‘ऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं’ पंक्ति देखते ही उत्तर प्रदेश के लोग ‘ठग्गू के लड्डू’ नाम से कनपुरिया मिठाई बेचने वाले राम अवतार को याद करते हैं, लेकिन दिल्ली आकर इन पंक्तियों का अर्थ बदल जाता है। दिल्ली वाले ठगी की बात होते ही समझ जाते हैं कि जिक्र मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का हो रहा है। केजरीवाल मतलब एक ऐसा चेहरा है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ कथित लड़ाई लड़कर राजनीति में आया।
उन्होंने 13 साल पहले रामलीला मैदान में महाराष्ट्र के सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में जिस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई, उसका बैनर इंडिया अगेंस्ट करप्शन का था। बाद के दिनों में उन्होंने अपने आंदोलन को राजनीतिक दल में बदल लिया। उनके इस कदम से अन्ना हजारे खुश नहीं थे। उन्होंने केजरीवाल से अपना रास्ता अलग कर लिया। कह सकते हैं कि अन्ना हजारे अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक यात्रा में पहले ऐसे व्यक्ति थे जो ठगे गए। उसके बाद तो एक लंबी श्रृंखला है। इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि किस तरह उसकी वेबसाइट पर अन्ना हजारे की तस्वीर लगी होती थी और अन्ना हजारे के नाम पर आंदोलन पैसा इकट्ठा कर रहा था।
अपनी तस्वीर पर अन्ना ने आपत्ति दर्ज की और उसे वेबसाइट से बाद में हटाया गया। आंदोलन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता के संस्मरण से यही लगता है कि अन्ना राजनीतिक दल बनने से पहले ही अरविंद केजरीवाल के चाल, चेहरा और चरित्र से परिचित हो गए थे। इसीलिए समय रहते उन्होंने अरविंद से खुद को अलग कर लिया था। आज अन्ना ने जो निर्णय 12 साल पहले लिया था, वह सही साबित हो रहा है। केजरीवाल को भ्रष्टाचार के आरोप में ईडी ने गिरफ्तार कर लिया है। हालांकि पेशा और राजनीति को एक साथ नहीं देखा जाना चाहिए, लेकिन उनकी लड़ाई न्यायालय में उसी कांग्रेस के नेता पेशे से वकील अभिषेक मनु सिंघवी लड़ रहे हैं, जिस पार्टी के खिलाफ अरविंद की भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी लड़ाई थी। उन्होंने एक-एक करके उन सभी नेताओं से हाथ मिलाया, जिनके खिलाफ वे जनसभाओं में संकल्प लिया करते थे और उन सभी साथियों को एक एक करके पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया, जो उनके आंदोलन के संस्थापक सदस्यों में और शुभचिंतकों में से थे।
संतोष कोली हुईं किसके षड्यंत्र की शिकार
सुंदर नगरी की सामाजिक कार्यकर्ता संतोष कोली को अरविंद केजरीवाल की कहानी लिखने वाला कोई भी व्यक्ति कैसे भूला सकता है। उसके घर का पता कभी केजरीवाल का पता हुआ करता था। उनको दिल्ली में जगह इसी परिवार ने दी और उन्होंने अनशन भी इसी घर से किया। उनके दल की सबसे सशक्त आवाज हुआ करती थी संतोष कोली। उसकी रहस्यमय परिस्थितियों में एक दुर्घटना में मौत हो गई। संतोष का परिवार आज भी न्याय के लिए दर-दर भटक रहा है। उन्हें लगता है कि उनकी बेटी की हत्या हुई है। वे आरोप केजरीवाल पर लगाते हैं।
संतोष की मां कलावती के अनुसार, संतोष के जाने से कुछ समय पहले अरविंद और उसके बीच कुछ तल्खी सी देखने को मिली। मां के अनुसार, कुछ ऐसा था जो संतोष को पता था। जिस दिन संतोष की हत्या हुई, वह दफ्तर नहीं जाना चाहती थी। उसे जिद करके ले जाया गया। संतोष की स्कूटी की जगह कुलदीप की बाइक पर उसे ले जाया गया और बाद में यह बाइक जली हुई हालत में मिली। दुर्घटना का ना कोई चश्मदीद मिला। ना कोई गवाह। बाइक चलाने वाले को कुछ नहीं हुआ। बाइक जलकर राख हो गई और बाइक पर पीछे बैठी संतोष को बचाया नहीं जा सका। यह ऐसी दुर्घटना थी, जैसी दुर्घटना ना पहले देखी गई और ना सुनी गई। संतोष की हत्या की बात सबने स्वीकारी, अरविन्द, मनीष और गोपाल राय सबने कहा कि इसकी जांच होगी। संतोष के इलाज के लिए ढेर सारा पैसा इकट्ठा किया गया और उस पैसे का हिसाब भी परिवार को नहीं मिला। संतोष के इलाज, मामले के एफआईआर और उसकी मृत्यु तक से परिवार को दूर रखा गया। कलावती के अनुसार उनका बयान तक नहीं होने दिया गया।
कलावती के अनुसार अरविंद केजरीवाल ने पूरे मामले की जांच कराने से साफ इंकार कर दिया। उसके जाने के बाद कभी पलट कर उसके परिवार का हाल तक देखने नहीं गए। संतोष को लेकर जो कार्यक्रम हुए, वहां भी परिवार के लोगों को दाखिल नहीं होने दिया गया। अरविंद और उनके लोगों को किस भेद के खुल जाने का भय था, यह सवाल आज भी संतोष कोली का परिवार पूछ रहा है। सच तो यही है कि आम आदमी पार्टी ने उस परिवार को पूरी तरह भुला दिया है।
मनीष नतमस्तक रहे, इसलिए साथ बना रहा
मनीष सिसोदिया और केजरीवाल ‘कबीर’ और ‘परिवर्तन’ के जमाने के मित्र हैं। सिसोदिया एनजीओ चलाने के लिए मीडिया छोड़कर आए थे और केजरीवाल अपनी सरकारी नौकरी। केजरीवाल का इतिहास बताता है कि उन्हें अपनी पार्टी में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं चाहिए, जिसका कद उनसे अधिक बड़ा दिखता हो। न्यूयार्क टाइम्स में सिसोदिया को केंद्र में रखकर पूरे पृष्ठ की खबर छपी। ऐसा लगा कि वैश्विक मीडिया में मनीष की चर्चा अरविंद को अच्छी नहीं लगी। मनीष ने उस कवरेज के बाद एक प्रेस कांफ्रेन्स में आकर कहा ”केजरीवाल मेरे राजनीतिक गुरू हैं और इन्हें छोड़ने की मैं कभी सोच नहीं सकता।” यहां मीडिया ने अरविंद को छोड़ने से जुड़ा कोई प्रश्न भी नहीं पूछा था। मनीष के जवाब से ऐसा लगा जैसे कि यह जवाब एक स्क्रिप्ट है, जिसे सिसोदिया अपने नेता केजरीवाल के लिए पढ़ रहे थे क्योंकि पार्टी के अंदर ‘सुप्रीम लीडर’ को विश्वास दिलाना जरूरी है कि ‘मनीष’ से उन्हें खतरा नहीं है।
अराजकता की मिसाल
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की दुहाई देकर जिस आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था, उस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र जैसा कुछ बचा नहीं है। पारदर्शिता की बात उस पार्टी के किसी भी मंच पर करना ही अपराध माना जाने लगा है। लोकपाल को वे पूरी तरह भूल चुके हैं। 26 नवंबर 2012 को जब आम आदमी पार्टी के बनने की औपचारिक घोषणा जंतर-मंतर से हुई थी। उस घोषणा से पहले एक जनमत संग्रह कराया गया था कि अरविंद को राजनीतिक पार्टी बनानी चाहिए या नहीं? यह दुर्भाग्य की बात थी कि जंतर-मंतर पर अरविंद के साथ अनशन पर बैठे दो सौ से अधिक कार्यकर्ताओं से इस संबंध में सलाह करने की केजरीवाल ने जरूरत तक महसूस नहीं की थी।
आंदोलन के साथ सक्रियता से जुड़े रहे कार्टूनिस्ट असीम ने 4 अगस्त 2012 को लिखा था – ‘‘उस रात राजनीतिक पार्टी बनाने के संकेत हमें मिल गए थे और हमें तय करना था कि हम इस राजनीतिक अभियान में उनके साथ खड़े होंगे या फिर अपनी अलग राह तलाशेंगे।’’
असीम ने आगे लिखा – ‘‘हमने वहाँ मौजूद सभी वालेंटियर्स और समर्थकों से रात भर चर्चा की और तय किया कि हम इस कदम का विरोध करेंगे और अन्ना से ये निर्णय वापस लेने का अनुरोध करेंगे। हमें काफी प्रतिरोधों का भी सामना करना पडा। हमारे पोस्टर और बोर्ड तोड़ दिए गए, हाथापाई और मारपीट की भी नौबत आयी, पर इसके बावजूद हमने अपना विरोध दर्ज कराया। वालेंटियर्स ने अपने कार्ड वापस कर दिए और अंतिम दिन खुद को अनशन से दूर रखा लेकिन इसके बावजूद हम सबकी मांग को खारिज कर दिया गया। उल्टा ये सुनने में आया कि कुछ लोग जायेंगे तो कुछ नए लोग आयेंगे।’‘
असीम ने अपनी बात जारी रखते हुए लिखा – ‘‘निराशा हुई कि जय प्रकाश के बाद भारत का ये सबसे बड़ा आन्दोलन बेहद अलोकतांत्रिक ढंग से खत्म हो गया। हम सब इतने लम्बे समय से एक आन्दोलन की, एक क्रांति की नींव तैयार कर रहे थे न की एक राजनीतिक पार्टी की। हमने तय किया है कि इस राजनीतिक विकल्प का हश्र चाहे जो भी हो हम इसके साथ नहीं खड़े होंगे और पहले की तरह विरोध की राह पर आगे चलते हुए संघर्ष की इस परम्परा को आगे बढ़ाएंगे। जरुरत पड़ी तो समय आने पर इस राजनीतिक पार्टी और इसके सत्ताधारियों के खिलाफ खड़े होने से भी नहीं हिचकेंगे।’’
झूठे आरोप टिकते कब तक
गत 12 वर्षो में गांधीवादी अन्ना हजारे के सपनों का आंदोलन शराब की गर्त में जा चुका है। 19 अगस्त 2022 को सिसोदिया ने ट्वीट किया था – ‘‘ये लोग दिल्ली की शिक्षा और स्वास्थ्य के शानदार काम से परेशान हैं। इसीलिए दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री और शिक्षा मंत्री को पकड़ा है ताकि शिक्षा स्वास्थ्य के अच्छे काम रोके जा सकें।’’
जब कुछ समझ नहीं आया तो मनीष ने मीडिया के सामने आकर आरोप लगाया कि उन्हें भाजपा के एक नेता ने पार्टी तोड़कर भाजपा में शामिल होने का प्रस्ताव दिया है। बदले में उनके ऊपर चल रहे सारे मुकदमे वापस लेने की बात थी। उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की बात थी। जबकि सिसोदिया ने आरोप लगाने के बाद ना उस व्यक्ति का नाम सार्वजनिक किया और ना ही बातचीत का टेप जारी किया है। इस संबंध में एबीपी न्यूज ने सी वोटर सर्वे के साथ मिलकर एक सर्वेक्षण किया। जिसमें उन्होंने सवाल पूछा कि मनीष सिसोदिया को बीजेपी नेता के कथित कॉल का खुलासा करना चाहिए या नहीं? इस सर्वेक्षण में 70 फीसदी लोगों ने कहा कि सिसोदिया को भाजपा नेता का नाम सार्वजनिक करना चाहिए। उनके फोन की रिकॉर्डिंग हो तो उसे भी मीडिया को देना चाहिए। साल 2024 चल रहा है। मनीष जेल में हैं लेकिन ना वह रिकॉर्डिंग सामने आई और ना उस नेता का नाम मनीष ने आज तक लिया। ऐसे हवा-हवाई दावे अब तो आम आदमी पार्टी की यूएसपी बन गई है।
2022 में पार्टी तोड़ने का जो आरोप सिसोदिया भाजपा पर लगा रहे हैं, वर्ष 2013 में यही आरोप अरविंद केजरीवाल भी भाजपा पर लगा चुके हैं। केजरीवाल ने आरोप लगाया था कि ‘पिछले चार महीनों में भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली के लोगों को अपने काले पैसे से खरीदने की कोशिश की। लेकिन ये आम आदमी पार्टी के एमएलए हैं। यह पहली बार भारत के इतिहास में हुआ कि एक भी एमएलए नहीं बिका।’’
आप के नेता का केजरीवाल पर खुलासा
उस आरोप पर एक बड़ा खुलासा आम आदमी पार्टी के युवा नेता और करनाल से पार्टी के उम्मीदवार रहे परमजीत कात्याल ने किया था। परमजीत ने एक साक्षात्कार में अरविंद के षडयंत्र की पूरी कहानी कुछ इस तरह से सुनाई थी –
‘‘मेरे पास फोन आया कि आप जल्दी आइए। पांच लोगों को जो 24 घंटे आपके साथ रहते हैं, उन्हें साथ लेकर आइए। हम चार बजे करनाल पहुंचते हैं। जीतने के अगले दिन की बात है यह। चार बजे हम चल पड़े। साढे पांच-छह बजे हम दिल्ली के बोर्डर के पास होते हैं। हमे वहीं रुकने के लिए कह दिया जाता है। सोनीपत पार करके दिल्ली बॉर्डर से थोड़ा पहले आप रुक जाइए। हम रुक गए। चाय कॉफी लिया हमने। शाम साढ़े सात का वक्त हो गया था। वहां हमें एक शख्स मिला। उसने हमें दो सिम कार्ड दिए। बताया गया कि इसे फोन में डाल लीजिए। हमने डाल लिए। फिर हमें फोन आया कि आप इन पच्चीस लोगों को फोन कीजिए। हमने एक एक कर फोन घुमाने शुरू किए। हमें जो जो बताया गया था वह हमने बोलना शुरू कर दिया कि हम नितिन गडकरी जी के आफिस से बोल रहे हैं या हम अरुण जेटली के ऑफिस से बोल रहे हैं। हम एक एक कर सबसे बात कर रहे थे। हमें बताया गया था कि यह सब लोग बीजेपी की तरफ जा सकते हैं। आप इनका मन टटोलो। ऐसा होता है तो हमें सूचना दो। फिर हम इनकी घेराबंदी करेंगे। मजे की बात देखिए कि जहां हम चाय पी रहे हैं, वहीं एक टीवी स्क्रीन चल रही है। सामने हमने जब मुड़कर देखा तो अरविंद केजरीवाल टीवी पर। केजरीवाल कह रहा है कि मेरे एमएलए को भारतीय जनता पार्टी वाले फोन कर रहे हैं। खरीद फरोख्त की बात कर रहे हैं और 35 लाख रुपए देने की ऑफर कर रहे हैं। पहली बार माथा ठनका वहां। यह तो हमसे करवा रहे हैं और टीवी पर साफ इतना बड़ा झूठ बोल दिया। पहली बार एहसास हुआ था कि हम गलत काम कर रहे है।’’
परमजीत सिंह कात्याल के 2014 के साक्षात्कार का यह हिस्सा निकाल कर यदि दो साल पुराने मनीष सिसोदिया की कहानी के साथ जोड़ दिया जाए तो ऐसा लगेगा कि आठ-नौ साल पुरानी वही कहानी आम आदमी पार्टी ने फिर से दोहरा दी। अरविंद और उनके प्रवक्ता कुछ समय पहले फिर से विधायकों की खरीद-फरोख्त का दावा करते हुए पाए गए। यह बात अलग है कि आज तक टेप एक भी जारी नहीं किया उन्होंने।
यह अरविंद केजरीवाल ही थे जिन्होंने शांतिभूषण, आनंद कुमार, अंजली दमानिया, मयंक गांधी, कैप्टन गोपीनाथ, कपिल मिश्रा, मीरा सान्याल, कुमार विश्वास, आशुतोष गुप्ता, किरण बेदी, शाजिया इल्मी, आशीष खेतान, योगेन्द्र यादव समेत कई बड़े और आम आदमी पार्टी में सक्रिय नामों को किनारे लगा दिया। उसके बाद इस बात में कोई संदेह नहीं बचा कि पार्टी पूरी तरह से अरविंद की है, पार्टी के अंदर अब ना लोकतंत्र है और ना कोई पारदर्शिता बची है।
केजरीवाल का कोई सगा नहीं
उस ऑडियो टेप को दिल्ली वाले नहीं भूले होंगे जिसमें अरविंद बुरी तरह से पार्टी के वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार को गालियां देते हुए लात मारकर पार्टी से बाहर करने की बात कर रहे हैं। इस पूरे प्रकरण के बाद ही यह बात साफ हो गई थी कि आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल के इशारे पर चलने वाली पार्टी बनकर ही चल पाएगी।
आम आदमी पार्टी के छोटे से इतिहास को कोई भी उठाकर देख सकता है कि पार्टी के अंदर उसे ही जगह मिली जिसने अरविंद केजरीवाल की नजरों में अपने लिए जगह बनाई और जिसने असहमति का स्वर बुलंद किया उसने पार्टी के अंदर इसकी कीमत चुकाई। या फिर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
बहरहाल केजरीवाल ईडी की गिरफ्त में हैं और दिल्ली की सरकार जेल से केजरीवाल ही चलाएंगे। यह है भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष से सामाजिक जीवन की यात्रा प्रारंभ करने वाले अरविंद केजरीवाल की आकंठ भ्रष्टाचार में डूबने तक की कहानी।
(आशीष कुमार अंशु एक पत्रकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। आम आदमी पार्टी को नजदीक से बनते और टूटते हुए देखा है)
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