सीएए को लेकर विरोध लगातार जारी है। यह विरोध अब देश के सीमाएं पार कर गया है और सबसे हास्यास्पद है पाकिस्तान जैसे देश का इस कानून के विरोध में यह कहना कि यह धार्मिक आधार पर भेदभावपूर्ण है। पाकिस्तान से कई वीडियो आ रहे हैं, जिनमें तरह तरह की बातें की जा रही हैं। सबसे महत्वपूर्ण वहां के कुछ समझदार युवाओं का यह कहना है कि इस कानून के आते ही पाकिस्तान का ऐसा चेहरा पूरे विश्व के सामने आया है, जो अपने अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा से भरा हुआ है।
एक वीडियो में एक युवा यह कह कह रहा था कि लोग क्या सोचेंगे पाकिस्तान के बारे में? जो बात वह युवा कह रहा था, दरअसल विमर्श के स्तर पर वही बात पाकिस्तान को परेशान कर रही है। 1947 से लेकर अभी तक, अपने मजहब के नाम पर भारत का एक बड़ा भूभाग ले लेने के बाद भी पाकिस्तान के हुक्मरानों ने भारत के एक बड़े कथित प्रगतिशील वर्ग के साथ मिलकर यह विमर्श गढ़ने का प्रयास किया कि भारत में अल्पसंख्यकों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जा रहा है, उन्हें धार्मिक आजादी नहीं है आदि आदि! मगर दरअसल हो उलटा रहा था।
जहां भारत में लगातार अल्पसंख्यकों की जनसंख्या, उनके धार्मिक स्थलों एवं उनके तालीम के स्थानों की भी संख्या लगातार बढ़ रही थी, तो वहीं पाकिस्तान से लगातार अल्पसंख्यकों की पीड़ा सामने आ रही थी। यह प्रश्न बार-बार उठता है कि आखिर जब भारत विभाजन के समय और पाकिस्तान के जन्म के समय वर्ष 1947 में वहां पर लगभग 22% हिन्दू हुआ करते थे तो अब 1।6 प्रतिशत हिन्दू ही शेष कैसे हैं? आखिर वे लोग कहाँ चले गए? हिन्दुओं और सिखों आदि के साथ क्या हुआ आखिर? बौद्ध, जैन, पारसी एवं ईसाई समुदाय की स्थिति कैसी हैं वहां पर? क्या वहां पर हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख विरासतों का ध्यान रखा जा रहा है? जब सीएए की बात हो रही है तो यह भी बात होनी चाहिए कि पाकिस्तान में जो गैर-मुस्लिम धार्मिक विरासतें हैं, उनके साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है? क्या हुआ हिन्दुओं की उन बड़ी-बड़ी हवेलियों का? क्या हुआ हिन्दुओं के मंदिरों का? क्या अपनी मजहबी पहचान से परे होकर पाकिस्तान ने अपने सांस्कृतिक प्रतीकों को पहचानने की या फिर उन्हें उनकी असली पहचान देने की कोशिश की?
जब पाकिस्तान के हुक्मरान और वहां की आवाम इस बात का उत्तर खोजने का प्रयास करेगी तो उसे इस झूठी चिंता की आवश्यकता नहीं होगी कि सीएए के आने से उसकी वैश्विक छवि पर गलत असल पड़ रहा है। अपने अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव तो रघुवंशी भरत के पुत्र तक्ष के नाम पर बसे तक्षशिला नगर के तक्षशिला विश्वविद्यालय को टैक्सिला उच्चारण करने से ही व्यक्त हो जाता है। तक्षशिला केवल हिन्दुओं के लिए ही नहीं बल्कि बौद्ध पंथ के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जहां तक्षशिला का नाम रामायण के इतिहास तक जाता है तो वहीं कालांतर में तक्षशिला शिक्षा का एक महत्वपूर्ण बौद्ध केंद्र था।
परन्तु उसका नाम पूरी तरह से समाप्त करके टैक्सिला बोला जाता है और हिन्दू एवं बौद्ध समुदाय के लिए उसकी पहचान का इतिहास मिटाकर उसे एक एकदम अलग पहचान सौंप दी जाती है। हिन्दुओं की श्रद्धा का सबसे बड़ा प्रतीक शारदापीठ, जो पाकिस्तान द्वारा जबरन हथियाए हुए कश्मीर में है और दैनिक जागरण में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार ऑल इंडिया पाकिस्तान हिंदू राइट्स मूवमेंट ने पीछले वर्ष अपने एक सर्वे में कहा था कि 1947 में दोनों देशों के बीच बंटवारे के वक्त पाकिस्तान में 428 मंदिर थे, लेकिन 1990 के दशक तक 408 मंदिरों के अस्तित्व समाप्त हो चुके हैं। यानी आजादी के बाद से पाकिस्तान में उस वक्त के महज 20 मंदिर ही शेष बचे हैं। अब इन मंदिरों के स्थान पर दुकानें, रेस्टोरेंट, होटल, सरकारी स्कूल या मदरसे खुल गए हैं।
बहुत से लोगों को अभी तब वह वीडियो याद में होगा ही जिसमें पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में मिली गौतम बुद्ध की एक प्राचीन प्रतिमा को तोड़ दिया गया था। उस समय इस घटना से भारत सहित पूरा विश्व स्तब्ध रह गया था कि आखिर अल्पसंख्यकों के प्रतीकों के साथ इस सीमा तक घृणा कैसे कोई समुदाय कर सकता है? पाकिस्तानी मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, यह प्राचीन मूर्ति मर्दन जिले के तख्त भाई क्षेत्र में एक घर के निर्माण के दौरान मिली थी। जिसे स्थानीय मौलवी के गैर इस्लामी बताने पर निर्माण में लगे श्रमिकों ने हथौड़ों की मदद से तोड़ दिया था।
हालांकि इसे लेकर कुछ लोगों को हिरासत में जरूर लिया गया था। पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों को लेकर इस प्रकार की असहिष्णुता के यह कुछ ही उदाहरण हैं, क्योंकि जब और खंगाला जाएगा तो और भी कई उदाहरण सामने आएँगे। जैसे न्यायालय के आदेश के बाद भी अभी तक लाहौर में शादमान चौक का नाम शहीद भगत सिंह के नाम पर नहीं किया गया है।
पाकिस्तान में हर हिन्दू विरासत का नाम बदल दिया गया है जो धार्मिक अल्पसंख्यकों पर किया जाने वाला सबसे बड़ा भेदभाव और अत्याचार है। इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि वह भूमि दरअसल बौद्ध और हिन्दू समुदाय के ही लोगों की पहचान के साथ जुड़ी है, मगर उनकी ही पहचान को मिटाया जा रहा है। यह एक ऐसा अत्याचार है जिसे पाकिस्तान के हुक्मरान, आवाम, और अन्तर्राष्ट्रीय विमर्श को समझने वाले लोग समझते हैं, मगर चूंकि इस विषय में बात करने पर लगभग हर औपनिवेशिक शक्ति पर उंगली उठेंगी तो इस विषय पर मौन रहना ही ठीक समझा जाता है।
फिर भी टैक्सिला की तक्षशिला की पहचान नहीं भुलाई जा सकती है और न ही बामियान के बुद्ध भुलाए जा सकते हैं, मगर शोर तो मचाया जा सकता है कि ऐसा कुछ नहीं किया जा रहा है, जबकि सीएए का लागू होना हिन्दू एवं बौद्ध, जैन, ईसाई, पारसी समुदायों के साथ होने वाले धार्मिक अत्याचारों को ही पूरी दुनिया के सामने नहीं लाता है, बल्कि वह उन अत्याचारों को भी पूरी दुनिया के सामने रखता है, जिसे देखने से पश्चिम लगातार इंकार करता आ रहा है, तभी औपनिवेशिक सोच वाली शक्तियाँ इस कानून के लागू होने का विरोध कर रही हैं।
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