‘अरण्य काण्ड’ में वर्णित कथा बताती है कि ‘पंचवटी’ में भ्रमण करती लंकाधिपती रावण की बहन सूर्पनखा जब सौन्दर्य के अद्भुत चितेरे राम-लक्ष्मण को देखती है तो वह उन पर मोहित हो जाती है। सूर्पनखा का राम-लक्ष्मण संग सम्वाद अपने में रोचक परिदृश्य लिए हुए है। ‘तुम सम पुरुष न मो सम नारी, यह संजोग बिधि रचा बिचारि, लछिमन कहा तोही सो बरई, जो त्रन तोरी लाज परि हरिई, तब खिसियानी राम पहीं गई, रूप भयंकर प्रगटत भई, सितहिं सभै देखी रघुराई, कहा अनुज सन सैन बुझाई’ की परिणिति सूर्पनखा के नाक-कान विच्छेद से होता है। इस प्रसंग का वर्णन मुकेश के स्वर में उस दृश्य के मर्म को जिस प्रकार उद्घाटित कर गया है वह ‘रावण’ के भीतर चल रहे कुटिल द्वन्द को भी समक्ष रखता है – ‘सून बीच दसकंधर देखा, आवा निकट जसि के देखा, नाना बिधि करी कथा सुहाई, राजनीति भय प्रीति देखाई, कह सीता सुन जति गोसांई, बोलेहु बचन दुष्ट की नाई, तब रावन निज रूप देखावा, भई सभै जब नाम सुनावा, क्रोध बंत तब रावन लीन्हिसी रथ बैठाई, चला गगन पथ आतुर, भय रथ हाँकई न जाई’। ‘सीता हरण’ का यह परिदृश्य दूर गगन पर उड़ान भर रहे गिद्धराज ने भी देखा। गिद्धराज जटायु रावण द्वारा अपनी दुर्दशा से आहत तथा सीता के हरण से व्यथित हो कर प्रभु राम से निवेदन करता है – ‘नाथ दसानन यह गति किन्ही, तेही खल जनक सुता हरि लिन्ही, दरस लागी प्रभु राखेयु प्राना, चलन चहत अब कृपा निधाना’।’जटायु’ का स्वर बने मुकेश ने अपनी वाणी में उस व्यथा, लाचारी और अन्तिम विदा को जस का तस परोस दिया जो काल के उस खण्ड में घटित हुआ था।
‘किष्किन्धा काण्ड’ की कथा सुग्रीव प्रसंग पर केन्द्रित है। भ्राता बाली द्वारा प्रताड़ित सुग्रीव एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा था। श्री राम सुग्रीव को ढाढ़स बँधाते हैं और उसे ‘बाली’ से युद्ध को प्रेरित करते हैं। सुग्रीव-बाली के मध्य हुए मल्ल युद्ध में श्री राम का तीर बाली को अन्ततः छलनी कर जाता है। ‘धरम हेतु अवतरेहुं गोसांई, मारहुँ मोहि व्याघ की नाई, मैं बैरी सुग्रीव पियारा, अवगुन कवन नाथ मोही मारा’, मुकेश के स्वर में बाली के इस प्रश्न का उत्तर संयमित भाव से नैतिक आदर्श को उद्धृत करते हुए श्री राम ने मुकेश की ही सशक्त वाणी से यूँ दिया – ‘अनुज बधु भगिनी सुत नारी, सुन सठ कन्या सम ए चारी, इनहीं कुदृष्टि बिलोकई जोई, ताही बधे कछु पाप न होई’। मुकेश के स्वर में श्री राम की इस अभिव्यक्ति से बाली के भीतर मन और मस्तिष्क में व्याप्त सभी प्रकार का अज्ञान एवं संशय जाता रहा।
तुलसीदास कृत श्री राम चरित्र मानस का ‘सुन्दर काण्ड’ पवन सुत हनुमान के पराक्रम से भरा पड़ा है। प्रभु श्री राम का आदेश प्राप्त होते ही सभी उपस्थित अपार बानर समूह ने सागर के तट पर पहुँचने हेतु प्रस्थान करने को एकत्र होने लगे। ‘चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरिलोल सागर खरभरे, मन हरष सब गंधर्भ सुर मुनि नाग किन्नर दुखटरे, कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहुकोटि कोटिन्ह धावहिं, जय राम प्रबल प्रताप कोसल नाथ गुन गन गावहिं’। ‘लंका काण्ड’ का प्रचण्ड रूप-दृश्य ‘रावण वध’ के साथ ही श्री राम के विजयश्री का वरण कर लेने के पश्चात् इस सम्पूर्ण अभियान का पटाक्षेप हो जाता है। अपनी मातृभूमि ‘अयोध्या’ नगरी लौट चलने के उपक्रम में श्री राम सभी के आत्मिक आग्रह पर पत्नी जानकी, भ्राता लक्ष्मण, प्रिय भक्त श्री हनुमान एवं अन्य बन्धु-बान्धव सहित ‘पुष्पक विमान’ पर सवार होते हैं। विमान पर सवार होने के इस दृश्य को सन्त तुलसीदास ने जिस चौपाई में बाँधा है उसे मुकेश के स्वर में श्रवण करते हुए वास्तव में उस मन्त्र को साधने का बोध होता है जो सफल एवं सुरक्षित यात्रा को स्वयं सिद्ध करता है। मुकेश वाणी में निहित आस्था एवं श्रद्धा के अमृत में पगा यह बोल किसी वाहन द्वारा यात्रा करने से पूर्व यदि इसे श्रवण करते हुए इसका मन में पाठ किया जाए तो यह सफल-सुरक्षित यात्रा के साथ ही सकुशल गन्तव्य स्थल तक पहुँचने को सुनिश्चित करता है। अति सय प्रीति देखी रघुराई, लिन्हें सकल बिमान चढ़ाई, मन महु विप्र चरन सिर नायो, उत्तर दिसि ही बिमान चलायो, चलत बिमान कोलाहल होई, जय रघुबीर कहंई सब कोई। ‘उत्तर काण्ड’ में वर्णित कथा के अनुसार स्वयं श्री राम ने चौदह बरस का वनवास व्यतीत कर अयोध्या का राज-काज सम्हाला। राम के राजा बनने पर जन-जन के हृदय में उठे हर्ष और उत्सव को प्रगट करते हुए मुकेश ने अपने गायन से गोस्वामी तुलसीदास द्वारा वर्णित परिदृश्य को उसमें निहित भाव के साथ जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है – ‘राम राज बैठे त्रेलोका हर्षित भये गये सब सोका, दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहीं काहु दिव्यापा, कपि सम्पन्न सदा रह धरनी, त्रेता भयी कृत जुग के करनी, हर्षित रहहीं नगर के लोगा, करहीं सकल सुर दुर्लभ भोगा’ पंक्तियों में मुकेश स्वयं हर्षित भाव संग इस आनन्द उत्सव को अपने मुखारवृन्द से व्यक्त कर रहे हैं। श्री राम के परिवार में लव और कुश सहित अन्य भ्राताओं के भी दो-दो पुत्रों के जन्म लेने को भी उत्सव रूप में दर्शाया गया है। ‘दुई सुत सुंदर सीता जाए, लव कुस बेद पुरारन गाए, दुई दुई सुत सब भ्रातन केरे, भए रूप गुन सील घनेरे’। ‘श्री राम चरित्र मानस’ के अन्तिम काण्ड के अन्तिम सोपान में उद्धृत सामयिक जीवन मन्त्र का मुकेश वाणी में श्रवण करना एक अलौकिक प्रेरणापुँज का सृजन करता है। अपने अंतर में वैश्विक कल्याण तथा सम्पूर्ण मानवता को समभाव से पोषित करता मुकेश का स्वर ‘वसुधैव कुटुम्भकम’ का दर्शन लिए शाश्वत आधुनिक-वैज्ञानिक विचार का परिचायक है – ‘मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुबीर, अस बिचारी रघुबंस मनी हरहु बिशम भवभीर, पुण्यम पाप हरम सदा शिव करम, विज्ञान वक्तिप्रदम, माया मोह मला पहम सुविमनम, प्रेमाम्ब पूरम शुभम, श्री मद्र राम चरित्र मानस निदम, भकत्या वगा हन्तिये ते संसार पतंग भोर किरनइही, दहियंति लो मानवाह’।
मुकेश वाणी ‘मँगल भवन अमँगल हारी, द्रवहुँ सो दसरथ अजिर बिहारी’ के उच्चार के साथ ही ‘तुलसी रामायण’ को अपना आत्मिक प्रणाम निवेदित कर समस्त सृष्टि के मँगल का उद्घोष करती हुयी अनन्त नाद को सदा के लिए मुखर कर गयी है। मुकेश को श्रवण करते हुए ‘रामायण’ के प्रत्येक काण्ड में वर्णित कथा-कहानी का विवरण इस प्रकार सजीव एवं जीवन्त बन पड़ा है कि यह आपकी स्वयं की उपस्थिति तथा पात्रता इस पावन यात्रा में सुनिश्चित करा जाती है। जन मानस के सरोकार, उसके प्रयोजन तथा दिनचर्या की विभिन्न गतिविधियों का दर्पण बन कर ‘रामायण’ प्रत्येक नर, नारी, शिशु, वृद्ध, युवा और बालक का पालक भी है। मुरली मनोहर स्वरूप का लोक कल्याण को प्रशस्त करता संगीत-संयोजन इस ‘तुलसी रामायण’ को प्रचलित लोक संगीत की परिष्कृत शैली में रचने की प्रक्रिया वास्तव में उन समस्त सम्भावनाओं को भी मूर्त रूप दे गया है जो अदृश्य-अव्यक्त है। इस प्रकार के प्रयोजन हेतु प्रायः गायक माध्यम मात्र ही होते हैं परन्तु मुकेश इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में निमित्त मात्र नहीं है। किसी सृजन को पुनः सृजित करने का विशेष कौशल लिए मुकेश की वाणी उस क्रिया को भी स्वयं जीती है जिसके गुणधर्म उसमें निहित होते हैं। जीवन्त अभिव्यक्ति तब ही सम्भव होती है जब कोई गवैया कथ्य को सम्प्रेषित करते हुए उसे भोगता भी है। पराए दर्द को स्वयं में समा लेने का नैसर्गिक सामर्थ्य एक अत्यन्त दुर्लभ गुण है जो अवचेतन मन के भीतर अनुभूतियों को साधने की एक सतत प्रक्रिया को आत्मसात कर ही सम्भव हो पाता है। मानस गायन के इस उपक्रम में मुकेश जिस प्रकार सम्पूर्ण सृजन के रचयिता बन कर स्वयं ही साध्य, साधन और साधक बन कर इसे प्रशस्त करते हैं वह अद्भुत है।
अयोध्या नगर के नव निर्मित श्री राम मन्दिर परिसर में जिन अनेक देवी-देवताओं, ऋषि-महर्षि सन्त-महन्त, सृजनशील मनीषियों की पावन प्रतिमाओं को श्रद्धापूर्वक स्थापित करने का उपक्रम किया जा रहा है उनमें महर्षि वाल्मीकि, सन्त तुलसीदास एवं महागायक मुकेश का स्थान अतिविशिष्ट श्रेणी में रखा जाना चाहिए। भारतीय सिने गीत-संगीत को वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता के शीर्ष शिखर पर विराजित करने वाले प्रथम पार्श्व गायक मुकेश ही थे। मुकेश की वाणी में आबद्ध ‘राम चरित मानस’ ऐसा प्रथम अ-सिनेमाई गायन संकलन है जो कालजयी लोकप्रियता के स्तर पर सिनेमा सहित अन्य समस्त प्रचलित संगीत विधाओं में सर्वोपरि है। आज पचास वर्ष की दीर्ध अवधि के पश्चात् भी इसकी लोकप्रियता में निरन्तर दसों दिशाओं में गुणात्मक रूप से वृद्धि हो रही है। रामायण और मुकेश इस प्रकार परस्पर गुँथ गए हैं कि ये एक-दूजे के शाश्वत रूप से पूरक हो चुके हैं। यह मुकेश द्वारा मानस गायन का ही प्रताप है कि सनातन धर्मावलम्बियों के अतिरिक्त मुस्लिम, ईसाई एवं अन्य धर्म-सम्प्रदाय के लोगों के संकलन में रामायण ग्रन्थ भले ही न हो पर मुकेश के स्वर में रामायण का संग्रह अवश्य मिल जाएगा। ‘रामायण’ गायन के साथ ही प्रभु राम को समर्पित मुकेश के गाए ढेरों भक्ति गीतों का एक ऐसा विशिष्ट अनमोल संग्रह भी है जिसके श्रवण मात्र से प्राणी राममय हो जाता है। गायक मुकेश के सुपुत्र गायक नितिन मुकेश ने भी अपने यशस्वी पिता का अनुसरण करते हुए रामायण कथा को गीत रूप में तथा सन्त तुलसीदास रचित ‘सम्पूर्ण सुन्दर काण्ड’ एवं श्री राम को समर्पित ढेरों भजन को अपनी भावपूर्ण वाणी से शृंगारित किया है जो अतुलनीय-अलौकिक बन पड़ा है। श्री राम मन्दिर के प्रांगण में गायक मुकेश की प्रतिमा के साथ ही उनके स्वर में रामायण गायन तथा राम भजन की अनवरत प्रस्तुति का सुयोग बना कर श्री राम और उनके विश्व भर के अनन्त भक्तों के हृदय भाव को मूर्त रूप दिया जा सकता है जो चिरकाल तक श्री राम दर्शन, चिन्तन, मनन को सम्वर्धित करती रहेगी।
‘मानस’ का यह कालजयी आध्यात्मिक सुरीला इतिहास मुकेश की एक महान उपलब्धि है जो चिर काल तक सृष्टि में उनकी सरल, जीवन्त एवं सामयिक गायन शैली का गुणगान करती रहेगी। संगीतकार कल्याणजी-आनन्दजी की उक्ति महान मुकेश के सम्बन्ध में उनके समस्त जीवन चरित्र का सार था – मुकेश जी कलयुग में सतयुग के व्यक्ति थे। सिनेमा के मायालोक में रहते हुए भी वे सात्विक वृत्ति के उच्च कोटि की महान आत्मा थे। कालजयी गायक मुकेश अपने संग जीवनपर्यन्त ‘रामायण’ रखते थे। अमेरिका-कनाडा की अपनी संगीत यात्रा के समय जब उनका आकस्मिक निधन हुआ तब प्रभु श्रीराम के व्यक्तित्व-कृतित्व को संजोए उनका प्रिय ग्रन्थ ‘रामायण’ उनके निकट ही था।
बालमिकी की ‘रामायण’ हो या तुलसीदास की, उसे इसके अभ्युदय काल से लेकर वर्तमान समय के मध्य असंख्य गवैयों ने गाया है, कितने ही सत्संग में कथा वाचकों ने इसे बाँचा है, ‘श्री रामलीला’ के मंचन में भी सदियों से सम्वाद के माध्यम से जन-जन में यह प्रसारित हुआ है तथा भविष्य में भी यह सब अनन्त काल तक इसी प्रकार सम्प्रेषित होता रहेगा परन्तु इन सबमें जिस अभिव्यक्ति को सर्वथा प्रखर, प्रभावी, आत्मीय, अनुपम, अनूठा, साहित्यिक, कलात्मक एवं कल्याणकारी श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ कहा जाएगा वह निःसन्देह ‘मुकेश मुखर मानस’ ही है।
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