्तीय लेनदेन के मध्यस्थों, व्यवसाय-मार्गदर्शकों और अर्थव्यवस्था में ऋण और निवेश, एफडी आदि के माध्यम से आर्थिक गतिविधि के संचालन और प्रबंधन में मदद करते हैं।
- साथ ही, अन्य निगम जैसे बिग टेक कंपनियां (मेटा, अल्फाबेट और माइक्रोसॉफ्ट), फार्मास्युटिकल कॉरपोरेशन (फाइजर और मॉडर्ना), फैशन, तेल दिग्गज और नए जमाने की अन्य प्रौद्योगिकी कंपनियां आदि इस गठजोड़ में बारीकी से बंध जाते हैं।
एएमसी के साथ संबंध
अमेरिका ने 2003 में इराक पर हमला किया, जिसका कथित उद्देश्य सामूहिक विनाश के हथियारों को रोकना था, जो कभी नहीं मिले। यह एक ऐसा कदम था जो ‘प्रिवेंटिव वार’ की अमेरिकी विदेश नीति का परिभाषित चरित्र बन गया था, एक विचार जो पूर्व सोवियत संघ द्वारा आक्रामक रूप से विकसित किए जा रहे परमाणु हथियारों और परमाणु शस्त्रागार में वृद्धि, उत्तर कोरिया, क्यूबा मिसाइल संकट आदि के संदर्भ में आइजनहावर, ट्रूमैन और जॉन एफ कैनेडी द्वारा लंबे समय तक किए गए विचार-विमर्श के बाद सामने आया था। इस विचार ने 9/11 हमले के बाद ठोस रूप लिया। अमेरिका ने इस पर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए आत्मरक्षा के लिए आतंकी संगठनों और दुश्मनों के हमला करने से पहले उन्हें नष्ट करने पर जोर दिया। इसी आधार पर उसने दावा किया कि इसमें संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी की आवश्यकता नहीं, जो अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार जरूरी होते हैं। हालांकि, आज अमेरिका किसी तनाव की स्थिति में सैनिकों को प्रत्यक्ष भागीदारी से बचाते हुए हस्तक्षेप और नियंत्रण के अधिक से अधिक अप्रत्यक्ष तरीकों को अपना रहा है।
इन संघर्षों के बाद सभी पुनर्निर्माण परियोजनाएं और अनुबंध अमेरिकी कंपनियों के पास चले गए। इराक, अफगानिस्तान में भी यही स्थिति थी और अंतत: यूक्रेन में भी यही होने वाला है। यूक्रेन की लगभग 30 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर आज ब्लैक रॉक का अधिकार है। ब्लैक रॉक को यूक्रेन के पुनर्निर्माण का ठेका दिया गया है, जिसमें वित्तपोषण, नए निवेश को बढ़ावा देना आदि शामिल है। लेकिन यह सब फिर से अमेरिकी कंपनियों के पास चला जाएगा और अंत में इन कंपनियों को लगभग 7.5 खराब डॉलर के प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण मिल जाएगा। अफ्रीकी देशों के लिए मारामारी, दक्षिण चीन सागर, अंटार्कटिका में तनाव और ऐसे सभी संघर्षों का अंतिम उद्देश्य उपरोक्त वर्णित आर्थिक पहलों के माध्यम से अराजकता पैदा करना और अंतत: निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाना प्रतीत होता है।
फाइजर ने कथित तौर पर 2020 में विकासशील देशों को कोरोना टीका उपलब्ध कराने के बदले अपनी सैन्य संपत्ति गिरवी रखने के लिए कहा था। फाइजर और मॉडर्ना ने वैक्सीन फार्मूले को पेटेंट से मुक्त रखने के भारत व अफ्रीका के प्रयास को बाधित किया था, जिसे वे एक समय प्रति इंजेक्शन 1,000 डॉलर में बेच रहे थे। दूसरी ओर, बिग टेक कंपनियों पर गलत सूचना फैलाने, चुनावों में हस्तक्षेप करने, अपने उपयोगकर्ताओं की निजी जानकारी बेचने, डिजिटल बाजार पर एकाधिकार करने और मीडिया आउटलेट्स द्वारा अन्य खिलाड़ियों की उनके मंचों पर प्रसारित समाचार सामग्री से होने वाली कमाई पर राजस्व का उचित भुगतान न करने सहित अनुचित कार्यों से उन्हें आगे बढ़ने से रोकने जैसे कई गंभीर आरोपों की अन्य देशों में लगातार जांच की जा रही है।
एएमसी के साथ उनका संबंध उनके शेयरधारकों के पैटर्न से जुड़ा हुआ है। बारीकी से देखा जाए तो इन कंपनियों में ब्लैक रॉक, वैनगार्ड और स्टेट स्ट्रीट की पर्याप्त हिस्सेदारी है। एस एंड पी 500 कंपनियों में उनकी हिस्सेदारी लगभग 88 प्रतिशत है। हालांकि, उनकी वास्तविक शक्ति उनके मालिकाना हक के तहत इन कंपनियों के प्रबंधन निर्णयों को प्रभावित करने की उनकी क्षमता, केंद्रीकृत मतदान रणनीति तैयार करने और सबसे महत्वपूर्ण अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ईएसजी के उपयोग से आती है।
क्या है ईएसजी?
ईएसजी यानी पर्यावरण, सामाजिक एवं शासन एक रेटिंग प्रणाली है, जो किसी कंपनी के दैनिक कामकाज में कार्बन उत्सर्जन, कर्मचारी सुरक्षा और बोर्ड विविधता जैसी समस्याओं को हल करने में कंपनी के योगदान से जुड़ी है। यह जिम्मेदार निवेश के सिद्धांतों (पीआरआई) को अपनाने के संबंध में संयुक्त राष्ट्र के 2006 के उस प्रस्ताव से ली गई है, जिस पर 40 खरब डॉलर की संपत्ति वाले 3,000 निवेशकों ने हस्ताक्षर किए हैं। इसके अंतर्गत विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर विचार किया जाता है और कंपनियों को इन मापदंडों के आधार पर रेटिंग दी जाती है, जिसे विश्लेषकों द्वारा अंक में बदल दिया जाता है।
यह अंक बहुत ही प्रभावशाली मानक होता है, जो उनके द्वारा प्राप्त निवेश के स्तर (वे बाजार में किस तरह निवेश करते हैं), पर्यावरण-अनुकूल और सामाजिक रूप से जिम्मेदार ब्रांड के रूप में उनकी प्रतिष्ठा, ग्राहक आधार और उनके अस्तित्व से जुड़े कई अन्य कारकों को सीधे प्रभावित करता है। ब्लैक रॉक के संस्थापक लैरी फिंक ने 2020 में एक साक्षात्कार में ब्लूमबर्ग से कहा था कि ‘‘वैश्विक पूंजीवाद में आधारभूत बदलाव का दौर चल रहा है और उनकी कंपनी अनुकूल पर्यावरण और सामाजिक प्रथाओं वाली कंपनियों में निवेश को आसान बनाकर इसमें मदद करेगी।’’ ये एएमसी जैसी कंपनियों के प्रति निवेशकों की भावना में बड़ा बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। उदाहरण के लिए, ब्लैक रॉक ने अपने एक ईटीएफ के जरिए ‘ईएसजीयू’ के तहत कारोबार किया था। ईसीजीयू को 2020 में नेट जीरो ऐसेट मैनेजर्स इनिशिएटिव के तहत शुरू किया गया था, जिसके हस्ताक्षरकर्ताओं की संख्या तब 30 थी। 2022 में यह संख्या बढ़कर 291 हो गई। इसकी कुल संपत्ति 66 खरब डॉलर थी। इससे इन प्रमुख औद्योगिक कंपनियों में उनकी हिस्सेदारी बढ़ गई है, जो स्पष्ट रूप से कॉर्पोरेट अमेरिका पर उनके बढ़ते प्रभाव को दिखाता है।
मुद्रा युद्ध और तीसरी दुनिया पर असर
वैश्विक राजनीति में किसी देश उठाया गया हर कदम परोक्ष रूप से विश्व व्यवस्था में उसकी शक्ति और स्थिति से जुड़ा होता है। वैश्विक महाशक्तियां तभी बनी रह सकती हैं, जब उनके पास मजबूत अर्थव्यवस्था, सेना, बुनियादी ढांचा, प्रौद्योगिकी, प्राकृतिक संसाधन और राजनीतिक शक्ति हो। ये सभी कारक उनकी ‘नरम’ और ‘कठोर’ शक्ति के निर्धारण में बड़ी भूमिका निभाते हैं। बीते कुछ वर्षों में चीन, रूस और हाल ही में भारत जैसे देशों द्वारा अपनी अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव से निपटने की कोशिशों के कारण अमेरिकी डॉलर को भारी चुनौती मिली है। ब्रिक्स देशों द्वारा ब्रिक्स मुद्रा के संभावित लांच की घोषणा, भारत-रूस, भारत-यूएई, चीन-रूस आदि देशों के बीच द्विपक्षीय मुद्रा विनिमय समझौते जैसे कदम आपसी लेनदेन में डॉलर पर निर्भरता को धीरे-धीरे घटाने के उद्देश्य से उठाए गए।
डॉलर का प्रभाव अमेरिका को विश्व के देशों के विभिन्न मुद्दों से संबंधित द्विपक्षीय व बहुपक्षीय लेन-देन या टकराव में अहम रणनीतिक बढ़त देता है। अमेरिकी विदेश नीति जितनी ताकतवर होगी, उसे प्रभावित करने वाले कॉपोर्रेट समूह की शक्ति उतनी ही अधिक होगी, इसलिए नियंत्रण भी अधिक होगा। भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका आदि तीसरी दुनिया और मालदीव, सेशेल्स जैसे देश विकासशील और अविकसित देश की श्रेणी में आते हैं। इन देशों में कॉरपोरेट्स प्रभावों की सीमा और इसके तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन उनकी कार्यशैली में एक महत्वपूर्ण समानता है। सबसे पहले इन अर्थव्यवस्थाओं का बाजारीकरण होता है, जिसके माध्यम से मेजबान देशों में अपने उत्पादों की बिक्री के लिए नए बाजार बनाए जाते हैं। यह बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्था बनाने, कुशल जनशक्ति को काम पर रखने आदि के लिए बेहतर तकनीक और वित्तीय संसाधनों का उपयोग करके किया जाता है और धीरे-धीरे बाजार पूंजीकरण को बढ़ाया जाता है। फिर बाजार में प्रभुत्व बनाने के लिए प्रतिस्पर्धियों को खरीद लिया जाता है।
इसके बाद अर्थव्यवस्थाओं के भीतर क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण करना, जिसके तहत आर्थिक गतिविधियों, व्यापार करने, नौकरी के सृजन के नाम पर भूमि के सामान्य कानून को बदल दिया जाता है और करों, सब्सिडी, श्रम कानूनों में छूट दे दी जाती है। इस तरह इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर उनका कब्जा हो जाता है। यह बात और है कि जिसके लिए इतना कुछ किया जाता है, उसकी चमक केवल ऊपरी हाती है। इसका सबसे बड़ा नकारात्मक परिणाम इन निगमों द्वारा किसी भी मुद्दे पर सार्वजनिक भावनाओं पर नियंत्रण के रूप में है, जिसे उनके निजी एजेंडे के अनुरूप किसी भी दिशा में मोड़ा जा सकता है।
इससे इन कंपनियों को भरपूर मुनाफा होता है, जबकि संबंधित देशों के हाथ से सार्वजनिक संसाधनों की संप्रभुता चली जाती है, विदेशी पूंजीवाद को वित्त पोषित करने के लिए कई क्षेत्रों में जनजातीय समुदायों का विस्थापन होता है, जिसके उदाहरण भारत में देखे जा सकते हैं। कुल मिलाकर यह अध्ययन इन कंपनियों के आपसी रिश्तों से लेकर अमेरिकी विदेश नीति और पूंजीवाद के संबंधों में जटिलता की ओर संकेत करता है, जिसकी डोर अंतत: ब्लैक रॉक जैसे एएमसी से जुड़ती है। डॉलर का वर्चस्व और सैन्य उद्योग जैसे विभिन्न मुद्दों को वैश्विक प्रणाली में धन के प्रवाह के विश्लेषण के माध्यम से तर्कसंगत रूप से समझा जा सकता है कि आखिरकार ये एएमसी किस तरह अपना प्रभाव बनाते हैं और विभिन्न हितधारकों के महत्वपूर्ण निर्णयों को प्रभावित करते हैं, जिनके वैश्विक दुष्परिणाम हो सकते हैं।
(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल के छात्र हैं)
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