जिस तरह आज भारतभूमि की आध्यात्मिक विभूतियां सनातन वैदिक संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा को पूर्ण प्रतिबद्धता से जुटी हुई हैं; सनातन संस्कृति के जनजागरण का ऐसा ही तुमुल शंखनाद 19वीं सदी में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने गुलाम भारत में किया था।
सन 1824 में फाल्गुन कृष्ण दशमी को (इस वर्ष 5 मार्च 2024) को काठियावाड़ (गुजरात) के राजकोट जिले के टंकारा गाँव के एक समृद्ध शिवभक्त ब्राह्मण परिवार में जन्मे भारतभूमि के इस महामनीषी के बचपन का नाम मूलशंकर था। 1846 में 22 साल की युवावस्था में वे घर छोड़कर सद्गुरु की खोज में निकल पड़े और वेदों के प्रकांड विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानंद पर आकर उनकी तलाश पूरी हुई। कठोर परीक्षा के उपरांत स्वामी विराजानंद ने उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया। गुरु सानिध्य में तकरीबन डेढ़ दशक तक वेद-वेदांग, योगसूत्र और व्याकरण का गहन अध्ययन-अनुशीलन कर उन्होंने संन्यास की दीक्षा ली और मूलशंकर से स्वामी दयानंद सरस्वती बन गये। स्वामी विराजानंद ने गुरु दक्षिणा में उनसे वैदिक धर्म का पुनरुद्धार मांगा और गुरुआज्ञा शिरोधार्य कर स्वामी जी आजीवन भारत की सनातन वैदिक संस्कृति की पुनः स्थापना के पुनीत लक्ष्य में जुटे रहे।
राष्ट्रीय नवजागरण के लिए आर्यसमाज की स्थापना
विदेशी संस्कृति के अन्धानुकरण के चलते 19वीं सदी के दासताकाल में जब देशवासी भारत के प्राचीन गौरवशाली जीवनमूल्यों और स्वधर्म से विमुख हो रहे थे और सनातन वैदिक संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रही थी; उस अन्धयुग में देश की नब्ज टटोलने और धर्म विमुख हिन्दू जनता को भारत की आध्यात्मिक शक्ति से जोड़ने के लिए स्वमी जी ने 1863 से 1875 तक 12 वर्ष तक समूचे देश में सुदीर्घ पद यात्राएं की। तदुपरांत सन 1875 में उन्होंने बंबई (अब मुंबई) में आर्यसमाज की स्थापना की। उन्होंने वेदों को समस्त ज्ञान एवं धर्म के मूल स्रोत और प्रमाण ग्रंथ के रूप में स्थापित कर समाज में प्रचलित मिथ्या धारणाओं और अनुचित पुरातन परंपराओं का खंडन किया। 1867 ई0 में हरिद्वार में कुम्भ के दौरान स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने ‘’पाखंड खंडनी पताका’’ फहराकर अधर्म, अनाचार और धार्मिक शोषण के खिलाफ धर्मयुद्ध की घोषणा की थी। महर्षि दयानंद ने ही सर्वप्रथम उद्घोष किया था कि एकमात्र वेद ही सब विद्याओं का मूल आधार है। इसलिए वेदों का अध्ययन सभी देशवासियों का परम धर्म है। उन्होंने वेदों के अध्ययन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त किया था। पराधीन भारत में भारतीयों की निर्धनता, अशिक्षा, व्यभिचार, विधवा व अनाथों की दुर्दशा, अछूतों की दीनदशा तथा धर्म के नाम पर छल-कपट से स्वामी जी के अंतस को बहुत पीड़ा होती थी। इस पीड़ा के निवारण के लिए उन्होंने समूचे भारत में आर्यसभाओं का गठन कर स्त्री शिक्षा, अछूतोद्धार, परतंत्रता निवारण, विधवा रक्षण, अनाथ पालन, सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता, जन्मगत जाति के स्थान पर गुण-कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था तथा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली प्रचार प्रसार के लिए राष्ट्रव्यापी जनांदोलन चलाये थे। भारतीय पुनर्जागरण के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती योगी होने के साथ वेदों के प्रकांड विद्वान भी थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश, यजुर्वेद भाष्य, पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेद भाष्य, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदांग प्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कार विधि, गो-करुणानिधि, संस्कृत वाक्यप्रबोध, भ्रान्ति निवारण, अष्टाध्यायी भाष्य और व्यवहारभानु जैसी कई पुस्तकें लिखीं थीं। उनकी प्रारम्भिक पुस्तकें संस्कृत में थीं, किन्तु बाद में उन्होंने कई पुस्तकों को हिंदी में भी लिखा, क्योंकि हिंदी की पहुँच संस्कृत से अधिक थी। कहा जाता है कि हिन्दी को ‘आर्यभाषा’ का नाम स्वामी दयानन्द ने ही दिया था।
शुद्धि आंदोलन के सूत्रधार
कहा जाता है कि धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: स्वधर्म में लौटने की प्रेरणा सर्वप्रथम स्वामी दयानंद ने ही दी थी। जानकार सूत्रों के अनुसार स्वामी दयानंद ने सबसे पहली शुद्धि अपने देहरादून प्रवास के समय एक मुसलमान युवक की थी और उसे अलखधारी नाम दिया था। बाद में उनके शिष्य स्वामी श्रद्धानंद ने देशभर में शुद्धि सभाओं का गठन कर बड़ी संख्या में उन लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में आने का मौका मिला, जिन्होंने लोभ, लालच, जान-माल के भय, बहकावे तथा हिन्दू धर्म की छुआछूत आदि रूढ़ियों के कारण इस्लाम तथा ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था।
स्वराज के प्रथम मंत्रद्रष्टा
स्वामी दयानंद सरस्वती धर्म सुधारक ही नहीं समाज सुधारक और सच्चे राष्ट्रवादी भी थे। 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में स्वामी जी ने राष्ट्र को मार्गदर्शन दिया और उनका कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं है। उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे। देश की आजादी के यह इतने बड़े समर्थक थे कि इन्होंने गर्वनर जनरल लॉर्ड नार्थब्रुक से साफ-साफ कह दिया था कि ‘मेरे देशवासियों को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो।’ यही कारण था कि अंग्रेज उनसे नाराज हो गये थे। बालगंगाधर तिलक ने कहा था कि – स्वराज का मंत्र सबसे पहले स्वामी दयानंद सरस्वती ने ही दिया था। सरदार पटेल का भी कहना था ‘भारत की स्वतंत्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने रखी थी।’ एनी बेसेंट ने कहा था कि स्वामी दयानन्द ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि ‘भारत भारतीयों के लिए है।’ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्रांति के साथ परतंत्रता में जकड़े देश को आजादी दिलाने के लिये राष्ट्रीय क्रांति का बिगुल भी बजाया था। अपने प्रवचनों में वे श्रोताओं को प्रायः राष्ट्रवाद का उपदेश देते थे और देश के लिए मर मिटने की भावना भरते थे। सन् 1857 की क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना स्वामीजी के नेतृत्व में ही तैयार की गयी थी। क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, भाई परमानंद, सेनापति बापट, मदनलाल धींगरा, डीएवी कालेज लाहौर में इतिहास और राजनीति के प्रो जयचंद्र विद्यालंकार और प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह और पिता किशन सिंह विशुद्ध आर्यसमाजी थे। आर्यसमाज के जाने माने विद्वान डॉ. अजीत आर्य के अनुसार उस समय क्रांतिकारियों को आश्रय देने का साहस केवल आर्यसमाज के सदस्यों में ही था। काकोरी कांड को अंजाम देने से पूर्व दो दिन पहले काकोरी कांड की योजना मुरादाबाद आर्य समाज में ही बनायी गयी थी, जिसमें चंद्रशेखर आजाद, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लहरी आदि क्रांतिकारी उपस्थित थे।
एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का समर्थन
स्वामी दयानंद ने गाँधी जी से बहुत पहले ही यह समझ लिया था कि हिन्दी ही राष्ट्रीय एकता की स्थापना करने वाली सक्षम भाषा है। यद्यपि दयानन्द जी की मातृभाषा गुजरती थी, उनका अध्ययन और शिक्षण संस्कृत के माध्यम से हुआ था, फिर भी उन्होंने अपनी अनेक कृतियों, लेखों एवं व्याख्यानों में हिन्दी भाषा का ही प्रयोग किया। इसके पीछे उनका स्पष्ट दृष्टिकोण था कि जिस देश में एक भाषा, एक धर्म तथा एक वेशभूषा को महत्व नहीं दिया जाएगा, उसकी एकता निरन्तर डॉवाडोल ही रहेगी। वे चाहते थे कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे देश की एक भाषा हो।’ इसीलिए उन्होंने हिन्दी को आर्यभाषा के रूप में स्थापित करने का सघन अभियान चलाया था। धर्म सुधार और समाज सुधार के लिए उन्होंने हिंदीभाषा में ही प्रचार किया। स्वयं गुजराती तथा संस्कृत के उद्भट विद्वान होते हुए भी उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का प्रकाशन हिंदी में ही करवाया था।
गोरक्षा के लिए भी चलाया था आन्दोलन
महर्षि दयानन्द ने अपने समय में गोरक्षा का आन्दोलन भी चलाया था। इसके लिए वे वह अनेक बड़े अंग्रेज राज्याधिकारियों से मिले थे और गोरक्षा के पक्ष में अपने तर्कों से उन्हें गो हत्या को बंद करने के लिए सन्तुष्ट कर सहमत किया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को भेजने की योजना भी बनायी थी जो तेजी से आगे बढ़ रही थी परन्तु विष के द्वारा उनकी हत्या कर दिये जाने के कारण गोरक्षा का कार्य अपने अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुंच सका।
ईश्वर से गोरक्षा की प्रार्थना करते हुए वह ‘गोकरुणानिधि’ पुस्तक की भूमिका में महर्षि दयानन्द लिखते हैं , ‘’सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर इस सृष्टि के सभी मनुष्यों की आत्मा में दया और न्याय भाव को प्रकाशित करें जिससे वे सब दया और न्याययुक्त होकर गाय जैसे दैवीय जीवों का विनाश न करें ताकि गोदुग्ध के सेवन उत्तम स्वास्थ्य और गो आधारित कृषि से भारत भूमि की समद्धि बढ़े। इस ग्रन्थ में स्वामी जी ईश्वर से प्रार्थना करते हुए आगे लिखते हैं कि वह गो का मांस खाने वाले मनुष्यों के हृदयों में सत्य ज्ञान का प्रकाश करे जिससे वह गोहत्या व गोमांस भक्षण का त्याग करके गो हत्या के महापाप और ईश्वर के दण्ड से बच सकें।‘’
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