हिंदी की तरक्की कोई रोक रहा है तो वे यही लोग हैं जो अनगिनत हिंदी प्रयोक्ताओं को आधुनिक तकनीकी बदलावों से दूर रखने पर अड़े हुए हैं।
हिंदी प्रयोक्ताओं द्वारा कुछ दशकों तक कंप्यूटर पर इस्तेमाल किया जाने वाला रेमिंगटन कीबोर्ड कब का अप्रासंगिक हो चुका है। वह नए जमाने की प्रौद्योगिकी के अनुकूल नहीं है, इसलिए तमाम तकनीकी कंपनियों (माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, गूगल, सीडैक आदि) ने उसे त्याग दिया है। कोई भी कंपनी, अगर बाजार में उसके किसी उत्पाद की मांग है, तो उसे तभी त्याग सकती है जब वह उसकी व्यर्थता, अप्रासंगिकता और उसका कोई भविष्य न होने के बारे में आश्वस्त हो। फिर भले उसे आर्थिक नुकसान क्यों न उठाना पड़े।
रेमिंगटन कीबोर्ड के बारे में भी यही सच है। हालांकि अनेक लोग उसे आज भी इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि वे इसके लिए किसी न किसी रूप में विवश हैं। या तो कुछ नया सीखने की इच्छा के अभाव में या फिर ऐसे कारणों से, जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है, जैसे कि पुराने पड़े सिस्टम पर निर्भरता। डिजिटल तकनीक की दुनिया में किसी उत्पाद या संस्करण की आयु दस साल मानी जाती है। रेमिंगटन को तो 40 साल हो चुके हैं।
जैसा कि नाम से जाहिर है, रेमिंगटन कीबोर्ड रेमिंगटन ‘टाइपराइटर’ पर आधारित था और वह टाइपराइटर भी दशकों पहले बिकना बंद हो चुका है। हम ‘प्रगति’ की बात कर रहे हैं और तकनीकी दृष्टि से रेमिंगटन ‘अवनति’ का प्रतीक है। इसी तरह से गैर-यूनिकोड फॉन्ट भी अवनति के ही प्रतीक हैं। यदि इनके चक्कर में लगे रहे तो फिर न स्पीच टू टेक्स्ट संभव होगा और न ही मशीनी अनुवाद। न ही इंटरनेट सर्च और न ही लोकलाइजेशन। न हिंदी की वेबसाइटें और न हिंदी के मोबाइल एप्लीकेशन।
कंप्यूटर पर इस्तेमाल किया जाने वाला रेमिंगटन कीबोर्ड कब का अप्रासंगिक हो चुका है। वह नए जमाने की प्रौद्योगिकी के अनुकूल नहीं है, इसलिए तमाम तकनीकी कंपनियों (माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, गूगल, सीडैक आदि) ने उसे त्याग दिया है।
आज के सभी पेजमेकिंग सॉफ्टवेयर यूनिकोड फॉन्ट का अत्यन्त सुगमता से प्रयोग करते हैं (इनडिजाइन, क्वार्क एक्सप्रेस, कोरल ड्रॉ, माइक्रोसॉफ्ट पब्लिशर आदि), लेकिन लोग उन्हें खरीदते नहीं हैं, क्योंकि वे पाइरेटेड रूप में (50-100 रुपय की सीडी में) उपलब्ध नहीं हैं। वह सीडी बहुत ‘सुविधाजनक’ थी, लेकिन गैरकानूनी थी।
रेमिंगटन कीबोर्ड रेमिंगटन ‘टाइपराइटर’ पर आधारित था और वह टाइपराइटर भी दशकों पहले बिकना बंद हो चुका है। हम ‘प्रगति’ की बात कर रहे हैं और तकनीकी दृष्टि से रेमिंगटन ‘अवनति’ का प्रतीक है। इसी तरह से गैर-यूनिकोड फॉन्ट भी अवनति के ही प्रतीक हैं।
हिंदी की तरक्की कोई रोक रहा है तो वे यही लोग हैं जो अनगिनत हिंदी प्रयोक्ताओं को आधुनिक तकनीकी बदलावों से दूर रखने पर अड़े हुए हैं। जो संस्थान इन सॉफ्टवेयरों के नए संस्करणों (2009 के बाद बने हुए) को खरीदते हैं, वे यूनिकोड फॉन्ट में ही अपने अखबार और किताबें छाप रहे हैं।
रेमिंगटन कोई तकनीक नहीं है, सिर्फ एक कामचलाऊ जुगाड़ है, जिसे कंप्यूटर के लिए तब बनाया गया था जब लोग कंप्यूटर को न अपनाने के लिए हड़ताल कर रहे थे। उन्हें किसी तरह से कंप्यूटर की ओर लाने के लिए इस तरह का जुगाड़ बनाया गया था। रेमिंगटन कीबोर्ड और कृति जैसे फॉन्ट किसी भी तकनीकी मानक पर आधारित नहीं हैं, जैसे-एस्की-7, एस्की-8, इस्की, यूनिकोड, यूटीएफ-7, यूटीएफ-8 आदि।
मान लीजिए कि पैरासिटामोल का निर्माण करना है तो उसके कुछ मानक और नियम होते हैं। लेकिन कोई व्यक्ति अपना खुद का पैरासिटामोल बनाने का भी दावा कर सकता है कि हम तो ऐसे बनाएंगे। उसकी मर्जी, लेकिन फिर वह पैरासिटामोल तो नहीं हो सकती, कुछ और ही है जिसकी तकनीकी जगत में कोई अहमियत या स्वीकार्यता नहीं है।
वैसे आज के युग में हिंदी का प्रयोग सिर्फ प्रकाशन तक सीमित नहीं है। प्रकाशन तो हिंदी सामग्री के 5 प्रतिशत से भी कम हिस्से तक सीमित है। प्रकाशन उद्योग इसका प्रयोग इसलिए करता है, क्योंकि वे पुराने सॉफ्टवेयरों के पाइरेटेड संस्करण (पेजमेकर, जो 2002 में आधिकारिक रूप से बंद हो गया, पुराना कोरल ड्रॉ और पुराना क्वार्क एक्सप्रेस 4) इस्तेमाल करते हैं, जिनमें यूनिकोड समर्थन नहीं होता था। तब तक यूनिकोड प्रचलन में ही नहीं था।
आज के सभी पेजमेकिंग सॉफ्टवेयर यूनिकोड फॉन्ट का अत्यन्त सुगमता से प्रयोग करते हैं (इनडिजाइन, क्वार्क एक्सप्रेस, कोरल ड्रॉ, माइक्रोसॉफ्ट पब्लिशर आदि), लेकिन लोग उन्हें खरीदते नहीं हैं, क्योंकि वे पाइरेटेड रूप में (50-100 रुपय की सीडी में) उपलब्ध नहीं हैं। वह सीडी बहुत ‘सुविधाजनक’ थी, लेकिन गैरकानूनी थी।
हिंदी की तरक्की कोई रोक रहा है तो वे यही लोग हैं जो अनगिनत हिंदी प्रयोक्ताओं को आधुनिक तकनीकी बदलावों से दूर रखने पर अड़े हुए हैं। जो संस्थान इन सॉफ्टवेयरों के नए संस्करणों (2009 के बाद बने हुए) को खरीदते हैं, वे यूनिकोड फॉन्ट में ही अपने अखबार और किताबें छाप रहे हैं, जैसे- जागरण, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला, जनसत्ता आदि-आदि। ई-वाहनों और सेल्फ-ड्राइविंग कार के युग में लम्ब्रेटा स्कूटर प्रतिद्वंद्विता नहीं कर पाएगा। चला भी लें तो आधुनिक युग के साथ रफ्तार मिलाना संभव नहीं होगा।
(लेखक माइक्रोसॉफ़्ट एशिया में डेवलपर मार्केटिंग के प्रमुख हैं)
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