पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने अपने देश के हिन्दू अल्पसंख्यकों को होली की बधाई
दी है।
बधाई देते उस बयान में कहा गया है कि पाकिस्तान को अपने देश की बहुभाषी, बहुजातीय और वैविध्यपूर्ण आस्था-विश्वास से भरी संस्कृति पर गर्व है।
इससे पहले पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में 700 हिंदू परिवारों को विशेष पैकेज देने की घोषणा हुई थी।
वाह! क्या कहने।
यह सब देख-सुन एक शेर याद आता है:
तेरे वादों पे कहां तक, मेरा दिल फरेब खाए।
कोई ऐसा कर बहाना, मेरी आस टूट जाए।
पाकिस्तानी राजनेता भले लाख बयान दें, चंद रुपल्ली के पैकेज का झुनझुना बजाएं, लेकिन वास्तविकता यही है कि कट्टरता के इस आंगन में अल्पसंख्यकों की आस टूटती ही रही है।
इन बयानों को सुनते हुए पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग (एचआरसीपी) की वह रिपोर्ट याद आती है जिसमें कहा गया था कि मुल्क में मजहबी अल्पसंख्यक अपनी पांथिक स्वतंत्रता और मान्यताओं का पालन करने (या वह लाभ उठाने, जिसकी गारंटी उन्हें संविधान में कथित तौर पर दी गई है) में सक्षम नहीं हैं। उस रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि अल्पसंख्यक समुदायों के उपासना स्थलों के साथ भेदभाव किया जाता है, युवतियों का जबरन कन्वर्जन कराया जाता है और रोजगार तक पहुंच में उनके साथ बहुत ज्यादा सौतेला व्यवहार होता है।
कट्टरता के ठोस धरातल पर केवल एक खास मजहब को मानने वालों का हित पोषण करने की बात को ध्यान में रखकर, और इसी उद्देश्य से जिस मुल्क की नींव रखी गई हो, वहां भला विविधता बच भी कैसे सकती है!
बयानों को एक ओर रख दें। पाकिस्तान के बदलते जनसांख्यिकीय परिदृश्य के माध्यम से एक स्याही-सी फैलती नजर आती है जिसमें विविधता के रंग खोते जा रहे हैं।
हताशा, निराशा की स्याही में लिपटी ये सिसकियां पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों, विशेषकर हिंदू समुदाय की कहानी हैं, उस समुदाय की जिसकी उपस्थिति देश के गठन के वक्त 23 प्रतिशत थी, जो आज घटकर 1.8 प्रतिशत रह गई है। यह एक ऐसी करुण कथा है जिस पर पूरे विश्व का ध्यान जाना चाहिए, क्योंकि यह पूरी मानवता के सार और उसके लिए उमड़ती आशंकाओं की बात करती है।
कभी सिंध में दुकान चलाने वाले और अब भारत में नागरिकता की बाट जोहते संजय कहते हैं, ‘‘एक समय हमारे मंदिर घंटियों और आरतियों की आवाज से गूंजते थे, अब लगता है, सन्नाटा ही एक आवाज है।’’ भय और अनिश्चितता के अभी भी उठने वाले अंधड़ पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की जिंदगी का हिस्सा हैं। आशंकाओं की तेज हवाएं यहां कन्वर्जन और पलायन को लगातार बढ़ावा देती हैं।
पाकिस्तान के इस नैतिक पतन की कहानी केवल इतिहास की स्याही से नहीं लिखी गई है। यह वतर्मान में भी जारी है, जबरन कन्वर्जन की कहानियां ग्रामीण क्षेत्रों में गूंजती रहती हैं।
युवा हिन्दू लड़कियों को दिनदहाड़े उठा ले जाने की घटनाएं, ऐसे षड्यंत्र रचने और राजनेताओं तक सम्पर्क रखने वाले ‘मियां मिट्ठू’ जैसे कट्टरता के पैरोकार और इस सब पर ऊंघती अदालतें पाकिस्तान की अंधेरों से भरी सचाई हैं।
भारत में नागरिकता संशोधन विधेयक और इससे जुड़ी चर्चाओं ने पाकिस्तानी हिंदुओं की दुर्दशा को सामने ला दिया है और अपनी मातृभूमि में उनके सामने आने वाली चुनौतियों को उजागर किया है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भले आज हिंदुओं को होली की शुभकामनाएं दें, किंतु सच यह है कि पाकिस्तान का सामाजिक ताना-बाना, लगातार तोड़ने-मरोड़ने के कारण बहुरंगी होने की बजाय बदरंग हो चला है।
2017 की जनगणना के अनुसार, पाकिस्तान की आबादी में आज हिंदू केवल 1.8 प्रतिशत हैं। यह भारी गिरावट उन कारकों के बारे में मार्मिक प्रश्न उठाती है जिन्होंने इस तरह के जनसांख्यिक बदलाव में योगदान दिया है।
विभाजन के साथ हुई हिंसक उथल-पुथल ने पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के मन में एक ऐतिहासिक भय भर दिया था। 1965 और 1971 के युद्धों ने आशंकाओं और इस दबाव को और अधिक बढ़ा दिया। हालांकि, हिंदू आबादी की गिरावट को केवल ऐतिहासिक संघर्षों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। सामयिक मुद्दे, जैसे कि जबरन कन्वर्जन, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, लगातार चिंता का विषय रहे हैं।
नाबालिग हिन्दू लड़कियों तक का जबरन कन्वर्जन करके अधेड़ उम्र के मुसलमानों से उनका जबरन निकाह कराए जाने की खबरें पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों से बार-बार सामने आती हैं।
पाकिस्तान का राजनीतिक परिदृश्य इन जनसांख्यिक परिवर्तनों से पूरी तरह अछूता नहीं रहा है। कुछ सामाजिक और राजनीतिक नेताओं के उत्तेजक बयान अक्सर विविधता के प्रति बिगड़ते दृष्टिकोण को दर्शाते हैं।
भारत में नागरिकता संशोधन विधेयक और इससे जुड़ी चर्चाओं ने पाकिस्तानी हिंदुओं की दुर्दशा को सामने ला दिया है और अपनी मातृभूमि में उनके सामने आने वाली चुनौतियों को उजागर किया है।
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भले आज हिंदुओं को होली की शुभकामनाएं दें, किंतु सच यह है कि पाकिस्तान का सामाजिक ताना-बाना, लगातार तोड़ने-मरोड़ने के कारण बहुरंगी होने की बजाय बदरंग हो चला है।
याद रखिए, समाज और नागरिकों का स्वरूप ही किसी देश की शक्ति को परिभाषित करता है।
इस कसौटी पर पाकिस्तान को देखें तो पाएंगे कि पिछले 7 दशकों में लगातार कबाइली सोच की तरफ बढ़ता और अक्खड़ तेवर दिखाता यह देश अपनी बहुमूल्य सामाजिक निधि यानी ‘विविधता’ को लगभग खो ही चुका है।
इसके साथ-साथ भ्रष्टाचार में डूबे और जवाबदेही से मुक्त परिवारवादी शासन ने पाकिस्तान के भविष्य के लिए और गंभीर संकट खड़े किए हैं।
अस्तित्व को चुनौती देते ऐसे कारकों के बीच राजनीतिक अस्थिरता पाकिस्तान के भविष्य की सम्भावनाओं को और अधिक जटिल या कहिए, धूमिल बना देती है।
विभाजन के समय पाकिस्तान संसाधनों की दृष्टि से सम्पन्न था, किन्तु कट्टरवादी आग्रह और अहंकार ने उसे ‘अजेय’ होने के भ्रम से भर दिया—होलिका को भी अग्नि के सामने ‘अजेय’ होने का ऐसा ही अहंकार था!
होली पर दिखावटी शुभकामनाएं देने वालों को इसका दार्शनिक-आध्यात्मिक पक्ष भी जान लेना चाहिए: खुद अहंकार में भरकर, दूसरे को भस्म करने की जिद ले डूबती है, क्योंकि गरीब की आह और सच की चाह, ईश्वर के कानों तक बड़ी जल्दी पहुंचती है।
पाकिस्तान के आकाओं को उसके अल्पसंख्यकों की ओर से होली का शायद यही संदेश है।
@hiteshshankar
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