1984 में संतों का ध्यान इस ओर गया कि न्यायालय में श्रीराम जन्मभूमि का मामला तो चल रहा है, लेकिन उसमें रामलला के स्वामित्व का मामला नहीं है। एक मामला गोपाल सिंह विशारद का दर्शन-पूजन का था। दूसरा निमोर्ही अखाड़े का पूजा-पाठ और चढ़ावे का था और तीसरा मुसलमानों के मालिकाना हक का।
तय हुआ कि रामलला की ओर से एक मुकदमा किया जाए। इसके लिए न्यायमूर्ति देवकी नंदन अग्रवाल और इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील वीरेंद्र कुमार सिंह चौधरी आगे आए। इस तरह 1 जुलाई, 1989 को रामलला पहली बार न्यायालय गए, जहां वे कहते हैं, ‘जिस स्थान पर मैं विराजमान हूं, वह संपूर्ण स्थान और संपत्ति मेरी है। यही प्रार्थना जन्मभूमि और देवकी नंदन अग्रवाल की तरफ से भी है।’
अब तक आंदोलन पूरे देश में जड़ें जमा चुका था। उत्तर प्रदेश सरकार ने देश का माहौल बिगड़ने का हवाला देते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से अनुरोध किया कि जन्मभूमि से जुड़े सभी मामले फैजाबाद से उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को भेज दिए जाएं।
1989 में फैजाबाद से सभी मुकदमे लखनऊ पीठ के पास आ गए और प्रतिदिन सुनवाई शुरू हुई। 6 दिसंबर, 1992 को ढांचा गिरने के बाद सरकार ने अपने मामले वापस ले लिए। अब दो ही प्रमुख मुकदमे रह गए थे।
एक, सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से दायर मुकदमा जिसमें कहा गया था कि हिंदुओं के दावे वाला जन्म स्थान परती जमीन थी, जिसपर बाबर के आदेश से मस्जिद बनाई गई। जबकि रामलला की ओर से मुकदमे में कहा गया कि श्रीराम जन्मभूमि पर एक विशाल मंदिर था, जिसे तोड़कर मीर बाकी ने मस्जिद बनाई।
टिप्पणियाँ