प्रजापतिसमश्श्रीमान् धाता रिपुनिषुदनः।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता।।1.1.13।।
अर्थ – ब्रह्मा के समान मंगलकारी, श्री राम इस संसार के पालनकर्ता, शत्रुओं का नाश करने वाले और सभी जीवित प्राणियों और नैतिक संहिता के रक्षक हैं।
वाल्मीकि रामायण (बाल काण्ड)
राम के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की महिमा देखिये साहब, उनके अस्तित्व को नकारने वाले आज उनकी पूजा करते हैं, तो फिर कल्पना कीजिये श्रीराम सरकार के उन सेवकों की जिन्होंने अपनी पीढ़ियों की आहुति इस महान यज्ञ में दे दी I कुछ ने बन्दूक की गोली खाकर अपने प्राणों को रघुवर के चरणों में अर्पित किया तो कुछ लोगों ने स्वार्थरहित होकर कारसेवा के महान संकल्प को पूर्ण करने के लिए अपनी आजीविका के एकमात्र साधन को हँसते – हँसते प्रभु को भेंट चढ़ा दिया I ऐसे ही एक रामभक्त की मार्मिक और संघर्षशील कहानी है उमेश शरण गुप्ता की। ये मूलतः दबोह (वर्तमान में ग्वालियर में निवासरत) के रहने वाले हैं इन्होंने अक्टूबर, 1990 में कारसेवा की थी। वे कहते हैं “विश्व हिन्दू परिषद् के पदाधिकारी गण श्रीराम कारसेवा समिति के लिए कुछ कार्यकर्ताओं को पंजीकृत करने के उद्देश्य से हमारे खंड दबोह में आये थे, अन्य रामभक्तों के समान मेरे हृदय में भी अपने राजाराम सरकार की सेवा करने का उत्साह था I और इस प्रकार श्रीराम कारसेवा में दबोह इकाई की जिम्मेदारी मैंने ली और मेरा पंजीयन एक कारसेवक के रूप में हुआ। साथ ही खंड के अन्य रामभक्तों के पंजीयन करवाने की ज़िम्मेदारी दी गई, जिसमें प्रमुख थे मंगल कोठारी, रामबिहारी समाधिया I” वे आगे बताते हैं – “इसी सन्दर्भ में नगर में “संकल्प पत्र भरो अभियान” चलाया गया, संकल्प पत्र में यह उल्लिखित था कि हम श्रीराम कारसेवा में अपनी सहभागिता, श्रीराम के प्रति हमारी भक्ति व निष्ठा से कर रहे हैं I इस पत्र का वाचन करवाकर लोगों द्वारा यह संकल्प पत्र भरवाए गए और मेरे खंड में 355 लोगों ने इस अभियान के लिए पंजीयन करवाया I उसके उपरांत ‘मशाल जुलुस’ के कार्यक्रम में भी सकल हिन्दू समाज ने बढ़ – चढ़कर हिस्सा लिया और दबोह नगर के करधेन तालाब के निकट हनुमान मंदिर पहुंचकर प्रकृति के पांच तत्वों को साक्षी मानते हुए ‘30 अक्टूबर को हम श्रीराम कारसेवा में सहभागिता करेंगे’ ऐसा संकल्प लिया I”
साथ ही सोमनाथ से 25 सितम्बर 1990 को श्री लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा प्रारंभ कर दी थी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार ने विवादित ढांचे की सुरक्षा के लिए 20,000 पुलिसकर्मियों को स्थानांतरित करके अयोध्या में सुरक्षा व सख्ती बढ़ा दी थी I हिन्दू भावनाओं को आहत करते हुए मुलायम सिंह ने अक्टूबर 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा का विरोध करते हुए इसकी घोषणा की थी कि “उन्हें अयोध्या में प्रवेश करने की कोशिश करने दीजिए। हम उन्हें कानून का मतलब सिखाएंगे। कोई मस्जिद नहीं तोड़ी जाएगी।”
इस पर उमेश कहते हैं– “इन कठिन परिस्थितयों के बावजूद हम अपने संकल्प पर अडिग रहे व हम 5 लोग अपने खंड से कारसेवा में जाने के लिए तैयार हुए, और माताजी ने मेरा विजय तिलक करते हुए कहा कि रामलला का काम पूरा करके ही वापस आना फिर पिताजी की आज्ञा लेकर हम रामकाज के लिए निकल गए और हम सभी 21 अक्टूबर की रात्रि 11 बजे अपने निजी साधन ट्रेक्टर से मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश की सीमा के थोड़ा पहले समथर से जुड़ने वाली सीमा ‘सदका’ तक पहुंचे। उसके बाद पुलिस के बेरीकेट्स लगे थे, इसके बाद हमने ट्रेक्टर से उतरकर खेतों से गुज़रते हुए यूपी में प्रवेश किया, रात्रि 3 बजे कड़कड़ाती ठण्ड में हम समथर पहुंचे, वहां एक नहर के पास खेत में आग दिखी, चूँकि ठण्ड से बचने का अन्य कोई साधन उपलब्ध नहीं था तो जलती हुई आग के पास बैठकर हमें ठण्ड से थोड़ी राहत मिली, बाद में किसी से ज्ञात हुआ कि वो श्मशान था और जो आग जल रही थी वो चिता की आग थी I खैर चूँकि समथर से लखनऊ की पहली बस सुबह 5 बजे की थी….. नियत समय पर हम सभी बस में बैठ गए, बस द्वारा यात्रा जारी रही और हम सभी मोठ से होते हुए कानपुर पहुंचे I दरअसल मोठ से ही पुलिस की चेकिंग शुरू हो गई थी।
दरअसल उन दिनों कारसेवा देने जा रहे रामभक्तों से मुलायमसिंह यादव की यूपी सरकार अत्यन्त अमानवीय एवं संवेदनहीनपूर्ण व्यवहार कर रही थी I और यदि राम भक्त हुए तो उन्हें ऐन केन प्रकारेण रोक ही दिया जाता था I उमेश आगे बताते हैं कि “आडवाणी जी की गिरफ़्तारी के बाद बस को कानपुर में ही रोक लिया गया और हमें कानपुर में ही उतरना पड़ा, और लगभग शाम के 3– 4 बजे करीब अवध एक्सप्रेस में बैठकर हम कानपुर से लखनऊ पहुंचे। लखनऊ पहुँचने के बाद यह पता लगा कि शासन द्वारा अयोध्या जाने के सारे मार्ग बंद कर दिए गए हैं, फिर हम सभी केसरबाग बस स्टैंड इस आशा में पहुंचे कि शायद वहां से कोई रास्ता हमें अयोध्या के लिए मिल जाए। जब आस पास नज़र दौड़ाई तो देखा वहां उत्तरप्रदेश का मानचित्र लगा था, मैंने देखा कि अयोध्या के पास गोंडा शहर आता है, और अकस्मात ही गोंडा जाने वाली बस हमें दिखाई दी और हम बस में चढ़ गए, और उस दिन उसका मार्ग बदल गया था जिस कारण बस रात्रि 1 बजे गोंडा पहुंची। गोंडा पहुंचकर टिकट लेने वाले खम्बों के पास ही हमने अपने बिस्तर लगाए और सुबह की प्रतीक्षा की I सुबह 6 बजे जब हम सभी उठकर चाय की दुकान पर चाय पीने गए तो चाय वाले ने हमें पहचान लिया कि हम सब कारसेवक हैं और उसने हमसे हमारा यहाँ आने का उद्देश्य पूछा जिसे सुनने के बाद उसने कहा कि “यहाँ बहुत सख्ती है, भाषा की असमानता के चलते आपको गिरफ्तार कर लिया जाएगा। आप मेरे साथ मेरे घर चलिए।”…. उसने अपना नाम शेष कुमार पाण्डेय बताया, वह हिंदू था इसलिए उस पर विश्वास कर लिया…। वहां जाकर हम चकित रह गए, दरअसल वो जिस मोह्हल्ले में रहता था वहां अधिकतम मुस्लिम समुदाय ही निवास करता था और वो वहाॅं एक मंदिर में निवासरत था । हम और अधिक दुविधा में पड़ गए कि अब क्या किया जाए, किन्तु उस पर विश्वास करने के अतिरिक्त हमारे समक्ष और कोई विकल्प नहीं था, खैर वो हमें अपने घर ले गया और उसने हमें चाय पिलाई, जिसके लिए उसके घर में कप भी नहीं थे, और नाश्ते में नमक लगे मुरमुरे खिलाये I उसने बताया कि उनके रिश्तेदार अयोध्या से एक त्रयोदशी में शामिल होने आने वाले हैं, तो उन्हीं के साथ वह हमें भी अयोध्या हेतु रवाना कर देगा। इस हेतु वो हमें गोंडा के निकट गाँव नीरपुर में ले गया जहाँ अयोध्या से उसके नातेदार आने वाले थे किन्तु बाद में ज्ञात हुआ कि अयोध्या से उसके रिश्तेदार ही नहीं I किंतु फिर भी हममें से कोई भी विचलित नहीं हुआ। भगवान राम के प्रति भक्ति रखी और मार्ग ढूंढने का प्रयास जारी रखा, और हुआ भी यही कि राजाराम सरकार ने अपनी कृपा कर दी जब हम वापस गोंडा आये तो संयोग से उस दिन गोंडा से एक गाडी फैज़ाबाद के लिए निकली और चूँकि हमें ज्ञात था कि हम सभी को फैजाबाद के निकट सोहावल (सुचितागंज) में जाना है, वहां विहिप के एक कार्यकर्ता टीका लगाये मिलेंगे और हम उन्हीं के साथ श्री राम कारसेवा वाहिनी में सम्मिलित हो जायेंगे । और इस प्रकार गोंडा से फैज़ाबाद जाने वाली गाड़ी में सवार होकर हम फैज़ाबाद पहुंचे, वहां जाकर पता चला कि सोहावल फैज़ाबाद से 7-8 किमी दूर है , हालांकि जैसे – तैसे हम वहां भी पहुंच ही गए I लेकिन फिर एक समस्या हमारे समक्ष आ खड़ी हुई कि सोहावल पहुंचकर जो कार्यकर्ता हमें मिलना था, वो हमें हमारे करणीय कार्य से अवगत करवाता, वो वहां कड़ी जांच और सख्ती के चलते नहीं मिले ।
उमेश आगे बताते हैं कि – “हम वहां स्टेशन की पटरियों के बगल में बनी कच्ची पगडण्डी पर चलते रहे I चार पांच लोग साईकलों पर आपस में बातचीत करते हुए जा रहे थे, उनकी बातों से हमने अनुमान लगाया कि यह लोग भी कारसेवक हैं, इस बात को और सुनिश्चित करने के लिए हममें से एक ने जय श्री राम का नारा लगाया वहां से भी यही उत्तर मिला और उन लोगों ने रुककर हमें बताया कि वे स्थानीय व्यवस्था में लगे कारसेवक ही हैं I फिर उनके साथ साइकल यात्रा करते हुए पास के ग्राम गोंडवा के एक मंदिर में हम सभी ठहरे और मंदिर में पुजारी को उन्होंने भोजन पानी आदि की व्यवस्था का कार्यभार सौंप दिया था, और हमसे कहा गया कि आपको यहाँ दो दिन रुकना होगा, जब वाहिनी 26 अक्टूबर यहाँ से गुजरेगी तो आप उसमें सम्मिलित हो जाइएगा I और अपने कहे अनुसार वे कार्यकर्ता निर्धारित दिन एवं समय पर दो दिन बाद हमारे पास आये एवं हमें वाहिनी में चलने के लिए कहा और फिर प्रारंभ हुई न रुकने वाली यात्रा I”
“इस प्रकार दबोह से आया हमारे 4-5 लोगों का समूह कारसेवा वाहिनी में कुल 2 दिन तक निरंतर अनवरत चलता रहा I तत्पश्चात पंचकोशी परिक्रमा में 28 अक्टूबर को प्रातः 5 बजे हमें गिरफ्तार किया गया, गिरफ्तारी के उपरांत जिस वाहन से हमें जेल ले जा रहे थे , उसमें भिंड जिले के 22 कारसेवक पहले से ही मौजूद थे, जिसमें मुख्य रूप से सत्य नारायण सोनी एवं बलभद्र सिंह सिकरवार हमारे पूर्व परिचित थे I उनसे मित्रता के चलते बाकी लोगों से भी हमारा परिचय घनिष्ठता में परिणित हुआ। इस प्रकार हम 26 लोग आपस में मित्र बन गए और गीत गाते व नारे लगाते हुए हमारी गाड़ी सुल्तानपुर जिले के खपराड़ी गाँव पहुंची I”
……”जहाँ 7-8 बसें खड़ीं थीं, और एक व्यक्ति वहां बैठा सभी गिरफ्तार हुए कारसेवकों के पंजीयन कर रहा था I पंजीयन के दूरगामी लाभ मिलने के लोभ में न फंसते हुए हमारे समूह ने वहां से निकलने का निर्णय लिया I वहां से 28 अक्टूबर को चलते हुए हम दुबौली गाँव में पहुंचे, हमें लगभग चलते – चलते तीन दिन हो गए थे। मार्ग में रामभक्त हमें भोजन पानी आदि उपलब्ध करवाते थे और इस प्रकार इन रामभक्तों ने भी कारसेवा में अपनी अपरोक्ष रूप से सेवा दी I चलते – चलते अत्यधिक थकान हो गई थी, तो स्नान और विश्राम करके इस गांव से निकलेंगे ऐसा निश्चय किया, किन्तु गाँव कांग्रेसी समर्थकों का था। सो उन्होंने हमें किसी भी प्रकार का कोई सहयोग करने से साफ मना कर दिया । लेकिन हम चलते गए और तभी हमें गाँव के अंतिम छोर पर एक गरीब ब्राहमण का घर दिखा, जिसने हमें स्नान आदि की सामग्री उपलब्ध कराई और उसने हमें सौंठ का काढ़ा भी बनाकर पिलाया जिससे शरीर में पुनः ऊष्मा आई I …………मुझे स्मरण है कि हमने जैसे ही अपने जूते निकाले और देखा तो पाया कि हमारे तल पैरों में तीन दिन व रात निरंतर चलने के कारण छाले पड़ गए थे, जो घाव में तब्दील हो गए थे और पैर पूरी तरह से ज़ख्मी हो गए थे, किन्तु हमारे सरकार राजा राम की सेवा के समक्ष यह कठिनाइयाँ हमें लेश मात्र भी विचलित नहीं कर रहीं थीं I खैर….उस रामभक्त ने हमारे लिए भोजन बनाया साथ ही बिस्कुट और नमकीन का नाश्ता भी हमने अपने निजी व्यय से पास के बाज़ार से मंगाया I हम सभी ने विश्राम उपरान्त पुनः यात्रा प्रारंभ की और 65 – 70 किमी पुनः चलकर 30 अक्टूबर 1990 की प्रातः बेला में अयोध्या नगरी में प्रवेश किया I”
उमेश कहते हैं कि “उस दिन अयोध्या की सड़क पर कारसेवकों की 2-3 कि.मी. लम्बी करीबन दस कतारें लगीं थीं I और कारसेवक सड़क पर बैठकर राम भजन कर रहे थे। आगे बेरीकेट्स से मार्ग अवरूद्ध किया गया था और अचानक अशोक सिंघल लहुलुहान सिर पर गमछा लपेटे बाहर आये एवं उनके पीछे बहुत से लोग “अशोक सिंघल को लाठी मार दी” ऐसा चिल्लाते हुए आ रहे थे …..कारसेवक जो अब तक शान्तिपूर्ण राम नाम का जप कर रहे थे, अब वीर बजरंगी बन गए और पहुँच गए अपने राम जी के काज हेतु ढाँचे तक और फिर चली प्रतीकात्मक कारसेवा I अब तक सुबह के 10 बज चुके थे, दूसरे जत्थे भी राम जन्मभूमि की ओर निकलना शुरू कर चुके थे I पुलिस लोगों को गिरफ्तार कर रही थी, इन्हें ले जाने के लिए एक बस लाई गई और इसमें साधुओं को बैठाया गया। बस चलने ही वाली थी कि एक साधु ने ड्राइवर को धक्का देकर बस का अपहरण कर लिया I यह साधु बस को सीधे राम जन्मभूमि की ओर ले गया और बांस के 35 बेरीगेट्स तोड़ते हुए बस को राम जन्मभूमि परिसर से 50 गज की दूरी तक पहुंचा दिया। इस कोशिश से बाकी साधुओं का भी जोश बढ़ गया। इन साधु महाराज का नाम रामप्रसाद था, वह अयोध्या के किसी अखाड़े के साधु थे।….
बस के जाते ही दूसरा जत्था दौड़कर आगे बढ़ा और हमारा समूह भी अन्य लाखों कारसेवकों समेत हनुमान गढ़ी तक पहुँच गया और फिर विवादित ढाँचे के पास कारसेवा देने पहुंचा। हमने जाकर देखा कि मंच से ऐसी घोषणा की जा रही थी कि केवल प्रतीकात्मक रूप से भगवा ध्वज विवादित ढांचे के गुम्बद पर गाढ़कर फहराना है, हालाँकि राम के सच्चे भक्तों ने सत्य की गरिमा को बरक़रार रखने हेतु प्रभु श्री राम के मंदिर को तोड़कर बनाए गए कट्टरवाद के उस प्रतीक अर्थात उस ढाँचे को आंशिक रूप से ध्वस्त भी किया I और इस प्रकार हम कारसेवा देकर वापस एक धर्मशाला में रुके।”
हिंदू विरोधी भावना मन में लिए मुलायम सिंह ने निहत्थे कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया था और ऐसा रक्तपात प्रारंभ हुआ जिसे देखकर किसी की भी आत्मा कांप उठे। उस दिन मारे गए कारसेवकों की संख्या सरकारी आंकडें चाहे कितनी ही कम बताएं किंतु वहां उपस्थित लोगों ने प्रत्यक्ष रूप में यह देखा था कि किस प्रकार बड़ी संख्या में कारसेवकों का कत्लेआम किया गया था और भारी तादाद में गोलियों से कारसेवकों को भून दिया गया था….तदोपरांत 2 नवम्बर को उमा भारती और हरीश पाठक ने सरयू नदी तक एक जुलुस निकाला जिसमें भिंड इकाई के हम लोग भी सहभागी रहे।”
उमेश जी आगे बताते हैं – “मेरे गाँव में सबने ऐसा मान लिया था कि सरकारी दमन के चलते शायद ही मैं और मेरे साथीगण जीवित बचे होंगे, क्योंकि उस समय संपर्क संचार के साधनों का अभाव था, इसलिए जो समाचार प्राप्त होता था उस आधार पर मेरे गांव वालों ने मेरे लौटने की आशा छोड़ दी थी और जब मैं अपने बाकी साथियों के साथ गाँव पहुंचा तो गांव वाले मुझे देखकर अचंभित रह गए……और इस प्रकार श्री राम सरकार की कृपा से हमारे समूह ने इस पुनीत कार्य में अपनी आहुति समर्पित की I”
अंत में उमेश जी ने अपने व अपने साथियों द्वारा की गई कारसेवा के बारे भावुक होकर कहा कि – “सफल कारसेवा के उपरांत मन तो स्वाभाविक रूप से ही गदगद् था और रामकाज में जो उपलब्धि प्राप्त थी वो शब्दों में वर्णित हो ही नहीं सकती, आज भी एक फिल्म के समान वह पूरा घटनाक्रम सजीव हो जाता है। और मन यही कहता है कि आखिर कैसे संभव हुआ यह सब, तो हृदय से हमेशा यही एक उत्तर मिलता था कि “राम करे सो होय ” निमित्त यह शरीर बनना था सो बना।”
सानुक्रोशो जितक्रोधो ब्राह्मणप्रतिपूजकः |
दीनानुकम्पी धर्मज्ञो नित्यं प्रग्रहवाञ्शुचिः || २-१-१५
अर्थ – “उनमें करुणा है। उन्होंने क्रोध को जीत लिया है। वह ज्ञानी लोगों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और भक्तिपूर्ण हैं। उन्होंने विनम्र व्यक्तियों के प्रति कृपा बनाए रखी। उन्हें यह मालूम था कि क्या करना चाहिए। उनमें हमेशा आत्मनियंत्रण रहता था। उनका व्यवहार शुद्ध है। वे मेरे राम हैं।”
वाल्मीकि रामायण (अयोध्या काण्ड)
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