एक हिन्दू राष्ट्रवादी, प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा ऐसे नेता जिन्होंने जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया। वे मज़हब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का ज़िम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी होने के साथ ही साथ भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। उनकी मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। हम बात कर रहें हैं भारतीय राजनीतिक के चिंतक और राजनेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 को उत्तर प्रदेश की पवित्र ब्रजभूमि के मथुरा जिला के नगला चन्द्रभान गांव के ब्राह्मण परिवार में हुआ जिसे वर्तमान में दीनदयाल धाम कहा जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पिताजी का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था जोकि एक प्रख्यात् ज्योतिषी थे और उनकी माता रामप्यारी उपाध्याय धार्मिक प्रवृत्ति की एक गृहणी थी। बचपन में पिता के एक ज्योतिषी मित्र ने इनकी जन्मकुंडली देख कर भविष्यवाणी की थी कि आगे चलकर यह बालक एक महान विद्वान एवं विचारक बनेगा। एक अग्रणी राजनेता और निस्वार्थ सेवाव्रती होगा मगर ये विवाह नहीं करेगा। इनके जन्म के दो वर्ष बाद भाई शिवदयाल का जन्म हुआ।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जब छोटे थे तो उनके माता पिता का निधन हो गया और इनकी शिक्षा चाची और मामा के घर में हुई। राजस्थान के सीकर से मैट्रिक पास की। पढाई में उत्कृष्ट होने के कारण सीकर के तत्कालीन नरेश ने बालक दीनदयाल को एक स्वर्ण पदक, किताबों के लिए 250 रुपये और दस रुपये की मासिक छात्रवृत्ति से पुरुस्कृत किया | 1937 में पिलानी में बिडूला कॉलेज में इंटरमीडिएट किया। इस परीक्षा में भी दीनदयाल जी ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। बिड़ला कॉलेज में इससे पूर्व किसी भी छात्र के इतने अंक नहीं आए थे। जब इस बात की सूचना घनश्याम दास बिड़ला तक पहुँची तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने दीनदयाल जी को एक स्वर्ण पदक प्रदान किया। 1939 में सनातन धर्म कॉलेज कानपुर से बी.ए. पास की। अंग्रेजी में उन्होंने सेंट जॉन कॉलेज, आगरा में मास्टर्स के लिए आवेदन किया लेकिन पढ़ाई पूरी नही कर सके। 18 नबम्बर 1934 में बीमारी के कारण उनके भाई की असामयिक मृत्यु हो गयी| इसके बाद वे अपने आपको असहाय व कमजोर महशूस करने लगे। भरी जवानी मे 1937 में अपने मित्र श्री बलवंत महाशब्दे की प्रेरणा से राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ के साथ जुड़ गए। आगरा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेवा के दौरान इनका परिचय श्री नानाजी देशमुख और श्री भाउ जुगडे से हुआ। संघ कार्य करते करते इन्होने शादी नहीं करने का निर्णय लिया और अपना जीवन संघ को अर्पण कर प्रचारक बन गए और आजीवन संघ के प्रचारक रहे। संघ के माध्यम से ही वे राजनीति में आये इसी समय इनकी बहन सुश्री रमादेवी बीमार पड़ गयीं और अपने इलाज के लिए आगरा आ गई, मगर दुर्भाग्यवश उनकी मृत्यु हो गयी| दीनदयालजी के लिए जीवन का यह दूसरा बड़ा आघात था। इसके कारण वह अपने एम्.ए. की परीक्षा नहीं दे सके और उनकी छात्रवृत्ति भी समाप्त हो गयी|
दीनदयाल उपाध्याय के अन्दर की पत्रकारिता तब प्रकट हुई जब उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ में वर्ष 1940 के दशक में कार्य किया। इन्होंने साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पाञ्चजन्य’ और एक दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेश’ शुरू किया था। उन्होंने नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी भी लिखी। इन्होंने संघ के संस्थापक डॉ. के.बी. हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया। पंडित जी की अन्य प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में ‘सम्राट चंद्रगुप्त’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ आदि हैं।
1948 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंद के बाद समाज और संसद में आवाज़ उठाने के लिए राजनीतिक पार्टी बनाने की जरुरत महसूस हुई। पूरा विचार विमर्श करने के बाद 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ की स्थापना की गई और इन्हें प्रथम महासचिव नियुक्त किया गया। यह लगातार दिसंबर 1967 तक भारतीय जनसंघ के महासचिव रहे। उनकी कार्यक्षमता, खुफिया गतिधियों और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’। पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। इन्होंने लगभग 15 वर्षों तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की। दिसंबर 1967 भारतीय जनसंघ के कालीकट में 14वें वार्षिक अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय को जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक महान विचारक और एक महान राजनेता थे. इसके साथ ही साथ वे एक समाज सुधारक और महान शुभ चिंतक भी थे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उपाध्याय जी ने एकात्म मानववाद के दर्शन पर श्रेष्ठ विचार व्यक्त किए हैं। वह मात्र 43 दिन जनसंघ के अध्यक्ष रहे। विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी, पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की हत्या सिर्फ़ 52 वर्ष की आयु में 10/11 फ़रवरी 1968 की रात को जब ये पार्टी से जुड़े कार्य के लिए लखनऊ से पटना की ओर जा रहे थे तो मुग़लसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय इनकी हत्या कर दी गयी थी। इनका पार्थिव शरीर मुग़लसराय स्टेशन के वार्ड में पड़ा पाया गया। 11 फरवरी को प्रातः पौने चार बजे सहायक स्टेशन मास्टर को खंभा नं० 1276 के पास कंकड़ पर पड़ी हुई लाश की सूचना मिली। शव प्लेटफार्म पर रखा गया तो लोगों की भीड़ में से चिल्लाया- “अरे, यह तो जनसंघ के अध्यक्ष दीन दयाल उपाध्याय हैं।” पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गयी। इनकी मृत्यु का अब तक एक अनसुलझा रहस्य बना हुआ है। 12 फरवरी को तत्कालिक भारतीय राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और मोरारजी देसाई ने उन्हें अन्य प्रसिद्ध नेताओं के साथ मिलकर श्रद्धांजली अर्पित की। उस दिन दिल्ली में सभी कार्यालयों एवं दुकानों को बंद रखा गया था। देशवासी अपने एक महान नेता को श्रद्धांजली देने के लिए राजेन्द्र प्रसाद मार्ग पर चल दिए थे।
पंडित जी घर गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे। दीनदयाल देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि ‘हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जिया है। पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे शब्द आज भी उपयोगी हैं। प्रारम्भ में समसामयिक विषयों पर वह ‘पॉलिटिकल डायरी‘ नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पंडित जी ने राजनीतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोडकर रचना कार्य को सदा के लिए उपयोगी बनाया है।
पंडित जी ने बहुत कुछ लिखा है। जिनमें एकात्म मानववाद, लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ का सिद्धांत और नीति, जीवन का ध्येय राष्ट्र जीवन की समस्यायें, राष्ट्रीय अनुभूति, कश्मीर, अखंड भारत, भारतीय राष्ट्रधारा का पुनः प्रवाह, भारतीय संविधान, इनको भी आज़ादी चाहिए, अमेरिकी अनाज, भारतीय अर्थनीति, विकास की एक दिशा, बेकारी समस्या और हल, टैक्स या लूट, विश्वासघात, द ट्रू प्लान्स, डिवैलुएशन ए, ग्रेटकाल आदि हैं। उनके लेखन का केवल एक ही लक्ष्य था भारत की विश्व पटल पर लगातार पुनर्प्रतिष्ठा और विश्व विजय।
भारत सरकार ने इनके सम्मान में 1978, 2016, 2018 सहित कई बार डाक टिकट जारी किया और मुग़लसराय स्टेशन का नाम बदल कर पंडित दीनदयाल उपाध्याय कर दिया। 2016 में बीजेपी सरकार ने उनके नाम पर कई सार्वजनिक संस्थानों का नामकरण किया। यहाँ तक की इनके नाम से सरकार ने बहुत सी योजनाओं की शुरूआत भी की गई है।
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