पाञ्चजन्य के स्थापना दिवस कार्यक्रम को जूना अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद जी महाराज का आशीर्वाद मिला। प्रस्तुत है उनके आशीर्वचन का संपादित रूप
आज से 77 वर्ष पहले मकर संक्रांति के दिन ‘पाञ्चजन्य’ के प्रकाशन की कल्पना की गई थी। इसलिए मकर संक्रांति का यह दिन ‘पाञ्चजन्य’ के लिए विशेष दिवस है। इसके मूल में सदा भारत गुंजायमान रहा है। भारत, जिसे संस्कृत भाषा में ‘प्रकाश का केंद्र’ कहा गया है। प्रकाश आता है अध्यात्म से। भारत प्रकाश का उपासक रहा है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कहकर उपनिषदों ने आत्मप्रकाश की बात कही है।
‘असतो मा सद्गमय’ कहकर उपनिषदों ने स्वयं की सत्ता, निजता और अपने अस्तित्व, अपने यथार्थ अथवा अपने सनातन सत्य को जानने की बात कही है। ‘मृत्योर्मामृतं गमय’ कहकर उपनिषदों, ऋषियों ने इसे ईश्वरीय स्वर कहा है। हम मृत्यु से परे की सत्ता हैं, अजेय हैं। हम कालजयी हैं। हमारे शास्त्रों में आत्मा के सत्य की बात कही गई है, जो कभी मिटती नहीं है।
सनातन का पहला स्वर ही यह है कि आओ और जानो कि क्या नहीं मिटेगा। उपनिषदों ने आत्मा के सत्य की बात कही है। इसी सत्य को जानने के लिए नचिकेता यम के पास गए थे। इसी सत्य को जानने और प्रकाशित करने का काम ‘पाञ्चजन्य’ बीते 77 वर्ष से कर रहा है। इसके स्वर कई बार वैदिक और औपनिषदिक लगते हैं। ‘पाञ्चजन्य’ में आपको एक अद्भुत इतिहास झांकता हुआ दिखाई देता है।
अगर हम इतिहास की बात करें तो हमारे रामायण और महाभारत दो ही इतिहास हैं। ‘पाञ्चजन्य’ के तथ्य और कथ्य कभी भी मिथ्या नहीं रहे। इसमें कभी भी छद्म, छल और वितंडा नहीं रहा। ‘पाञ्चजन्य’ ने कभी भी ऐसा नहीं किया कि कोई ऐसी गोपनीयता को भंग कर दिया जाए, जिससे समाज में उत्तेजना फैले।
‘पाञ्चजन्य’ सदैव से ध्येयवादी पत्रकारिता कर रहा है। अब प्रश्न उठता है कि वे कौन लोग थे, जो ध्येयवादी पत्रकारिता को समर्पित रहे। ऐसे में अटल जी का स्मरण होना आवश्यक है। पिछली बार जब मैं ‘पाञ्चजन्य’ के संवाद में आया था तब मुझे पता चला था कि पहले इसका नाम ‘प्रलयंकर’ रखा गया था। बाद में इसे बदलकर ‘पाञ्चजन्य’ रखा गया।
महाभारत युद्ध प्रारंभ होने से पहले जब कुरुक्षेत्र में ‘पाञ्चजन्य’ का स्वर गूंजा तब दुर्योधन, दुशासन, कृपाचार्य, आचार्य द्रोण सहित कौरवों की सेना सात पग पीछे चली गई। उन्होंने स्वयं को हारा मान लिया था। पहली बार पितामह भीष्म के चेहरे पर पसीना आया था। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा ‘पाञ्चजन्य’ शंख फंूकते ही घोड़े हिनहिनाने और हाथी चिंघाड़ने लगे। पितामह भीष्म भी हताश दिखे।
क्या है भारत
लोग बार-बार भारत की परिभाषा की बात करते हैं। भारत एक तत्व है, दर्शन है, यह एक विचार है। आत्मा के प्रकाशन की दृढ़ता से आद्य काल से खड़ी ज्ञान सत्ता का नाम है भारत। हां, भारत देश भी है, यह विचार और सिद्धांत भी है। भारत उस विचार का नाम है, जो यह दहाड़ता रहा है कि सब बातें छोड़कर पहले अपने तत्व को जानो जो अजेय है, नित्य और अमर है।
जो प्रकाश के गीत गाता है और आत्मा की नित्यता की बात करता है उसे भारत कहते हैं। थोड़ी देर के लिए अगर यह मान भी लिया जाए कि पश्चिम के पास कुछ चीज रही है तो वे इस बात को मानते हैं कि सत्य तो केवल एक है, जिसे संवेदनाओं द्वारा अनुभूत किया जा सकता है। लेकिन सनातन धर्म में ऐसी चीजों को मिथ्या कहा गया है, जिसे इंद्रियों से अनुभूत किया जा सके।
सत्य तो प्रकृति से पृथक सत्ता है, जो नित्य परिवर्तन है। उसी सत्य की चर्चा भारत करता रहा है। इसीलिए कई संस्कृतियों के मिटने के बाद भी भारत जस का तस है। भारत के बहुत से ग्रंथ बाहर चले गए, जिन्हें छुपा कर रखा गया है। विमानशास्त्र अभी-अभी पकड़ा गया है, वह भारत से गया था।
पश्चिमी देशों में जो भौतिक प्रगति दिखाई दे रही है, वह सभी भारत की चीजें हैं। आर्टिफिशियिल इंटेलीजेंस के क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम करने वाले अधिकतर विशेषज्ञ भारत के ही हैं। इसलिए यह समझने की बात है कि भारत ज्ञान और विचार का देश है। अगर भारत की बात की जाए तो इसके पास इतिहास, पुराण, दर्शन हैं। भारत का यह ज्ञान ही हमें यह विश्वास देता है कि देह मरती है हम नहीं। मैं सनातन, सत्य और नित्य हूं। भारत ने दुनिया को विवेक दिया है, जिससे सत्य को पहचाना जा सकता है।
भारत कभी सुख की बात नहीं करता, यह तो आनंद की बात करता है। सुख दैहिक है, जबकि आनंद आत्मा से आता है। भारत सच्चिदानंद की बात करता है। भारत विचारों की बात करता है। ‘पाञ्चजन्य’ में विचारों के स्वर मुखर होते रहे हैं। ‘पाञ्चजन्य’ आज भी जीवंत और जाग्रत है, उसके तेवर कभी नहीं बदले, कठिनाई छू नहीं पाई, बाधा और विरोध बौना हो गया। ‘पाञ्चजन्य’ 77 वर्ष के बाद भी चैतन्य है।
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